एक भक्त कलीसिया के 12 संकल्प: भाग 3

Posted byHindi Editor December 10, 2024 Comments:0

(English version: “12 Commitments of a Godly Church – Part 3”)

एक भक्त कलीसिया के 12 संकल्प नामक इस श्रृंखला के भाग 1 और भाग 2 में हमने एक भक्त कलीसिया के 12 संकल्पों में से प्रथम 8 संकल्पों को देखा, जो निम्नानुसार हैं: (1) उद्धार पाए हुए लोगों की सदस्यता (2) बाईबल–ज्ञान में बढ़ना (3) रीति–विधियों का पालन करना और (4) संगति (5) एक दूसरे से प्रेम करना (6) प्रार्थना (7) परमेश्वर की स्तुति करना और (8) सुसमाचार प्रचार |

इस लेख में हम अंतिम 4 संकल्पों को देखेंगे |

संकल्प #9. शुद्धता 

पवित्र मसीह एक पवित्र कलीसिया की अभिलाषा करता है | प्रकाशितवाक्य 2 और 3 हमें एक चित्र दिखाता है जिसमें मसीह यह निश्चित करने के लिए कलीसियाओं के मध्य में चलते हुए दिखाई दे रहे हैं कि कलीसियाओं में शुद्धता बनी रहे | और यह एक ऐसा कार्य था जिसे परमेश्वर ने आरंभिक कलीसिया में ही करना आरंभ कर दिया था |

प्रेरितों के काम 5 में, हम हनन्याह और सफीरा के बारे में पढ़ते हैं जिन्होंने अपने दान के संबंध में पतरस से झूठ बोला जो कि अंततः पवित्र आत्मा से ही झूठ बोलना था | और परमेश्वर ने उस झूठ और पाखण्ड के पाप के साथ कैसा व्यवहार किया? प्रेरितों का काम 5:3-11 इसका वर्णन देता है | दूसरे शब्दों में कहें तो, मृत्यु | ठीक सुना आपने, मृत्यु! हम लोगों के मन में यह ख्याल आ सकता है कि क्या परमेश्वर का व्यवहार अत्याधिक कठोर नहीं था? आख़िरकर, यह एक झूठ ही तो था और वह भी थोड़े से पैसों के लिए | परन्तु यहीं पर हमें स्वयं को यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता है कि हम जिस परमेश्वर के साथ व्यवहार कर रहे हैं वह एक अत्याधिक पवित्र परमेश्वर है जो पाप को दया की दृष्टि से नहीं देख सकता—विशेषतः उस कलीसिया में जिसे उसने अपने पुत्र के बहुमूल्य लहू से खरीदा [प्रेरितों 20:28] | 

एक ऐसे समय और युग में जब कलीसियाएँ पाप की बात आने पर कोई और रास्ता अपनाने के लिए आतुर रहती हैं, एक भक्त कलीसिया शुद्धता के विषय को हल्के में नहीं ले सकती है और लेना भी बिल्कुल नहीं चाहिए | स्थानीय कलीसिया में होने वाले पाप के साथ व्यवहार करने के लिए कलीसिया को उस प्रक्रिया का अवश्य ही पालन करना चाहिए जिसकी रूपरेखा मत्ती 18:15-20 में स्वयं यीशु मसीह ने दी थी [साथ ही 1 कुरिन्थियों 5 और 2 थिस्सलुनीकियों 3:10-15 भी देखिए] | ऐसे समय भी आ सकते हैं जब एक भक्त कलीसिया को पश्चाताप न करने वाले लोगों को कलीसिया से बाहर करने के दर्दनाक अनुभव से गुजरना पड़े | मैंने कहा, “दर्दनाक” , क्योंकि जिन पापों के लिए पश्चाताप नहीं किया गया है, उन पापों से व्यवहार करना कोई आनंद की बात नहीं है | परन्तु हम उस कार्य को करने के बाद कभी पछता नहीं सकते हैं जिसे करने की आज्ञा शुद्धता को बनाए रखने के लिए कलीसिया का स्वामी देता है क्योंकि वह जानता है कि उसकी कलीसिया के लिए सर्वोत्तम क्या है | हमारा कार्य उससे प्रश्न पूछना नहीं है बल्कि उसकी आज्ञाओं के प्रति सम्पूर्ण समर्पण दिखाना ही हमारी जिम्मेदारी है |

