रूपांतरित जीवन: भाग 1—हमारी देह को मसीह को अर्पित करना

(English version: “The Transformed Life – Offering Our Bodies To Christ”)
यदि आप अपने दिन–प्रतिदिन के जीवन में और अधिक यीशु मसीह के समान बनने की इच्छा रखते हैं, तो मैं आपको रोमियों 12 की यात्रा में आमंत्रित करता हूँ | यह अध्याय बाईबल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक है, क्योंकि यह अध्याय दिखाता है कि मसीह के द्वारा रूपांतरित जीवन कैसा होना चाहिए |
तो, इतना कहकर मैं प्रस्तुत करता हूँ, रोमियों 12:1 पर आधारित श्रृंखला “रूपांतरित जीवन” का लेख #1, जिसका शीर्षक है , “हमारी देह को मसीह को अर्पित करना |”
[टिप्पणी: रूपांतरण की इस यात्रा में जब हम बढ़ते हैं, तो प्रत्येक लेख में उल्लेखित इस अध्याय के पदों को आप कण्ठस्थ करने, उस पर मनन करने और उनके द्वारा प्रार्थना करने के बारे में भी सोच सकते हैं |]
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एक मसीही महिला ने एक सेवक (पासबान) से पूछा , “क्या आप मुझे एक शब्द में बतायेंगे कि ‘समर्पण’ से आपका तात्पर्य क्या है?” एक कोरा कागज को अपने हाथ में उठाकर उस पासबान ने कहा, “यह ऐसा है मानो हम कोरे कागज के निचले हिस्से में अपना हस्ताक्षर करने के पश्चात परमेश्वर को यह अनुमति दे देते हैं कि वह उस कागज पर जो चाहे लिख ले |” वास्तव में, यही तो समर्पण है | उससे बिना कोई प्रश्न पूछे, अपने जीवन को उसके हाथ में दे देना | परमेश्वर और उसके उद्देश्यों के प्रति सदैव सम्पूर्ण समर्पित रहना ! निशर्त समर्पण का एक जीवन!
पुराना नियम समयकाल में, परमेश्वर ने अपने लोगों को नियत समयों में पशुओं का बलिदान करने की आज्ञा दी थी | परन्तु यीशु मसीह के द्वारा क्रूस पर एक बार और सदा के लिए चढ़ाए गए बलिदान के पश्चात परमेश्वर अब नियत समयों में पशुओं का बलिदान नहीं चाहता है, बल्कि वह अपने लोगों से चाहता है कि वे अपने देह और बुद्धि को अर्पित करते रहें–केवल नियत समयों पर नहीं–परन्तु हर समय–जीवित बलिदान के रूप में | यही रोमियों 12:1-2 का मुख्य विषय है |
रोमियों 12:1-2 “1 इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है | 2 और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो |”
हमें सातों दिन, चौबीसों घंटे, जीवित बलिदान बनकर परमेश्वर के प्रति सम्पूर्ण समपर्ण, सम्पूर्ण आत्मसमर्पण की बुलाहट मिली है! और ऐसा 2 कार्य करते हुए किया जाता है:
(1) हमारी देह को परमेश्वर को अर्पित करने के द्वारा [पद 1] |
(2) हमारी बुद्धि को परमेश्वर को अर्पित करने के द्वारा [पद 2] |
हम इस लेख में केवल पहले वाले कार्य को देखेंगे–हमारी देह को परमेश्वर को अर्पित करना–रोमियों 12:1 पर आधारित |
सबसे पहले, ध्यान दीजिए कि पद 1 के पहले भाग में जब पौलुस हमें हमारी देह को एक जीवित बलिदान के रूप में अर्पित करने की बुलाहट देता है, तो वह इस कार्य की प्रेरणा के रूप में किस बात का उल्लेख करता है: “इसलिए हे भाइयों, मैं तुमसे परमेश्वर की दया स्मरण दिलाकर बिनती करता हूँ |” यहाँ परमेश्वर की दया ही प्रेरणा है!
