रूपांतरित जीवन भाग 11—अपने सतानेवालों को आशीष दो

Posted byHindi Editor August 20, 2024 Comments:0

(English version: “The Transformed Life – Bless Your Persecutors”)

रोमियों 12:14, अग्रलिखित वचनों के द्वारा, समस्त विश्वासियों को उन लोगों के साथ बाईबल सम्मत व्यवहार करने की आज्ञा देता है, जो उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं: अपने सताने वालों को आशीष दो; आशीष दो श्राप न दो |

अपने सताने वालों को आशीष देने की शिक्षा, संसार की शिक्षा-संस्कृति से विपरीत शिक्षा है और यह शिक्षा, हममें स्वाभाविक रूप से जो कार्य करने की प्रेरणा जागृत होती है, उस स्वाभाविक प्रेरणा से भी विपरीत है | तौभी, उपरोक्त बाईबल पद तो हमें ठीक यही कार्य करने के लिए कहता है | परमेश्वर की उद्धारकारी दया लोगों को यीशु मसीह के समान, अपने सताने वालों को आशीष देने के लिए रूपांतरित करती है | यह विषय इतना महत्वपूर्ण है कि पौलुस इसी अध्याय में आगे चलकर रोमियों 12:17-21 में इस विषय पर और अधिक बात करता है |

‘जो तुम्हें सताते हैं, उन्हें आशीष दो’ कहने वाली यह आज्ञा, इस बात की ओर संकेत करती है कि मसीही लोगों को सताव का सामना करना पड़ेगा—कुछ लोगों को कम मात्रा में, कुछ लोगों को अधिक मात्रा में | 2 तीमुथियुस 3:12 में लिखा है, पर जितने मसीह यीशु में भक्ति के साथ जीवन बिताना चाहते हैं, वे सब सताए जायेंगे | यीशु मसीह ने हमें सताव की वास्तविकता के संबंध में इन शब्दों के साथ चेतावनी दी, जो बात मैं ने तुम से कही थी, कि दास अपने स्वामी से बड़ा नहीं होता, उस को याद रखो | यदि उन्होंने मुझे सताया, तो तुम्हें भी सतायेंगे; यदि उन्होंने मेरी बात मानी, तो तुम्हारी भी मानेंगे [यूहन्ना 15:20] | बाईबल मसीहियों के लिए एक सताव-मुक्त जीवन की शिक्षा नहीं देता है!

संसार हमसे घृणा करता है, क्योंकि हम इस संसार से चुनकर अलग किए जाने के कारण, अब संसार के नहीं हैं | साथ ही साथ संसार ने यीशु मसीह से भी घृणा किया और उसे सताया, और जैसा कि रोमियों 8:7 में लिखा है, शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है | अब चूंकि यीशु मसीह शरीर रूप में इस संसार में नहीं है, इसलिए हम जो शारीरिक रूप से उपस्थित हैं, सताये जाते हैं, और ऐसा इसलिए क्योंकि हम यीशु और उसकी शिक्षाओं के साथ खड़े रहते हैं | इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि यीशु मसीह ने कहा, यदि उन्होंने मुझे सताया, तो तुम्हें भी सतायेंगे | हम पर आक्रमण करने के द्वारा वे मसीह पर आक्रमण करते हैं | वे हमें इसलिए नहीं सताते हैं कि हमने कुछ बुरा काम किया है, बल्कि वे हमें इसलिए सताते हैं क्योंकि वे सच्चे परमेश्वर से और उनसे, जो इस सच्चे परमेश्वर के पीछे चलने का दावा करते हैं, घृणा करते हैं—यहाँ तक कि जब हम अच्छे काम करते हैं, तब भी | एक लेखक के अनुसार:

संसार वास्तव में उन लोगों को नापसंद करता है, जिनका जीवन उसे [संसार को] दोषी ठहराता है | सच्ची बात यह है कि अच्छा होना एक खतरनाक बात है | इसका शानदार उदाहरण है, अथेने के एरीस्तिदेस के साथ हुई घटना | उसे ‘ सच्चा एरीस्तिदेस’ कहा जाता था; और तौभी उसे निर्वासन [देश निकाला] की सजा दी गई | जब एक नागरिक से पूछा गया कि उसने उसके निर्वासन के पक्ष में मतदान क्यों किया, तो उसने उत्तर दिया: “उसे हमेशा ‘सच्चा एरीस्तिदेस’ कहकर संबोधित किया जाता था और मैं इस बात को सुनते—सुनते थक गया था |”