संकल्प # 10. भक्त नेतृत्व    

आरंभिक कलीसिया में प्रेरित थे जो कलीसिया को नेतृत्व प्रदान करते थे—उनमें से 11 लोग प्रत्यक्ष रूप से प्रभु यीशु मसीह द्वारा चुने गये थे और 12वाँ प्रेरित मत्तियाह प्रार्थना के माध्यम से प्रभु द्वारा चुना गया [प्रेरितों के काम 1:23-26] | इस प्रकार से ये काबिल व्यक्ति थे | जब कलीसिया बढ़ी तो नेतृत्व के प्रति समर्पण भी बढ़ा | पौलुस कलीसियाओं की स्थापना कर रहा था और वह कलीसियाओं में अगुवे नियुक्त करने के लिए भी संकल्पवान था, जैसा कि प्रेरितों 14:23 से पता चलता है, “उन्होंने हर एक कलीसिया में उन के लिये प्राचीन ठहराए, और उपवास सहित प्रार्थना कर के, उन्हें प्रभु के हाथ सौंपा जिस पर उन्होंने विश्वास किया था |”  

यहाँ तक कि जब भिन्न सेवकाईयों के द्वारा सेवा करने वाले लोगों की बात भी आई, जैसे कि जरूरतमंद लोगों और विधवाओं को भोजन वितरण करने की सेवकाई की बात, तब भी 12 प्रेरितों ने इस बात पर जोर दिया कि उन लोगों को काबिल व्यक्ति होना चाहिए | प्रेरितों के काम 6:3 में लिखा है, इसलिए हे भाइयो, अपने में से सात सुनाम पुरूषों को जो पवित्र आत्मा और बुद्धि से परिपूर्ण हों, चुन लो, कि हम उन्हें इस काम पर ठहरा दें | ऐसे ही किसी भी व्यक्तियों को नहीं, बल्कि, पवित्र आत्मा से परिपूर्ण मनुष्यों को जिम्मेदारी सौंपी गई | ये उस सेवकाई के आरंभिक चरण थे जिसे बाद में सेवक पदनाम [डीकन्स] से जाना गया | कोई भी कलीसिया अपने नेतृत्व के स्तर से अधिक तरक्की नहीं कर सकती है | इसीलिए स्थानीय कलीसिया का नेतृत्व भक्त पुरुषों के द्वारा किया जाना चाहिए | 

प्राचीनों की योग्यता का विवरण 1 तीमुथियुस 3:1-7, तीतुस 1:6-9 और 1 पतरस 5:1-3 में दिया गया है | सेवकों की योग्यता का विवरण 1 तीमुथियुस 3:8-13 में दिया गया है | एक भक्त कलीसिया को प्रभु से यह माँगना चाहिए कि वह भक्त प्राचीनों [इन्हें पासबान भी कहते हैं] को खड़ा करे, जो न केवल पवित्रशास्त्र के अनुसार योग्य व्यक्ति हों बल्कि साथ ही साथ जिन्हें अपनी बुलाहट का अहसास हो और जो अपने कलीसिया के प्रति सम्पूर्ण मन से समर्पित होने के इच्छुक हों | उन्हें अवश्य ही अपने झुण्ड की अगुवाई करने, उन्हें भोजन कराने और उनका देखभाल करने के लिए इच्छुक होना चाहिए |  एक भक्त कलीसिया को पासबानों की सेवकाईयों में सहायता करने के लिए भक्त सेवकों को नियुक्त करने के लिए भी प्रयास करना चाहिए | प्रभु को जैसा भायेगा, वह इन पदों के लिए अपने समय में उचित व्यक्तियों को खड़ा करेगा |  

संकल्प # 11. सेवकाईयाँ 

प्रेरितों के काम 1:8 में यीशु मसीह द्वारा अपने चेलों को दी गई आज्ञा को लिपिबद्ध किया गया है जिसमें वे अपने चेलों को यरूशलेम, यहूदिया, सामरिया और पृथ्वी के छोर तक अपना गवाह बनने के लिए कहते हैं: “परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ पाओगे; और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में, और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे |” और ठीक वैसा ही हुआ! आरंभिक कलीसिया ने केवल अपने शहर में सुसमाचार प्रचार करने के ऊपर ध्यान केन्द्रित नहीं किया बल्कि सुसमाचार को अन्य स्थानों में ले जाने के ऊपर भी उन्होंने ध्यान दिया | प्रेरितों का काम अध्याय 8 में सामरिया में सुसमाचार को पहुँचाये जाने का वर्णन लिपिबद्ध है | यह सच है कि वे लोग सताव के कारण तितर—बितर हुए थे, परन्तु जो लोग तितर—बितर हुए थे वे उस समय भी सुसमाचार सुनाते हुए फिरे [प्रेरितों का काम 8:4] |

