रूपांतरित जीवन भाग 7—दुःख को सहने के लिए 6 प्रेरणायें

(English version: “The Transformed Life – 6 Motivations To Endure Suffering – Part 1,” “The Transformed Life – 6 Motivations To Endure Suffering – Part 2”)
रोमियों 12:12ब में “क्लेश में स्थिर” रहने, की आज्ञा दी गई है | ऐसा करना बिल्कुल भी आसान कार्य नहीं है | परन्तु, जब बाईबल हमें इस आज्ञा का पालन करने के लिए कहती है, तो ऐसा किया जा सकता है–पवित्र आत्मा की सहायता से, जो परमेश्वर की समस्त आज्ञाओं का पालन करने की सामर्थ हमें देता है–इस आज्ञा को पालन करने की भी |
“क्लेश”, शब्द का इस्तेमाल, दाखमधु बनाने के लिए अंगूर को अत्याधिक दबाव के साथ कुचलने की क्रिया का वर्णन करने के लिए किया जाता था | “स्थिर”, शब्द में अटल रहने, सहनशील बने रहने या डटे रहने का विचार निहित है | इन शब्दों में “तीव्र दबाव के मध्य शांत बने रहने”, का विचार निहित है |
जब हम दुःख का सामना करते हैं, तो हम विशेष रूप से इन तीन में से किसी एक तरीके से प्रतिक्रिया दिखाते हैं:
(a) यदि संभव हो तो कोई आसान विकल्प [शार्ट-कट] ले लेते हैं |
(b) उसे एक नकारात्मक दृष्टिकोण से सह लेते हैं क्योंकि हम उससे बच नहीं सकते |
(c) धीरज से सहते हैं और परमेश्वर की प्रतीक्षा करते हैं कि वह अपने समय और अपने तरीके से हस्तक्षेप करेगा |
मेरी प्रार्थना है कि हम सदैव अंतिम विकल्प का चुनाव करें | ऐसा करने के द्वारा हम न केवल रोमियों 12:12ब में दी गई इस आज्ञा के प्रति आज्ञाकारिता को दर्शाते हैं बल्कि साथ ही साथ हम पवित्र आत्मा को अनुमति देते हैं कि वह हमें और अधिक यीशु के समान बनने के लिए रूपांतरित करे क्योंकि यीशु मसीह ने सभी दुखों को एक धीरजवंत और परमेश्वर को महिमा देने वाले तरीके से सहा | परन्तु, हम ऐसा कैसे करेंगे? इन 6 प्रेरणाओं को देखने के द्वारा जो हमें सभी प्रकार के दुखों को सहने के लिए सहायता देंगे |
प्रेरणा # 1. दुःख हमें तोड़ देता है, जिसके कारण हम प्रार्थना करते हुए परमेश्वर को पहले से कहीं अधिक ढूँढने लगते हैं |
दुःख इस बात को प्रगट करता है कि हम सचमुच में कितने कमजोर हैं और हमें प्रभु की कितनी अधिक आवश्यकता है | यह हमें अपने छुटकारे के लिए स्वयं पर भरोसा करने के गुण [जो कुछ और नहीं बल्कि अहंकार है] से मुक्त कर देती है, और छुटकारे के लिए परमेश्वर को पुकारने के लिए बाध्य करती है | वास्तव में, रोमियों 12:12 का ठीक अगला वाक्याँश प्रार्थना करने की एक बुलाहट देता है | पौलुस ने अपनी देह में काँटा चुभाये जाने के विषय में परमेश्वर की दोहाई दी [2 कुरिन्थियों 12:7-8] | अय्यूब के दुःख ने, उसे तोड़ दिया और वह दुःख उसे परमेश्वर के और समीप ले आया | हमारे साथ भी ऐसा ही है | दुःख में, हमें तोड़ने और इस प्रकार प्रार्थना में परमेश्वर के और समीप लाने की सामर्थ है |