“इसलिए” शब्द हमें अध्याय 11 से जोड़ता है, जहाँ पौलुस ने दिखाया कि हमारी पापमय अवस्था कैसी थी, हम पर कैसे न्याय आनेवाला था और कैसे परमेश्वर ने अपनी “दया” में होकर मसीह के द्वारा उद्धार उपलब्ध कराया | केवल इतना ही नहीं, बल्कि पौलुस साथ ही साथ परमेश्वर की उस दया का भी वर्णन करता है, जिसमें होकर वह गोद लेकर हमें अपने परिवार में सम्मिलित करता है और उस पवित्र आत्मा को देता है, जो हमें भविष्य के महिमीकरण [Glorification] के लिए सुरक्षित करता है | परमेश्वर की दया के परिणामस्वरूप हमें अद्भुत आशीषें मिली हैं!
यहीं पर बाईबल आधारित मसीहियत, अन्य धर्मों से भिन्नता रखती है | इस संसार के धर्म, दया पाने के लिए अपने परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए परिश्रम करते हैं | इसके विपरीत, हम लोग परमेश्वर को प्रसन्न करने का लक्ष्य रखते हैं क्योंकि हम पर दया हुई है | दूसरे शब्दों में कहें तो, वे दया पाने के लिए कार्य करते हैं; हम दया पाकर कार्य करते हैं!
परमेश्वर की दया से, क्रूस पर का बलिदान, हमारे हृदय पर पहले ही कार्य कर चुका है और यह बलिदान हमें ऐसा जीवन जीने को प्रेरित करता है, जिससे वह प्रसन्न होता है | इसी कारण से पौलुस विश्वासियों से विनती करते समय, दया को प्रेरणा के रूप में प्रयुक्त करता है–ध्यान दीजिये कि वह आज्ञा नहीं देता है–परन्तु वह कहता है, “हे भाइयों और बहनों मैं तुमसे बिनती करता हूँ |” “विनती” शब्द से तात्पर्य है, साथ में आकर प्रोत्साहित करना या परामर्श देना | वह विश्वासियों से विनती करता है–पुरुषों [भाइयों] से भी और स्त्रियों [बहनों] से भी, क्योंकि यह सब पर लागू होता है: “अपने शरीर को जीवित, पवित्र और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके अर्पित करना |”
इस विचार के विपरीत कि देह बुरा है और केवल आत्मा ही अच्छा है, बाईबल स्पष्टता से बताती है कि देह का प्रयोग अच्छाई या बुराई दोनों के लिए किया जा सकता है | यदि हम अपनी देह को भलाई के लिए कभी भी प्रयोग नहीं कर सकते, तो फिर हमारी देह को एक जीवित, पवित्र और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाने के लिए दी गई यह बुलाहट, एक निरर्थक आज्ञा ठहरेगी |
अतः, बुलाहट स्पष्ट है | हमारी देह का प्रत्येक अंग : आँखें, कान, जीभ, हाथ, पाँव इत्यादि को परमेश्वर को निरंतर अर्पित करना चाहिए | “जीवित बलिदान” कहने से यही तात्पर्य है | जब तक हम जीवित हैं, हमें अपनी देह को एक पवित्र रीति में उसे अर्पित करना चाहिए | केवल इसी प्रकार के बलिदान से ही परमेश्वर प्रसन्न होता है!
जैसा कि मलाकी 1:8 में दिखाई पड़ता है, पुराना नियम में भी, जब लोग ऐसे पशु को बलिदान के लिए लाते थे, जिनमें खोट हो, तो परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता था, “जब तुम अन्धे पशु को बलि करने के लिये समीप ले आते हो तो क्या यह बुरा नहीं? और जब तुम लंगड़े वा रोगी पशु को ले आते हो, तो क्या यह बुरा नहीं? अपने हाकिम के पास ऐसी भेंट ले आओ; क्या वह तुम से प्रसन्न होगा वा तुम पर अनुग्रह करेगा?” यदि पुराना नियम में ऐसे हालात थे, तो क्या परमेश्वर नई वाचा के अंतर्गत अपने मापदंडो को नीचे ले आयेगा; विशेष तौर से, क्रूस पर अपने आप को देने के लिए उसके पुत्र के आने के पश्चात, क्या वह ऐसा करेगा? कदापि नहीं! इसलिए पौलुस कहता है कि हमें अवश्य ही अपने शरीर को इस तरह से अर्पित करना है, जो “परमेश्वर को भावता” है |
पौलुस कहता है , “यही तुम्हारी सच्ची और उपयुक्त आराधना है |” पौलुस जो कहता है, वह बिल्कुल सीधी बात है: परमेश्वर की दया के प्रकाश में देखें, तो हमारी देह का अर्पण किया जाना उसकी आराधना करते हुए प्रतिक्रिया दिखाने का तर्कपूर्ण या सच्चा और उपयुक्त तरीका है | इस प्रकार, पौलुस के अनुसार, आराधना रविवार की सुबह के कुछ घंटों तक ही सीमित नहीं है | बल्कि हमारे देह के प्रत्येक अंग का, सातों दिन, चौबीसों घंटे अर्पित किया जाना ही आराधना है! तो यह है, सच्ची आराधना!