अब, यदि एक व्यक्ति के प्रति जो उनसे भिन्न है, संसार की यह शत्रुतापूर्ण प्रतिक्रिया होती है, और वह भी तब जब वह एक मसीही नहीं है, तो हम समझ सकते हैं कि हम मसीहियों के विरुद्ध, जिनकी जीवनशैली उनके सोच और कार्य को दोषी ठहराती हैं, वे कितनी भयानक प्रतिक्रिया दिखायेंगे | अतः, मसीहियों के सताव की अपेक्षा की जानी चाहिए | हम जब मसीही जीवन को सही में जीते हैं,  तो सताने वाले आयेंगे | फिर हम उनके साथ कैसा व्यवहार करें जो इस सताव को लाते हैं? संक्षेप में कहें तो, हमें उन्हें आशीष देने के लिए कहा गया है, श्राप देने के लिए नहीं | 

“सताने वालों को आशीष दो” कहने का क्या अर्थ है?   

एक बाईबल टीकाकार के अनुसार, “‘आशीष दो’ कहने के कई अर्थ हैं | परमेश्वर को आशीष देने  [धन्य कहने], का अर्थ है, उसकी ऐसी स्तुति करना, जिसके वह योग्य है [लूका 1:64,68; 2:24; 24:53; याकूब 3:9 से तुलना करिए] | परमेश्वर द्वारा हमें आशीष देने का अर्थ है कि वह हम पर अपनी आशीषों को उण्डेलता है [मत्ती 25:34; प्रेरितों के काम 3:26; गलातियों 3:9; इफिसियों 1:3 से तुलना करिए] | जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु को आशीष देते हैं, तो हम उन पर परमेश्वर की आशीष का आह्वान करते हैं [लूका 2:34; 1 कुरिन्थियों 10:16; इब्रानियों 11:20 से तुलना करिए] | हमारे द्वारा विचार किए जा रहे बाईबल पाठ में और इसी प्रकार के और अनगिनत भागों में जहाँ इसी आज्ञा की सिफ़ारिश की गई है, यह अंतिम अर्थ लागू होता है |”

अतः, सार रूप में कहें तो, मसीहियों को यह आज्ञा दी गई है कि वे परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वह उनके सतानेवालों पर अपनी कृपा बरसाए—उन लोगों पर जो उन्हें लगातार भयानक दर्द देते हैं | “आशीष दो” का प्रयोग वर्तमान काल में हुआ है, इस प्रकार इसका अर्थ है कि हमें यह कार्य हर समय करना है | और इस पद के दूसरे भाग में पौलुस आशीष देने वाले इस आज्ञा के साथ एक और आज्ञा को जोड़ देता है | यह आज्ञा है: आशीष दो श्राप न दो | हमें इस बात को दो बार बताकर जोर देते हुए कि हमें क्या करना चाहिए [आशीष देने की आज्ञा दो बार दी गई है] और एक बार यह बताने के द्वारा कि हमें क्या नहीं करना चाहिए [श्राप न दो], पौलुस यह कहना चाहता है: हमारे सतानेवालों को हमें आशीष और श्राप का मिश्रण नहीं देना है | यह हर समय आशीष ही होना चाहिए, और कुछ भी नहीं! हमारी प्रार्थनाओं में हमारे शत्रुओं को नाश के लिए सौंपने [श्राप देने] के स्थान पर, हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी है कि वह उनके ऊपर अपनी ईश्वरीय कृपा बरसाये |  