दो भाई एक तालाब के पास खेल रहे थे | छोटे भाई ने देखा कि उसने अपनी जिस कागज़ की नाव को तालाब में डाला था, वह कुछ ज्यादा ही दूर चला गया था; यह देखकर वह निराश हो गया | यह देखकर, बड़ा भाई इस ढंग से पत्थर फेंकने लगा कि पत्थर नाव के उस पार जाकर गिर रहे थे जिससे लहरें उठती थीं और आख़िरकार उन लहरों के थपेड़ों ने नाव को किनारे के पास पहुँचा दिया और छोटे भाई ने उसे उठा लिया | ठीक इसी प्रकार से, परमेश्वर हमें अपने पास खींचने के लिए दुःख का इस्तेमाल करता है |
क्या परमेश्वर ने हमें कभी तोड़ा है? यदि हाँ, तो क्या हम अपनी परीक्षा के बाद और अधिक नम्र हुए हैं? क्या हम प्रार्थना में होकर परमेश्वर के और समीप हो रहे हैं? यदि ऐसा नहीं हो रहा है, तो हम अभी से एक नई शुरुआत कर सकते हैं | हम, हमारे दुख को एक ऐसे माध्यम के रूप में देखना सीख सकते हैं, जिसका इस्तेमाल परमेश्वर हमारे घमण्ड से हमें छुडाने और हमें अपने पास खींच लेने के लिए करता है | यदि नहीं सीख रहे हैं, तो फिर हम, हमारे दुःख को व्यर्थ जाने दे रहे हैं |
प्रेरणा # 2. दुःख, हमारे विश्वास की सच्चाई को प्रमाणित करता है |
1 पतरस 1:6-7 में लिखा है, “6 और इस कारण तुम मगन होते हो, यद्यपि अवश्य है कि अब कुछ दिन तक नाना प्रकार की परीक्षाओं के कारण उदास हो | 7 और यह इसलिए है कि तुम्हारा परखा हुआ विश्वास, जो आग से ताए हुए नाशमान सोने से भी कहीं, अधिक बहुमूल्य है, यीशु मसीह के प्रगट होने पर प्रशंसा, और महिमा, और आदर का कारण ठहरे |” दुःख से गुजरते समय दिखाई गई हमारी प्रतिक्रिया हमारे विश्वास के प्रकृति [चरित्र] को प्रगट करती है |
यीशु मसीह, मरकुस 4:17 में हमसे कहते हैं कि जब “वचन के कारण उन पर [झूठे विश्वासियों पर] क्लेश या उपद्रव होता है, तो वे तुरन्त ठोकर खाते हैं |” परन्तु यीशु मसीह ने यह भी कहा कि सच्चे विश्वासी वे लोग हैं जो “धीरज से फल लाते हैं” [लूका 8:15] | दूसरे शब्दों में कहें तो, जब दुःख का सामना करना पड़ता है, तो झूठे विश्वासी पलायन कर जाते हैं जबकि सच्चे विश्वासी धीरज से डटे रहते हैं और इस प्रकार दर्शाते हैं कि उनका विश्वास, सच्चा विश्वास है |
दुःख से गुजरते समय हम किस प्रकार की प्रतिक्रिया दिखाते हैं? यदि हमारी प्रतिक्रिया, धीरज के साथ सहने वाली प्रतिक्रिया नहीं है तो फिर हमें बिल्कुल नई शुरुआत करने की आवश्यकता है | हमें अपने दुःख को परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले एक ऐसे माध्यम के रूप में देखने की आवश्यकता है, जिसके द्वारा परमेश्वर हमारी सहायता करता है कि हम अपने विश्वास को परख सकें–ताकि हम देख सकें कि हमारा विश्वास सच्चा है कि नहीं | परखा गया विश्वास ही एकमात्र विश्वास है जिस पर भरोसा किया जा सकता है | परमेश्वर का प्रेम हमें परीक्षाओं से दूर नहीं रखता है बल्कि यह प्रेम हमारी सहायता करता है कि हम परीक्षाओं से होकर गुजर सकें |
प्रेरणा # 3. दुःख, पीड़ा में पड़े अन्य लोगों के प्रति और अधिक दयालु बनने में सहायता करता है |