इसका अर्थ है कि हम चाहे जहाँ भी रहें, हमारी बुलाहट यह है कि हम समर्पम में होकर परमेश्वर को अपनी देह के प्रत्येक अंग को अर्पित करें | उदाहरण के लिए, कार्यस्थल, जहाँ एक व्यक्ति बहुत अधिक समय व्यतीत करता है, आराधनास्थल बन जाता है | ऐसा कैसे ? इफिसियों 6:7-8 कहता है , “7 और उस सेवा को मनुष्यों की नहीं, परन्तु प्रभु की जानकर सुइच्छा से करो | 8 क्योंकि तुम जानते हो, कि जो कोई जैसा अच्छा काम करेगा, चाहे दास हो, चाहे स्वतंत्र; प्रभु से वैसा ही पाएगा |” जब हम इस बात को महसूस करते हैं कि हमारा सच्चा स्वामी यीशु मसीह है, तो हम अपना सर्वोतम देने का भरसक प्रयास करते हैं और जब हमारे मानुषिक स्वामी हमें महत्व नहीं देते हैं, तब भी हम प्रभावित नहीं होते हैं! जब हम मसीह के सामने खड़े होंगे–तब वह हमें उचित प्रतिफल देगा | हमें इस बात को जानना चाहिए कि वह हमेशा देखता रहता है और अपना सर्वोतम उसे देना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए | यह है, कार्यस्थल में हमारी आराधना!
1 कुरिन्थियों 10:31, इन सुपरिचित शब्दों के द्वारा इस बात को भरपूरी से स्पष्ट कर देता है कि हमारा सम्पूर्ण जीवन ही एक आराधना है: “सो तुम चाहे खाओ, चाहे पीओ, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्वर की महीमा के लिये करो |” इसका अर्थ है कि हमारे भौतिक देह के प्रत्येक सदस्य को उस ढंग से कार्य करना चाहिए, जिससे परमेश्वर हर समय प्रसन्न होता है | ऐसा नहीं हो सकता है कि हम अपने देह के अंगों को पापमय सुखविलासों में लगाये रखें और उसी समय, यह मानते रहें कि परमेश्वर हमारी आराधना से प्रसन्न है |
दूसरे शब्दों में कहें तो, हम सच्ची और उचित आराधना का दावा नहीं कर सकते हैं, यदि हम:
- अपनी आँखों का इस्तेमाल ऐसी वस्तुओं को देखने के लिए करते हैं, जो पापमय हैं [चाहे वे दैहिक हों या फिर कोई वस्तु] |
- अपनी जीभ का इस्तेमाल चुगली करने, झूठ बोलने, ताने मारने या एकदम चोट पहुँचाने वाली बात बोलने के लिए करते हैं |
- अपने हाथो का इस्तेमाल
- पापमय तरीकों से धन कमाने के लिए करते हैं!