उसके बाद प्रेरितों के काम 10 अध्याय में पतरस कुरनेलियुस को, जो कि एक अन्यजाति था,  सुसमाचार सुनाने के लिए जाता है; इस प्रकार एक अन्यजाति कलीसिया का जन्म हुआ | प्रेरितों का काम 13 अध्याय, विश्वव्यापी सेवा के आधिकारिक शुभारंभ को लिपिबद्ध करता है | प्रेरितों के काम 13:1-3 में लिखा है,1 अन्ताकिया की कलीसिया में कितने भविष्यद्वक्ता और उपदेशक थे; अर्थात बरनबास और शमौन जो नीगर कहलाता है; और लूकियुस कुरेनी, और देश की चौथाई के राजा हेरोदेस का दूध-भाई मनाहेम और शाऊल | 2 जब वे उपवास सहित प्रभु की उपासना कर रहे था, तो पवित्र आत्मा ने कहा; मेरे निमित्त बरनबास और शाऊल को उस काम के लिये अलग करो जिस के लिये मैं ने उन्हें बुलाया है | 3 तब उन्होंने उपवास और प्रार्थना कर के और उन पर हाथ रखकर उन्हें विदा किया | प्रेरितों के काम की पुस्तक रोम तक सुसमाचार पहुँचने की बात बताते हुए समाप्त होती है [प्रेरितों के काम 28] | यह दुर्घटनावश नहीं हुआ | यह हुआ क्योंकि परमेश्वर ने अपने अनुग्रह में होकर उन आरंभिक विश्वासियों के प्रयत्नों के द्वारा कार्य किया जिन्होंने सुसमाचार को पृथ्वी के छोर तक पहुँचाने की आज्ञा को अत्यंत गंभीरता से लिया [प्रेरितों के काम 1:8] |

एक भक्त कलीसिया को सेवकाईयों को सहायता प्रदान करने के लिए कुछ धनराशि अलग रखने के लिए अवश्य ही सुचिंतित होना चाहिए—यदि हो सके तो एक बड़ी राशि ! कलीसिया स्थापना में लगे हुए मिशनरियों [सुसमाचार प्रचारकों], बाईबल अनुवाद कार्यों और मसीही अनाथालयों [जिनके द्वारा छोटे बच्चों तक सुसमाचार का प्रसार हो सकता है] इत्यादियों को सहायता देना सेवकाईयों के प्रति अपने संकल्प को दिखाने के विभिन्न तरीके हैं | एक भक्त कलीसिया को इस बात पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए कि उस कलीसिया से मिशनरी निकलें, जो अन्य स्थानों में सुसमाचार को ले जाने के लिए इच्छुक हों और जिन्हें यह बुलाहट प्राप्त हो | अत्याधिक प्रार्थना के साथ ऐसा प्रचार जो लोगों को यह सिखाये कि परमेश्वर सेवकाई को कितनी उच्च प्राथमिकता देता है | ये सब सुनियोजित कार्यों के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनके द्वारा कलीसियाई नेतृत्व कलीसिया को इस [सेवकाई] सन्दर्भ में परमेश्वर के मन के अनुसार हो लेने के प्रेरित कर सकता है | 

संकल्प # 12. परमेश्वर का भय मानना   

12 संकल्पों में से जिस अंतिम संकल्प को हम आरंभिक कलीसिया में देखते हैं, वह अंतिम तो है परन्तु किसी भी रीति से अल्पतम नहीं है और यह संकल्प है आरंभिक कलीसिया के द्वारा परमेश्वर के प्रति भय का प्रदर्शन | परमेश्वर का भय मानना प्रत्येक बात का आधार है | फिर जब बात स्थानीय कलीसिया की आये तो एक भिन्न दृष्टिकोण क्यों रखा जाये? 