हमें जो चोट पहुँचाते हैं, उनके प्रति हमारा यह दृष्टिकोण हमारे बुनियादी मानवीय स्वभाव की संरचना ही के विरोध में है | हमें जो चोट पहुँचाते हैं, फिर चाहे यह शारीरिक आघात के रूप में हो, या चाहे शब्दों के रूप में, उनके प्रति हमारी स्वभावगत प्रतिक्रिया यह होती है कि हम उनके दंड की कामना करते हैं | यदि हमसे कहा जाता, “ठीक है, मैं चाहता हूँ कि तुम बदला न लेना [इस बाईबल पाठ के अनुसार बात करें तो, श्राप न देना]”, तो हालाँकि यह आज्ञा भी मुश्किल होती, तौभी हम थोड़ी राहत महसूस करते | परन्तु परमेश्वर का वचन कहता है कि न केवल हमें बदला न लेते हुए निष्क्रिय रहना है बल्कि हमें सक्रिय होकर भलाई करने का भी प्रयास करना है—इस बाईबल पाठ की पृष्ठभूमि में बात करें तो, भलाई का अर्थ है, जो हमें चोट पहुँचाते हैं, उन पर परमेश्वर की कृपा अर्थात आशीष के लिए प्रार्थना करना | 

ऐसी आज्ञा देने के मामले में पौलुस अकेला नहीं है | यीशु मसीह ने भी लूका 6:28 में यही आज्ञा दी है, जो तुम्हें स्राप दें, उन को आशीष दो; जो तुम्हारा अपमान करें, उन के लिये प्रार्थना करो | यीशु मसीह ने इस बात को पूर्णतः स्पष्ट कर दिया कि जो लोग हमें सताते हैं, उन पर परमेश्वर की आशीष के लिए प्रार्थना करना, उन लोगों का एक गुण है, जो सचमुच में परमेश्वर के संतान हैं | एक लेखक ने कहा, “यीशु मसीह कहते हैं, परमेश्वर के संतानों को अपने स्वर्गीय पिता का अनुकरण करना है | हमें परमेश्वर का एक दृश्य—श्रव्य सामग्री बनना है |”  

न केवल यीशु मसीह और पौलुस, बल्कि सताव से होकर गुजरते हुए विश्वासियों को लिखते हुए पतरस भी, 1 पतरस 3:9 में, बुराई के बदले, बुराई न करने बल्कि हमारे सताने वालों के ऊपर परमेश्वर की आशीष की कामना करने वाले इसी प्रतिक्रिया की आज्ञा देता है, बुराई के बदले बुराई मत करो; और न गाली के बदले गाली दो; पर इस के विपरीत आशीष ही दो: क्योंकि तुम आशीष के वारिस होने के लिये बुलाए गए हो |  इस प्रकार से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें अवश्य ही अपने शत्रुओं पर परमेश्वर की आशीष के लिए प्रार्थना करनी चाहिए | अब प्रश्न यह उठता है कि हमें किस आशीष के लिए प्रार्थना करनी है ? मैं विश्वास करता हूँ कि यह प्रार्थना मुख्य रूप से उनके उद्धार के लिए होनी चाहिए—कि उनके पाप क्षमा कर दिये जायें | दूसरों के साथ, हम यही सबसे बड़ी भलाई कर सकते हैं | जब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे शत्रुओं को आशीष दे, तो हम उससे कहते हैं कि वह उन्हें पश्चाताप करने और मसीह यीशु के कार्य पर विश्वास करने की योग्यता प्रदान करे जिससे वे अपने सारे पापों से क्षमा पायें और अनंत जीवन को प्राप्त करें | तो यह है, वह प्रार्थना! यह परमेश्वर के साथ शत्रुता में रहने की उनकी स्थिति को समाप्त करेगा, उस शत्रुता को जो उनके द्वारा हमें सताये जाने का मूल कारण है | 