स्वाभाविक रूप से, हम ऐसे लोग हैं जो सदैव भागमभाग में फँसे रहते हैं और जिनके पास दूसरों की समस्या सुलझाने के लिए अधिक समय नहीं रहता है | परन्तु, दुःख से गुजरना हमारी सहायता करता है कि हम ठहरें और दूसरों को थोड़ा समय दें–उनकी समस्याओं को सुनने और यदि आवश्यक हो तो उनके साथ रोने के लिए | साथ ही साथ दुःख से गुजरने के कारण हम दूसरों को सांत्वना देने के लिए और अधिक काबिल बन जाते हैं | हम जान पाते हैं कि दुःख में पड़े लोगों को कैसा महसूस हो रहा होगा क्योंकि हम उस परिस्थिति विशेष से होकर गुजर चुके थे |
2 कुरिन्थियों 1:3-4 में पौलुस हमें परमेश्वर की स्तुति करने के लिए कहता है–परमेश्वर को वहाँ पर “दया का पिता” और “सब प्रकार की शाँति का परमेश्वर”, कहा गया है क्योंकि वह हमें “हमारे सब कष्टों में शाँति देता है” | परन्तु पौलुस उतना कहकर रुक नहीं जाता है | वह आगे बढ़ता है और परमेश्वर द्वारा हमें शाँति दिए जाने के उद्देश्य को बताता है: “ताकि हम उस शाँति के कारण जो परमेश्वर हमें देता है, उन्हें भी शान्ति दे सकें, जो किसी प्रकार के क्लेश में हों |” क्लेश से होकर गुजरते समय जो शाँति हमें मिलती है, वह दूसरों को शाँति देने के लिए मिलती है!
पाकिस्तान में सेवारत एक महिला मिशनरी ने ये बातें लिखीं:
कई वर्ष पूर्व जब मैं और मेरे पति फ्रैंक पाकिस्तान में रहते थे, तो हमारी छह महीने की बच्ची का देहांत हो गया | इस शोक की खबर को सुनकर एक बुजुर्ग पंजाबी हमें सांत्वना देने आये | उन्होंने कहा, “इस प्रकार की एक दुखद घटना उबलते पानी में डुबाये जाने के समान है | यदि आप एक अंडा हैं तो आपका क्लेश आपको उबालकर कठोर और उदासीन बना देता है | यदि आप एक आलू हैं, तो मुलायम और नर्म, लचीला और अनुकूलनशील बनकर उभरेंगे |” परमेश्वर को यह हास्यापद लगा होगा, परन्तु कई बार ऐसा हुआ है कि मैंने यह प्रार्थना की, “हे प्रभु, मुझे आलू बनाईए |”
आईए हम अपने दुखों और उसके बाद मिलने वाले शाँति से सीखें, शाँति जो हमें इसलिए मिलती है कि हमारा हृदय कोमल बने और जो लोग दुःख में हैं उनके लिए आशीष का कारण बनने के लिए समय निकालें | आईए हम महत्वपूर्ण बातों के लिए समय देना सीखें–ऐसी बातों के लिए जो जीवन के लिए सचमुच में महत्वपूर्ण हैं | आईए सीखें कि हम दूसरों तक परमेश्वर की शाँति पहुँचाने का माध्यम कैसे बन सकते हैं | हमने परमेश्वर की शाँति सेंतमेंत में पाई है; हमें दूसरों को वह शाँति सेंतमेंत में देना है |
क्या हम वैसा करते हैं? क्या हमारे दुखों ने हमें दुःख में पड़े दूसरे लोगों के प्रति कहीं अधिक कोमल और दयालु बनाया है? क्या हम दुःख में पड़े लोगों के साथ रहने के लिए समय निकालते हैं? क्या हम उनको प्रोत्साहित करने और उनकी आश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए समय निकालते हैं? यदि हम ऐसा नहीं कर रहे हैं तो अभी आरम्भ कर सकते हैं | हम हमारे दुखों को एक ऐसे ईश्वरीय–माध्यम के रूप में देख सकते हैं, जिसके द्वारा परमेश्वर हमें दूसरों के लिए आशीष का कारण बनाता है | यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो हम अपने दुखों को व्यर्थ गँवा रहे हैं |