आरंभिक कलीसिया को सर्वाधिक सताने वाले लोगों में से एक अर्थात पौलुस के मनपरिवर्तन के पश्चात हम प्रेरितों के काम 9:31 में यह पढ़ते हैं: “सो सारे यहूदिया, और गलील, और समरिया में कलीसिया को चैन मिला, और उसकी उन्नति होती गई; और वह प्रभु के भय और पवित्र आत्मा की शान्ति में चलती और बढ़ती जाती थी |” यहाँ तक कि प्रेरितों के काम 5 अध्याय में भी जहाँ यह बताया गया है कि हनन्याह और सफीरा के साथ उनके पाप के कारण परमेश्वर ने कैसा व्यवहार किया, हम आयत 11 में पढ़ते हैं कि “सारी कलीसिया पर बड़ा भय छा गया |” 

यदि कलीसिया परमेश्वर का भय न माने, उसके सम्मुख आदर और भय में न काँपे, तो फिर हम जिन लोगों तक पहुँचने का प्रयास कर रहे हैं उनसे कैसे कहेंगे कि परमेश्वर का भय मानना चाहिए और लोगों को उसकी ओर मुड़ना चाहिए? एक ऐसे समय और युग में जब परमेश्वर का भय मानने का विषय एक अलोकप्रिय, असहज और अप्रचलित विषय के रूप में देखा जाता है, तब कलीसिया को अवश्य ही परमेश्वर के भय में चलना चाहिए | वह पवित्र है | उसके क्रोध का भय माना जाना चाहिए | पाप—विशेषकर कलीसिया के अन्दर का पाप परमेश्वर की दृष्टि में अत्यंत घृणापद है | परमेश्वर पाप को गंभीरता से लेता है | उसने इस बारे में 2000 वर्ष पश्चात भी अपना मन नहीं बदला है |

हनन्याह और सफीरा याद है? 1 कुरिन्थियों 11 अध्याय की कुरिन्थ की कलीसिया याद है, जहाँ पाप से मन फिराए बिना प्रभु—भोज में सम्मिलित होने वाले विश्वासियों की मृत्यु हो गई [11:30]? ये घटनायें हमें प्रभु के भय में चलने में सहायता करनी चाहिए | और ऐसा कभी—कभार नहीं होना चाहिए, बल्कि परमेश्वर का भय मानना, कलीसिया का सतत दृष्टिकोण बन जाना चाहिए | और यह दृष्टिकोण इन बातों से प्रगट रूप से दिखाई पड़ेगा कि विश्वासी क्या बोलते हैं, वे क्या देखते हैं, वे किन बातों का पीछा करते हैं और वे अपने हृदय में किन बातों विचार करते हैं—उस हृदय में जिसे उस व्यक्ति विशेष के अतिरिक्त केवल परमेश्वर ही जानता है | नीतिवचन 28:14 में लिखा है, “जो मनुष्य निरन्तर प्रभु का भय मानता रहता है वह धन्य है |” ऐसा होने पाए कि एक भक्त कलीसिया के प्रत्येक सदस्य का सर्वदा यही दृष्टिकोण हो—अगुवों से आरम्भ होते हुए |

तो इस प्रकार हम समाप्त करते हैं | एक भक्त कलीसिया के 12 संकल्प :

(1) उद्धार पाए हुए लोगों की सदस्यता
(2) बाईबल–ज्ञान में बढ़ना
(3) रीति–विधियों का पालन करना
(4) संगति
(5) एक दूसरे से प्रेम करना
(6) प्रार्थना
(7) परमेश्वर की स्तुति करना
(8) सुसमाचार प्रचार
(9) शुद्धता
(10) भक्त नेतृत्व
(11) सेवकाईयाँ और
(12) परमेश्वर का भय मानना |

एक पुराना और सुन्दर गीत है—व्यक्तिगत रूप से मेरा पसंदीदा, जिसका शीर्षक है, “My Jesus I Love Thee.” जब हम कहते हैं कि हम प्रभु यीशु से प्रेम करते हैं तो फिर हमें उस कलीसिया से भी अवश्य ही प्रेम करना चाहिए जिसे उसने अपने बहुमूल्य लहू से खरीदा है | यीशु मसीह ने अपनी कलीसिया बनाने की प्रतिज्ञा की है [मत्ती 16:18] | अधोलोक के फाटक उस पर कभी प्रबल नहीं होंगे | प्रिय पाठक क्या आप बाईबल पर विश्वास करने वाली और बाईबल का प्रचार करने वाली अपनी स्थानीय कलीसिया को भविष्य में अधिक गंभीरता से लेंगे? यदि आप नेतृत्व में हैं तो क्या आप परमेश्वर को पुकारेंगे कि वह नेतृत्व करने में आपकी सहायता करे ताकि जिस कलीसिया में उसने आपको रखा है वहाँ मसीह के द्वारा परमेश्वर महिमा पाये [इफिसियों 3:20-21]? प्रयत्न करना न छोड़ें | वह इस योग्य है कि हम उसके लिए प्रयत्न करते रहें!  

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