एक भक्त कलीसिया के 12 संकल्प: भाग 2

Posted byHindi Editor November 26, 2024 Comments:0

(English version: “12 Commitments of a Godly Church – Part 2”)

एक भक्त कलीसिया के 12 संकल्प नामक इस श्रृंखला के भाग 1 में हमने एक भक्त कलीसिया के 12 संकल्पों में से प्रथम 4 संकल्पों को देखा, जो इस प्रकार हैं: (1) उद्धार पाए हुए लोगों की सदस्यता (2) बाईबल—ज्ञान में बढ़ना (3) रीति—विधियों का पालन करना और (4) संगति | इस लेख में हम निम्नांकित 4 संकल्पों को देखेंगे |

संकल्प # 5. एक दूसरे से प्रेम करना 

यूहन्ना 13:35 में यीशु मसीह ने कहा, “यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो |” यदि कोई एक बात आरंभिक कलीसिया में अलग से दिखाई पड़ती थी, तो वह था उनका एक दूसरे के प्रति प्रेम | यह संकल्प पिछले संकल्प ‘संगति’, से बिल्कुल ही जुड़ा हुआ है | हम यह कह सकते हैं कि उनकी संगति मजबूत थी क्योंकि वे सचमुच में एक दूसरे से प्रेम करते थे | 

और यह प्रेम केवल बातों में ही नहीं था बल्कि यह कार्यों से प्रगट था | प्रेरितों के काम 2:44 में लिखा है, 44 और वे सब विश्वास करने वाले इकट्ठे रहते थे, और उन की सब वस्तुयें साझे की थीं | 45 और वे अपनी अपनी सम्पत्ति और सामान बेच बेचकर जैसी जिस की आवश्यकता होती थी बाँट दिया करते थे | पद 46 में लिखा है कि वे “घर घर रोटी तोड़ते हुए आनन्द और मन की सीधाई से भोजन किया करते थे |” इसका अर्थ यह है कि दूसरों के लिए उनके घर खुले हुए थे | यह प्रेम का कार्यरूप में प्रगटीकरण था | जहाँ प्रेम नहीं होगा वहाँ दूसरों के लिए घर के दरवाजे खुले हुए नहीं होंगे!

इतिहासकार बताते हैं कि जो लोग फ़सह का पर्व मनाने यरूशलेम आये थे और जिनका बाद में उद्धार हुआ, वे लोग विश्वासी के रूप में वहीं की संगति में ठहर गये | साथ ही साथ जो स्थानीय यहूदी लोग विश्वास में आये उनको भी यहूदी समुदाय ने निकाल दिया होगा और इस प्रकार उन्हें अपने व्यापार और रोजगार में नुकसान हुआ होगा | इन सबके कारण कईयों को  घोर आर्थिक तनावों का सामना करना पड़ा होगा |  

और जिन विश्वासियों के पास पैसा था वे लोग अपने पास जो कुछ भी था उसे दूसरों के साथ बाँटने के लिए इच्छुक थे | कल्पना करें कि कोई व्यक्ति इसलिए अपनी संपत्ति बेच देता था कि किसी दूसरे व्यक्ति को भोजन मिल सके ! वे जानते थे कि मसीही जीवन ऐसा ही था | और यह उनके लिए कोई एक बार करने वाला कार्य नहीं था | वे लोग निरंतर प्रेम दिखाते थे | हम आगे प्रेरितों के काम 4:32-35 में पढ़ते हैं, 32 और विश्वास करने वालों की मण्डली एक चित्त और एक मन के थे यहाँ तक कि कोई भी अपनी सम्पति अपनी नहीं कहता था, परन्तु सब कुछ साझे का था | 33 और प्रेरित बड़ी सामर्थ से प्रभु यीशु के जी उठने की गवाही देते रहे और उन सब पर बड़ा अनुग्रह था | 34 और उन में कोई भी दरिद्र न था, क्योंकि जिन के पास भूमि या घर थे, वे उन को बेच बेचकर, बिकी हुई वस्तुओं का दाम लाते, और उसे प्रेरितों के पाँवों पर रखते थे | 35 और जैसी जिसे आवश्यकता होती थी, उसके अनुसार हर एक को बाँट दिया करते थे |

एक भक्त कलीसिया की विशेषता यह होनी चाहिए कि उसके सदस्य अन्य सदस्यों के संघर्षों को जानने और प्रायोगिक रूप से उनकी सहायता करने के सक्रिय प्रयास में रहते हैं [1 यूहन्ना 3:16-18] | उन्होंने यह दिखाया कि जब भी उन्होंने किसी संगी विश्वासी को आवश्यकता में देखा और यदि वे सहायता करने के काबिल थे, तो सहायता करने से वे कभी भी नहीं हिचकिचाये | अपने प्रेमपूर्ण कार्य से उन्होंने दिखाया कि वे संसार की संपत्ति द्वारा संचालित नहीं थे, बल्कि वे रिश्तों के द्वारा संचालित थे! 