प्रेरणा # 4. दुःख, विश्वास में परिपक्व होने में सहायता करता है |
रोमियों 5:3 में लिखा है कि “क्लेश धीरज उत्पन्न करता है |” याकूब 1:3 हमें स्मरण दिलाता है कि, “विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है ” | दुःख, हमारे जीवन में आत्मिक विकास में बाधा पहुँचाने वाली वस्तुओं को प्रगट करने और दूर करने का कार्य करता है | यह तो हमें विश्वास में परिपक्व करने के लिए परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला तरीका है |
एक महिला के बारे में एक कहानी प्रचलित है, जो चाँदी का काम करने वाले एक कारीगर के पास यह देखने के लिए गई कि चाँदी की सफ़ाई कैसे की जाती है | वह कारीगर चाँदी को चिमटे की सहायता से आग की लपटों के मध्य रखा हुआ था और उसकी आँखें चाँदी पर एकटक लगी हुई थीं और साथ ही साथ वह उस महिला को पूरी प्रक्रिया को समझाये जा रहा था | उसने कहा कि यदि चाँदी भट्ठी में अधिक लम्बे समय तक रहेगी तो पिघल जायेगी और यदि बहुत कम समय रहेगी तो इसकी अशुद्धता दूर नहीं होगी | तब, उस महिला ने पूछा, “आपको कैसे पता चलता है कि समय पूरा हो गया है?” उसने उत्तर दिया, “जब मुझे चाँदी में अपना चेहरा साफ़–साफ़ दिखाई देने लगता है, तब मुझे पता चल जाता है |” ठीक यही काम परमेश्वर भी कर रहा है | वह जानता है कि प्रत्येक परीक्षा से हम कितना अधिक मसीह के समान बनेंगे और जब तक यह कार्य पूरा नहीं हो जाता तब तक वह हमें भट्ठी में रखे रहेगा | परन्तु उसकी आँखें हमेशा हम पर लगी रहेंगी | इसलिए, आईए चिंता करना छोड़ दें |
केवल उन्हीं लोगों में ही आत्मिक विकास होता है, जो दुःख में स्थिर रहते हैं | और कोई रास्ता नहीं है | क्या प्रत्येक परीक्षा के साथ हम अपने विश्वास में परिपक्व हो रहे हैं? यदि नहीं, तो आईए अब से ऐसा करना आरम्भ करें | हमें प्रत्येक परीक्षा को एक ऐसे माध्यम के रूप में देखने की आवश्यकता है जिसका इस्तेमाल परमेश्वर हमारे आत्मिक विकास के लिए करता है | यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो वह परीक्षा व्यर्थ चली जाती है |
प्रेरणा # 5. दुःख, परमेश्वर की आज्ञाओं के प्रति और अधिक आज्ञाकारी बनने में हमारी सहायता करता है |
भजनसंहिता 119:67 में लिखा है, “उससे पहिले कि मैं दु:खित हुआ, मैं भटकता था; परन्तु अब मैं तेरे वचन को मानता हूँ |” कुछ पद आगे जाने पर हम यह भी पढ़ते हैं, “मुझे जो दु:ख हुआ वह मेरे लिये भला ही हुआ है, जिस से मैं तेरी विधियों को सीख सकूँ” [भजनसंहिता 119:71] | दुःख का समय हमें बाध्य करता है कि हम पाप के बारे में और परमेश्वर के वचन के प्रति अनाज्ञाकारिता दिखाने के परिणामों के बारे में अधिक ध्यानपूर्वक सोचें | यह हमें दिखाता है कि परमेश्वर कितना पवित्र है तथा वह पाप को कितनी गंभीरता से लेता है और हमें परमेश्वर की समस्त आज्ञाओं के प्रति आज्ञाकारिता में कितना अधिक बढ़ने की आवश्यकता है |