जब क्रूस पर लोग उसे मृत्युदण्ड दे रहे थे और उसी समय उसे ठट्ठों में उड़ा रहे थे, तो अपने शत्रुओं के लिए स्वयं यीशु मसीह द्वारा जो कार्य किए गये, उनमें से एक कार्य क्या था? उसने उनके लिए प्रार्थना किया | और उस प्रार्थना का विषय क्या था? “हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते की क्या कर रहे हैं” [लूका 23: 34] | परमेश्वर से जो महानतम आशीष हम पा सकते हैं, वह है, पापों की क्षमा | इस प्रकार, यीशु मसीह जब अपने शत्रुओं की पाप क्षमा के लिए प्रार्थना कर रहे थे, तो वे वास्तव में परमेश्वर से माँग रहे थे कि वह उन्हें उस सर्वोत्तम आशीष को प्रदान करे जिससे बड़ी कोई आशीष वे परमेश्वर से कभी पा ही नहीं सकते—उनके पापों से क्षमा की आशीष, जो उन्हें उनके द्वारा पश्चाताप करने और उसके पास आने से मिलती है | उन्हें श्राप देने के स्थान पर वह उनकी कुशलता के लिए प्रार्थना कर रहा था | निश्चित रूप से, सूबेदार का उद्धार [जिसने कहा था, सचमुच, यह परमेश्वर का पुत्र था”], यीशु मसीह की प्रार्थना का ही परिणाम था!

अपने सताने वालों के हाथों मारे जाने वाले प्रथम मसीही स्तिफ़नुस ने भी यही किया | प्रेरितों के काम 7:59-60 में लिखा है,59 और वे स्तिुफनुस को पत्थरवाह करते रहे, और वह यह कहकर प्रार्थना करता रहा; कि हे प्रभु यीशु, मेरी आत्मा को ग्रहण कर | 60 फिर घुटने टेककर ऊँचे शब्द से पुकारा, हे प्रभु, यह पाप उन पर मत लगा, और यह कहकर सो गया | स्तिफ़नुस की हत्या के लिए उत्तरदायी लोगों में से एक व्यक्ति था शाऊल, जिसे पौलुस के नाम से भी जाना जाता है—ठीक वही व्यक्ति जिसने पवित्र आत्मा की प्रेरणा से इस रोमियों की पत्री को लिखा | यह कौन जानता है कि पौलुस के उद्धार में स्तिफ़नुस की प्रार्थना ने कितना प्रभाव डाला? 

इसी पौलुस ने अपने सताने वालों के लिए प्रार्थना करने की इस आज्ञा का जीवंत प्रदर्शन अपने स्वयं के जीवन में किया | 2 कुरिन्थियों 11:24 में, उसने लिखा, “पाँच बार मैंने यहूदियों के हाथों उनतालीस—उनतालीस कोड़े खाये |” कुल मिलाकर 195 कोड़े! परन्तु, रोमियों 10:1 में वह लिखता है, “मेरे मन की अभिलाषा और उन के लिये परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है, कि वे उद्धार पायें |” श्राप देने के स्थान पर, उसने उन लोगों की कुशलता के लिए प्रार्थना किया, कुशलता जो उद्धार के माध्यम से आती है | उसने यहाँ रोमियों 12:14 में सताने वालों को आशीष देने का जो प्रचार किया है, उस प्रचार का उसने अभ्यास किया था ! 

हमारे साथ भी ठीक यही होना चाहिए | हमें आज्ञा मिली है कि जो हमें सताते हैं हम उन्हें आशीष दें | अवश्य है कि हम अपने सताने वालों को उनके उद्धार के लिए परमेश्वर के पास ले जायें | हमारी जीभ, क्रोध में होकर किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए | बल्कि इसे तो उस परमेश्वर से आशीष की प्रार्थना करनी चाहिए, जो उन पर कृपा बरसाने के लिए एकमात्र सक्षम व्यक्ति है |  यह आवश्यक है कि हम अपने घुटनों पर आयें और अपने हृदय की सच्चाई से उनके लिए निवेदन करें जो हमें चोट पहुँचाते हैं | जरूरी है कि हम परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वह उन्हें एक नया हृदय दे और हमें उस प्रतिशोध लेने वाली आत्मा को भी अलविदा कहने के लिए अवश्य ही इच्छुक रहना होगा, जो हमारे हृदय में घात लगाए बैठे रहती है | कई बार हमें चोट पहुँचाने वाले मसीही भी हो सकते हैं, ऐसे समय में भी, हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि  परमेश्वर उनकी सहायता करे कि वे दूसरों को चोट पहुँचाने के अपने पापमय प्रवृत्ति पर जय पा सकें | कोई प्रतिशोध नहीं, फिर वे चाहे विश्वासी हों या अविश्वासी | इतना ही हमें ध्यान रखना है कि उनकी आत्मिक अवस्था को देखते हुए हमें उनके लिए उपयुक्त प्रार्थनायें करनी हैं | 