संकल्प # 6. प्रार्थना    

संभवतः आप एक बात से परिचित नहीं होंगे कि लूका अपने द्वारा लिखे गये सुसमाचार की पुस्तक में और साथ ही साथ प्रेरितों के काम में भी प्रार्थना के विषय पर अत्याधिक ध्यान देता है | अपने द्वारा लिखी हुई सुसमाचार की पुस्तक में लूका यीशु मसीह के प्रार्थना जीवन और प्रार्थना के संबंध में उसके द्वारा दी गई शिक्षाओं के बारे में बहुत कुछ लिखता है | और प्रेरितों के काम में वह कलीसिया के प्रार्थना जीवन के बारे में बहुत कुछ लिखता है | प्रेरितों का काम 2:42 बताता है कि आरंभिक कलीसिया निरंतर, “…प्रार्थना करने में लौलीन” रही | इस प्रार्थना में उनके सामान्य प्रार्थनायें और किसी विषय विशेष के लिए की जाने वाली प्रार्थनायें भी सम्मिलित थे | संभवतः उन लोगों ने प्रार्थना के लिए समय—सारणी भी निर्धारित कर रखा था [प्रेरितों का काम 3:1] | वे प्रार्थना के बिना कुछ भी नहीं किया करते थे | प्रार्थना मानो आरंभिक कलीसिया के लिए श्वाँस लेने के कार्य के समान था | 

प्रेरितों का काम 6:4 बताता है कि प्रेरितों ने भी यह संकल्प ले रखा था कि वे निरंतर “प्रार्थना करने में” और फिर वचन की सेवा में लगे रहेंगे | वे जानते थे कि यदि लोंगों का उद्धार करने के लिए पवित्र आत्मा वचन का इस्तेमाल न करे तो उनका समस्त प्रचार व्यर्थ ही ठहरेगा | सरल शब्दों में कहें तो आरंभिक कलीसिया में प्रार्थना करने वाला नेतृत्व और प्रार्थना करने वाले सदस्य थे

हमें इस बात के लिए व्याकुल रहना चाहिए कि पवित्र आत्मा की सामर्थ हमारे द्वारा कार्य करे और यह हमारे व्यक्तिगत प्रार्थना जीवन और कलीसिया प्रार्थना जीवन में दृढ़ता के अतिरिक्त किसी भी तरीके से नहीं हो सकता है! यदि किसी कलीसिया में प्रार्थना को उच्च प्राथमिकता नहीं दी जाती है तो वह कलीसिया एक भक्त कलीसिया नहीं कही जा सकती—और प्रार्थना करने का यह कार्य कलीसियाई नेतृत्व से आरंभ होना चाहिए | जो लोग नेतृत्व में हैं, उन्हें नियमित प्रार्थना सभायें आयोजित करना चाहिए, जिसमें सदस्यों को भी सम्मिलित होना चाहिए | इन सभाओं में कम लोग आने पर भी यह कार्य चलता रहना चाहिए | सही समय पर, परमेश्वर पूरी कलीसिया को आशीष देगा कि सरगर्म प्रार्थना उसकी पहचान बन जाये |

संकल्प # 7. परमेश्वर की स्तुति करना  

जहाँ एक तरफ़ आरंभिक कलीसिया का एक क्षैतिज संकल्प था जिसमें उन्हें लोगों से प्रेम करना था वहीं दूसरी तरफ़ उनका एक ऊर्ध्वाधर संकल्प भी था जिसके अंतर्गत वे परमेश्वर से प्रेम करते थे | और यह प्रेम उनके द्वारा निरंतर परमेश्वर की स्तुति करने के कार्य से प्रगट होता था | प्रेरितों के काम 2:47 का प्रथम भाग बताता है कि जब वे एक साथ मिलते थे तो निरंतर “परमेश्वर की स्तुति करते थे |” परमेश्वर को प्रेम करने वाले लोगों के हृदय से गीत एवं स्तुति और धन्यवाद की प्रार्थनायें निकलते थे | जैसा कि हम प्रेरितों के काम में आगे पढ़ते हैं, उनहोंने परमेश्वर की स्तुति करना कभी भी बंद नहीं किया यहाँ तक कि जब वे क्लेश से होकर गुजरे तब भी नहीं | 