एक लेखक इतिहास की एक घटना का वर्णन करता है और फिर कुछ निष्कर्षों को निकालता है |
एक पुरानी यूनानी कहानी है जिसमें सेनापति एंटीगोनस के आधीन सेवा करने वाले एक सैनिक को एक ऐसी अत्यंत दर्दनाक बीमारी हो गई थी जिसके कारण शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाने की संभावना थी | वह सैनिक हमेशा प्रथम पंक्ति में रहा करता था, और वीरों के वीर [महावीर] के समान वह उस जगह जाने के लिए दौड़ पड़ता था जहाँ सर्वाधिक भीषण युद्ध चल रहा हो | उसका दर्द उसे लड़ने के लिए उत्तेजित करता था ताकि वह उस दर्द को भूल जाये; और उसे मृत्यु का भय नहीं था, क्योंकि उसे मालूम था कि वह वैसे भी अधिक लम्बे समय तक नहीं जीने वाला था |
एंटीगोनस उस सैनिक की वीरता की अत्याधिक प्रशंसा करता था और जब उसे उसकी बीमारी के बारे में पता चला तो उसने उस समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध चिकित्सक से उसका इलाज कराया और वह ठीक हो गया | परन्तु, ठीक होने के बाद वह सैनिक युद्ध की प्रथम पंक्ति से नदारद रहने लगा | वह अब अपनी सहूलियत देखने लगा था, उसने अपने सहकर्मियों को बताया कि अब उसके पास जीने के कुछ महत्वपूर्ण कारण थे–जैसे कि उसका स्वास्थ्य, घर, परिवार और अन्य सुख–सुविधायें और जिस प्रकार का जोखिम वह पिछली लड़ाईयों में उठाया करता था, वैसा जोखिम वह अब नहीं उठायेगा |
इसी प्रकार से, जब हम कई मुसीबतों से घिरे रहते हैं, तो बहुधा हम परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा परमेश्वर की सेवा करने के लिए साहसी बना दिए जाते हैं | हम महसूस करते हैं कि हमारे पास इस संसार में जीने के लिए कोई कारण नहीं है और हम आने वाले संसार की आशा से संचालित होते हैं | हम मसीह के लिए उत्साह दिखाने, अपने आप का इंकार करने और साहस दिखाने के लिए प्रेरित होते हैं, परन्तु अच्छे समय में कितनी ही बार हम विपरीत प्रतिक्रिया दिखाते हैं!
जब हम उच्च शिखर पर होते हैं, तो इस संसार का आनंद और सुखविलास, उस आने वाले संसार को स्मरण करने के कार्य को हमारे लिए कठिन बना देता है | हम तब सुहावने सुखों में धंसते चले जाते हैं | प्रियों, इस संसार के तामझाम और रोमांच को, परमेश्वर की बातों के प्रति आपको उदासीन बनाने और आपके आत्मिक विकास की वृद्धि को रोकने की अनुमति न दें |
क्या हमारे दुखों ने परमेश्वर के वचन के प्रति हमें और अधिक आज्ञाकारी बनाया है? यदि नहीं, तो हम बिल्कुल नई शुरुआत कर सकते हैं | आगे चलकर, हम देख पायेंगे कि प्रत्येक परीक्षा ऐसा ईश्वरीय–माध्यम है जिसके द्वारा परमेश्वर हमारी सहायता करता है कि हम उसकी आज्ञा का पालन और अधिक तत्परता से कर सकें |
प्रेरणा # 6. दुःख, हमारे भविष्य के महिमीकरण की आशा को दृढ़ करता है |