अपने सताने वालों को आशीष देने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने में हमें समस्या होती है क्योंकि हम चाहते हैं कि हमारे साथ जो बुरा हुआ है, उसका बदला लिया जाये और वह भी तुरंत | हम इस बात से नफ़रत करते हैं कि हमारे सताने वाले हमें चोट पहुँचाने की “कीमत नहीं चुका रहे हैं” और किसी तरह न्याय के दर्द से ‘बच’ जा रहे हैं | हम चाहते हैं कि जिस व्यक्ति ने हमारे साथ बुरा व्यवहार किया है, वह ठीक उसी दर्द का अनुभव करे, जो उसने हमें दिया है | इस प्रकार, हम बुराई के बदले बुराई लौटाने का प्रयास करते हैं | यही हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है | 

परन्तु, पवित्रशास्त्र की प्रतिक्रिया यह है: “ज़रा देखो, तुमने कितने पाप किए हैं | क्या परमेश्वर ने तुमसे पलटा लिया है? पाप क्षमा की जिस आशीष को तुमने चाहा और पाया है, उसी आशीष की कामना तुम्हें अपने शत्रुओं के लिए भी करनी है | सभी प्रकार के न्याय को परमेश्वर के हाथों में छोड़ दो, जैसा कि यीशु मसीह ने किया |” विश्वास, धर्मी न्यायी परमेश्वर पर भरोसा करता है कि जो सही है, वह वही करेगा | इब्राहीम ने उत्पत्ति 18:25 में पूछा “क्या सारे संसार का न्यायी, न्याय न करे ?” यीशु मसीह ने इस बात पर विश्वास किया और इसीलिए उसने सब प्रकार के न्याय को परमेश्वर के हाथों में सौंप दिया [1 पतरस 2:23] | उसी बीच, वह परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा कि वह उसके सताने वालों को क्षमा कर दे [लूका 23:34] |

ऐसा कहा जाता है, “भलाई के बदले, बुराई करना शैतानियत है; भलाई के बदले भलाई करना इंसानियत है; परंतु बुराई के बदले भलाई करना ईश्वरीय गुण है |” अतः, जब हम बुराई के बदले भलाई करते हैं, तो हम:

1. परमेश्वर के संतान होने की अपनी वास्तविकता को दर्शाते हैं |

2. हमारे माध्यम से कार्य करने वाले ईश्वरीय सामर्थ की वास्तविकता को दर्शाते हैं |

3. यह दर्शाते हैं कि परमेश्वर की दया हमें उसी प्रकार से कार्य करने के लिए रूपांतरित कर रही है, जैसा यीशु मसीह करते थे |

क्या आपके जीवन में ऐसे लोग हैं, जिन्होंने आपको चोट पहुँचाया है? क्या आपको  उनकी बुराई के बदले, उनको आशीष देने में मुश्किल हो रही है? क्या बदला लेने का भाव आपके मन पर हावी है? यदि ऐसा है, तो कृपया ऐसे दृष्टिकोण से मन फिरायें | यीशु मसीह की ओर अपनी नज़रों को घुमायें | वह हमारा आदर्श है | उसी के उदाहरण का पीछा करने के लिए हम बुलाये गये हैं [1 पतरस 2:21] |  उसने आपके लिए जो किया है, उसे देखिए | इस बात पर विचार करिए कि बीते समय में उसने आपके कितने पाप क्षमा किए और कैसे अब भी वह आपको क्षमा किए जा रहा है | उसकी दया पर विचार करते समय ही, उससे कहें कि वह आपको इतनी सामर्थ दे कि आप उसी दया को उन तक पहुँचा सके, जिन्होंने आपको चोट पहुँचाया है | 