जब लोग आराधना के लिए इकट्ठे होते हैं तब एक भक्त कलीसिया को परमेश्वर की स्तुति करने के कार्य को उच्च प्राथमिकता देनी चाहिए | जो लोग संगीत की सेवकाई से जुड़े हुए हैं, उन्हें सावधानी पूर्वक ऐसे गीतों का चयन करना चाहिए जो बाईबल की सच्चाईयों को सिखाती हों | आराधना को लोगों का मनोरंजन करने के एक साधन के रूप में नहीं देखना चाहिए बल्कि  इसे बाईबल की बहुमूल्य सच्चाईयों को सीखकर परमेश्वर की स्तुति करने के कार्य के रूप में देखा जाना चाहिए | जब परमेश्वर के लोग उसकी स्तुति करने के लिए इकट्ठे होते हैं तो परमेश्वर प्रसन्न होता है!  

संकल्प # 8. सुसमाचार प्रचार 

इस संसार को छोड़कर जाने से पहले पुनरुत्थित यीशु मसीह द्वारा कही गई बातों को सभी 4 सुसमाचार की पुस्तकों में जोर दिया गया है; वहाँ यीशु मसीह कलीसिया को एक इकाई के रूप में और प्रत्येक मसीहियों को व्यक्तिगत रूप से खोए हुओं को सुसमाचार सुनाने की आज्ञा देते हैं [मत्ती 28:18-20; मरकुस 16:15; लूका 24:46-48; यूहन्ना 20:21] |

आरंभिक कलीसिया में यह विशेषता थी कि वह खोए हुओं को सुसमाचार सुनाने के लिए प्रचंड उमंग रखती थी | यह प्रेरितों के काम 2:47 के अंतिम भाग में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, “जो उद्धार पाते थे, उन को प्रभु प्रति दिन उन में मिला देता था |” किसी का उद्धार कैसे होता है? सुसमाचार पर विश्वास करने के द्वारा और उससे पहले आवश्यक है सुसमाचार का सुना जानालोगों के उद्धार पाने के द्वारा कलीसिया बढ़ती ही जा रही थी और यह सच्चाई हमें बताती है कि सक्रिय रूप से सुसमाचार सुनाने का कार्य चल रहा था! कलीसिया के अगुवे और कलीसिया के सदस्य दोनों ही सुसमाचार सुनाने के कार्य में लगे हुए थे | यहाँ तक कि सताव के दौरान भी वे वचन का प्रचार करते रहे [प्रेरितों के काम 8:4] | 

गवाह बनने की बुलाहट देते हुए प्रेरितों के काम का आरम्भ होता है [प्रेरितों के काम 1:8] | और इसका समापन यह बताते हुए होता है कि रोम शहर तक भी सुसमाचार का प्रचार हो चुका था [प्रेरितों के काम 28:30-31] | ऐसा क्यों? वे सुसमाचार प्रचार के लिए संकल्पित थे! एक भक्त कलीसिया में अपने पड़ोस में रहने वाले खोए हुए लोगों और दूर रहने वाले खोए हुए लोगों तक सुसमाचारीय सेवा के माध्यम से पहुँचने का एक संकल्प होना चाहिए | [सुसमाचारीय सेवा के संबंध में और अधिक बातें अगले लेख में देखेंगे] | कलीसिया के लोगों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वे अपने अविश्वासी मित्रों और रिश्तेदारों को सुसमाचार सुनाने के लिए कलीसिया में लायें | उन्हें इस बात के लिए भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वे स्वयं भी अपने रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों और सहकर्मियों को सुसमाचार सुनायें!

प्रार्थना सभा में खोए हुए लोगों के लिए प्रार्थना होनी चाहिए—जिन लोगों को सुसमाचार सुनाया गया है, उनके लिए और इस बात के लिए भी कि प्रभु भविष्य में सुसमाचार सुनाने के लिए द्वारों को खोले | स्वयं व्यक्तिगत रूप से सुसमाचार सुनाने के कार्य में सक्रिय रहने के द्वारा कलीसिया के अगुवों को अन्य सदस्यों के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए |  

प्रथम 4 संकल्पों के साथ ही हमने इस लेख में एक भक्त कलीसिया के अगले 4 संकल्पों को देख लिया, जो निम्नानुसार हैं:

(5) एक दूसरे से प्रेम करना
(6) प्रार्थना
(7) परमेश्वर की स्तुति करना
(8) सुसमाचार प्रचार |

हम एक भक्त कलीसिया के अंतिम 4 संकल्पों को इस 3 लेखों की श्रृंखला के भाग 3 में देखेंगे | तब तक क्यों न आप इस बात पर विचार करते रहें कि अपनी कलीसिया को एक भक्त कलीसिया बनने के लिए संघर्ष करने में आप  कैसे सहायता कर सकते हैं?

Category