इसी रोमियों 12:12 में पहले लिखा है, “आशा में आनंदित रहो |” वहाँ जिस आशा की बात की गई है, वह हमारे भविष्य के महिमीकरण की आशा है–जब हमें एक नया और महिमित देह मिलेगा | रोमियों 5:3-4 हमारे दुखों को हमारी आशा के दृढ़ किये जाने से जोड़ता है–ठीक–ठीक कहें तो, “परमेश्वर की महिमा की आशा” से [रोमियों 5:2], जो फिर से ऐसे समय की ओर संकेत करता है, जब हमें नई देह मिलेगी, और यह कार्य होगा, मसीह के पुनरागमन के समय |
जो लोग अधिक दुःख नहीं उठाते हैं, उनकी तुलना में सताव से होकर गुजरने वाले मसीही, मसीह के आगमन के लिए अधिक लालायित रहते हैं | आखिर क्यों? क्योंकि महिमा पाने की उनकी आशा इतनी तीव्र होती है कि वे वास्तव में, इसके बारे में हर समय सोचते रहते हैं और इस बात की जानकारी रखने के कारण, कि यह तभी होगा, जब मसीह वापस आयेगा, वे मसीह के आगमन के लिए लालायित बने रहते हैं |अक्सर, हम मसीह के आगमन के लिए उतने लालायित नहीं रहते हैं क्योंकि इस धरती में हम कई अच्छी वस्तुओं का आनंद उठाते हैं और ये वस्तुयें हमारी आँखों को सच्चे ख़जाने से दूर रखती हैं–मसीह के पुनरागमन से दूर, उस पुनरागमन से दूर, जो हमारे महिमीकरण का कारण बनेगा | तो परमेश्वर दुःख का इस्तेमाल उन अच्छी वस्तुओं को बिखराने के लिए इस प्रकार से करता है कि हम मसीह के आगमन के लिए लालायित होना आरम्भ कर दें | हमें स्वयं से यह पूछने की आवश्यकता है कि क्या हमारे जीवन की परीक्षाओं ने हममें मसीह के समान अधिक और अधिक बनने की अभिलाषा और उसके आगमन के लिए लालसा उत्पन्न की है? यदि नहीं, तो फिर नई शुरुआत करने के लिए अधिक देर नहीं हुई है | हमें अवश्य ही हमारे जीवन के दुखों को ऐसे ईश्वरीय–माध्यम के रूप में देखने के लिए आरम्भ करना चाहिए जो भविष्य के महिमीकरण की हमारी आशा को दृढ़ करता है |
समापन विचार |
तो हमने देख लिया | उन 6 प्रेरणाओं को, जो मैं आशा करता कि दुखों को सहने में हमारी सहायता करेंगे |
प्रेरणा # 1 . दुःख हमें तोड़ देता है, जिसके कारण हम प्रार्थना करते हुए परमेश्वर को पहले से कहीं अधिक ढूँढने लगते हैं |
प्रेरणा # 2. दुःख, हमारे विश्वास की सच्चाई को प्रमाणित करता है |
प्रेरणा # 3. दुःख, पीड़ा में पड़े अन्य लोगों के प्रति और अधिक दयालु बनने में सहायता करता है |
प्रेरणा # 4. दुःख, विश्वास में परिपक्व होने में सहायता करता है |
प्रेरणा # 5. दुःख, परमेश्वर की आज्ञाओं के प्रति और अधिक आज्ञाकारी बनने में हमारी सहायता करता है |
प्रेरणा # 6. दुःख, हमारे भविष्य के महिमीकरण की आशा को दृढ़ करता है |
कई और प्रेरणाओं को जोड़ा जा सकता है | परन्तु आरम्भ करने के लिए यह एक अच्छी शुरुआत हो सकती है | जब हम क्लेशों से होकर गुजरें तो इन बातों के बारे में सोचें और परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वह हमें दुखों को धीरज से सहने के लिए सहायता करे | इस बात को भी स्मरण रखें कि ये आशीषें केवल उनके लिए ही हैं जो धीरज से सहते हैं–उनके लिए नहीं जो कोई बीच का रास्ता ले लेते हैं और दुःख से बाहर निकल जाते हैं या फिर उनके लिए जो परमेश्वर और उसके लोगों के प्रति क्रोध के पापमय भाव में भरकर इसे सहते हैं |