अपने सताने वालों को प्रार्थना में परमेश्वर के पास ले जाने का गंभीर प्रयास करें | यदि वे अविश्वासी हैं, तो परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वह उनका उद्धार करे | कृपया उस अनंत क्लेश के बारे में सोचिए जिसका सामना उन्हें करना पड़ेगा और तरस खाते हुए, उनकी आत्माओं के लिए विनती करें | यदि वे विश्वासी हैं, तो परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वह उनकी सहायता करे ताकि वे अपनी बुलाहट के अनुसार जीवन बिता सकें | रोमियों 12:14 में दी गई आज्ञा के अनुसार कार्य करिए और परमेश्वर की आशीष का अनुभव करिए |  

सताव सब प्रकार के आकार और बनावट में आता है और सभी उम्र एवं परिस्थिति के लोगों पर हमला करता है | हमारे ऊपर होने वाले आक्रमण और हमारे साथ किए जाने वाले गाली–गलौज के प्रति हमारी प्रतिक्रिया उन लोगों से ढेरों बात करती है, जो मसीहियत को अपनाने के बारे में सोच रहे हैं | 

पड़ोस में रहने वाली मिशेल नामक एक मसीही महिला, बारबरा रॉबिडोक्स के कौतुहल का कारण थी | इस महिला को बारबरा, “दोष लगाने वाली बाईबल प्रचारिका” पड़ोसन, कहती थी | मिशेल में ऐसा जोश और उत्साह था, जो उस गली को भी उमंग से भरा हुआ रखता था | हर वर्ष गर्मी के समय में अवकाश कालीन बाईबल स्कूल के दौरान, वह ढेर सारे बच्चों को अपनी गाड़ी में भरकर लाती थी और उनके साथ कलीसियाई गतिविधियों में लग जाती थी | इससे उन बच्चों के माता–पिता और घर संभालने वाले लोगों को बड़ी राहत मिलती थी, जिनके लिए गर्मी छुट्टी में अपने इन बच्चों को संभालना मुश्किल भरा काम हो सकता था | 

बारबरा बड़ी सूक्षमता से मिशेल पर नजर रखी रहती थी | उसकी गलतियों को वह ढूँढती रहती थी, इस बात का पता लगाने की कोशिश करती थी कि मिशेल के सारे बर्ताव के पीछे क्या वजह थी | परन्तु उसे, उसके जीवन में गलतियों के स्थान पर दिखाई दिए: तरस, दया, दीनता, कोमलता और धीरज | फिर एक दोपहर के समय ऐसा हुआ कि पड़ोस के गुंडों के एक झुण्ड ने मिशेल के बेटे पर आक्रमण कर दिया | दरवाजे को धक्का मारते हुए वह तेजी से घुसा, उसके आँसू बह रहे थे, उसके ऊपर मानो पत्थर बरसाये गये थे, और ठट्ठा करने वालों की आवाज सुनाई दे रही थी, “यीशु का दीवाना! अरे, यीशु का दीवाना!” बारबरा ने देखा कि मिशेल अपने बेटे को साँत्वना दे रही थी और उन गुण्डों के उद्धार के लिए प्रार्थना कर रही थी | जब बारबरा ने पूछा कि वह इतना शांत कैसे रह पाई थी, तो मिशेल ने उत्तर दिया, “मैं इतना क्रोधित थी कि मैं बात भी नहीं कर सकती थी, परन्तु रोमियों 12:14 हमसे कहता है, अपने सताने वालों को आशीष दो; आशीष दो श्राप न दो |

उस घटना ने बारबरा को कई दिनों तक परेशान रखा, और कुछ दिनों के बाद उसने मिशेल से उसके विश्वास से जुड़ी बातों के बारे में कुछ प्रश्नों को पूछा और फिर ध्यान से उसके उत्तरों को सुना | बारबरा ने बाद में कहा, “मुझे नहीं मालूम कि उस वर्ष के गर्मी में पड़ोस के किसी बच्चे ने मसीह को ग्रहण किया कि नहीं | परन्तु मैं जानती हूँ कि मैंने उसे पा लिया है और इसका कारण यह है कि मेरे पड़ोस में रहने वाले एक परिवार के जीवन में यह यीशु दिखाई पड़ता है और रोज दिखाई पड़ता है |”

आईए, परमेश्वर की आज्ञाओं के अनुसार लगातार जीवन बिताने के कारण पड़ने वाले प्रभाव को कभी कम करके न आँके—फिर चाहे इस प्रभाव के लिए कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़ी हो | 

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