दुःख को एक बाईबल आधारित तरीके से सहने में एक व्यक्ति की सहायता करने के लिए दिवंगत पास्टर जे. सी. राईल [J. C. Ryle] के निम्नांकित कथन सहायक सिद्ध होंगे:
हमें अवश्य ही धीरज के साथ दौड़ना है, अन्यथा हम कभी नहीं जीतेंगे | ऐसी कई बातें होंगी जिसे हम समझ नहीं सकते, ऐसी कई बातें जिनके ठीक विपरीत बातों की अभिलाषा संभवतः यह देह करे, परन्तु आईए अंत तक बने रहें, और सारी बातें स्पष्ट हो जायेंगी, और सिद्ध हो जायेगा कि परमेश्वर की प्रबंध–योजना सर्वोत्तम थी | अपना प्रतिफल धरती पर पाने की मत सोचो, पीछे मत हटना क्योंकि तुम्हारी सारी अच्छी वस्तुयें अब भी आने पर हैं |
आज क्रूस है, परन्तु कल मुकुट है | आज परिश्रम है, परन्तु कल मज़दूरी है |आज बीज का बोया जाना है, परन्तु कल लवनी [फसल का काटा जाना] है |आज संग्राम है, परन्तु कल विश्राम है | आज रोना है, परन्तु कल आनंद है |और कल की तुलना में आज का दिन है ही क्या? आज तो मात्र सत्तर वर्ष हैं, परन्तु कल अनंतकाल है | धीरज रखो और अंत तक आशा में बने रहो |
यही कार्य प्रभु यीशु ने किया | इब्रानियों 12:1-3 में लिखा है, “1 इस कारण जब कि गवाहों का ऐसा बड़ा बादल हम को घेरे हुए है, तो आओ, हर एक रोकने वाली वस्तु, और उलझाने वाले पाप को दूर कर के, वह दौड़ जिस में हमें दौड़ना है, धीरज से दौड़ें | 2 और विश्वास के कर्ता और सिद्ध करने वाले यीशु की ओर ताकते रहें; जिस ने उस आनन्द के लिये जो उसके आगे धरा था, लज्ज़ा की कुछ चिन्ता न करके, क्रूस का दुख सहा; और सिंहासन पर परमेश्वर के दाहिने जा बैठा | 3 इसलिए उस पर ध्यान करो, जिस ने अपने विरोध में पापियों का इतना वाद-विवाद सह लिया कि तुम निराश होकर हियाव न छोड़ दो |”
आईए बढ़ते रहें | हम जब परमेश्वर को महिमा देने वाले एक तरीके में होकर दुःख को सहने के बारे में सीख रहे हैं तो मैं बीते समय के कुछ प्रसिद्ध मसीहियों के द्वारा कही गई कुछ प्रोत्साहित करने वाली बातों को उद्धृत करते हुए इस लेख को समाप्त करता हूँ–ऐसे मसीहियों के द्वारा कही गई बातों को जो स्वयं इस दुःख से भली–भाँति परिचित थे |
“यदि परमेश्वर हमें पथरीले रास्ते पर भेजता है, तो वह मजबूत जूते भी देता है |”
“कोई भी विश्वास उस विश्वास के जितना बहुमूल्य नहीं है, जिसने कठिनाई में जीवन गुजारा है और उस पर जय पाई है | परखा हुआ विश्वास अनुभवी बनाता है | यदि आपको परीक्षाओं से होकर गुजरने की आवश्यकता नहीं पड़ती तो आप कभी भी यह विश्वास नहीं करते कि आप में वे कमजोरियाँ हैं जिन्हें परीक्षाओं ने उजागर किया | और यदि आपको परीक्षा से होकर गुजरने के लिए परमेश्वर की सामर्थ नहीं मिलती तो आप परमेश्वर की सामर्थ को कभी नहीं जान पाते |”
“आप तब तक यह नहीं जान सकते कि यीशु मसीह ही आपकी सम्पूर्ण आवश्यकता है, जब तक कि आपके पास यीशु मसीह के अतिरिक्त और कुछ भी न हो |”