- दूसरों को शारीरिक चोट पहुँचाने के लिए करते हैं |
- कुछ ऐसा लिखने के लिए करते हैं, जिससे दूसरों को चोट पहुँचती है [ईमेल, सोशल मीडिया इत्यादि]
- यौन पापों में सम्मिलित होने के लिए करते हैं |
- अपने पावों का इस्तेमाल ऐसे जगहों में जाने के लिए करते हैं, जहाँ जाने की मनाही है |
- अपने पेट का इस्तेमाल करते हुए पेटूपन का शिकार हो जाते हैं |
- अपने दिमाग का इस्तेमाल बुरे विचारों के लिए करते हैं |
प्रदूषित देह से निकली आराधना अग्रहणयोग्य आराधना है | क्या आपको मलाकी 1:8 याद है? परमेश्वर को प्रसन्न करने वाली आराधना, ऐसी आराधना है, जो पवित्र देह से निकलती है | हमारे देह के प्रत्येक अंग को परमेश्वर का आदर करना चाहिए और दूसरे लोगों को आशीष देना चाहिए | ख़तरा इस बात में है कि हम अक्सर सोचते हैं कि हमारे अधिकांश अंगों को पवित्रता के लिए इस्तेमाल करते हुए, यदि किसी एकाध अंग को यदा–कदा पाप करने के लिए दे दिया जाए तो सब ठीक है | कुछ इस प्रकार की सोच बेहद मूर्खतापूर्ण है कि, “आख़िरकार, यह मेरी जीभ ही तो है, या ये मेरी आँखे ही तो हैं और वो भी बस कुछ मिनटों के लिए |” सम्पूर्ण देह को अर्पित करने की आज्ञा है–हर समय एक जीवित बलिदान के रूप में–बस कुछ अंगों को ही नहीं |
यह सच है कि हर समय अपने आप को सम्पूर्ण: परमेश्वर को अर्पित करने के लिए अवश्य ही एक कीमत चुकाना पड़ता है–“बलिदान”, शब्द में एक कीमत का संकेत मिलता है! इसलिए, आईए स्वयं से कुछ गंभीर प्रश्नों को पूछें: जब परमेश्वर के वचन को मानने की कोई कीमत चुकानी होती है, तब हमारी सामान्य प्रत्रिक्रिया क्या होती है? क्या हम आगे बढ़ते हैं या पीछे हट जाते हैं? और यदि हम पीछे हट जाते हैं, तो फिर हमें इन बातों पर विचार करने की आवश्यकता है: [अ] हमारे पापों के लिए यीशु मसीह ने जो कीमत चुकाई है, उसके प्रकाश में देखें तो, जो कीमत हमें चुकानी पड़ सकती है, उसके कारण हमारा स्वयं को उसके प्रति संपूर्णतः अर्पित कर देने से पीछे हटने का कार्य क्या सही जान पड़ता है? [ब] क्या उसका बलिदानिक कार्य हमें प्रेरणा नहीं देना चाहिए कि हम उसके लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दें?
आईए, 2 कुरिन्थियों 5:15 के इन शब्दों पर निरंतर ध्यान करते रहें, “और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीयें परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा |” उन लोगों के रूप में, जिन्हें मसीह के लहू ने ख़रीदा है, हमारे लिए यही उपयुक्त है कि हम उसके लिए जीयें, जिसने क्रूस पर अपना सर्वस्व देकर हमें ख़रीदा है | हम उसके हैं, अपने नहीं | हमने उसकी दया का स्वाद चख लिया है और उसकी दया प्रतिदिन हमें जीवित, पवित्र और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए | जब हम परीक्षाओं पर विजय पाने में अशक्त महसूस करें, तो उसकी दया [करुणा] पर ध्यान केंद्रित करें; दया [करुणा] जो क्रूस से बहती है | वह दया हमारी सहायता करेगी कि हम परीक्षा को ‘ना’ कहें और अपने देह और मन को अर्पित करते हुए, एक जीवित बलिदान बनने की उसकी बुलाहट को “हाँ” कहें |
कुछ भी ना रख छोड़ते हुए, अपना “सब” कुछ दे देने कि आवश्यकता को समझाने के लिए एक पासबान ने एक असाधारण उदाहरण दिया | उसने कहा,
“मान लीजिए आपके पास एक हजार एकड़ खेत है और कोई आप से आपका खेत खरीदना चाहता है | आप अपनी सारी भूमि बेचने को तैयार हो जाते हैं, बस उस एक एकड़ भूमि के अलावा जो खेत के ठीक मध्य में हैं, और आप उस एक एकड़ भूखण्ड तक पहुँच मार्ग का अधिकार भी चाहते हैं” | उसने आगे कहा, “क्या आप जानते हैं कि कानून आपको अनुमति देगा कि आप उस एक हजार एकड़ खेत के मध्य में उस अकेले भूखण्ड तक पहुँच सको? आप उस छोटे से भूखण्ड तक पहुँचने के लिए, उस सम्पूर्ण खेत के शेष हिस्से से गुजरती हुई एक सड़क बना सकते हैं |
और ऐसा ही उस मसीही के साथ होता है जो परमेश्वर के प्रति एक सौ प्रतिशत से कम समर्पण दिखाता है | पक्का जानिये, कि उस असमर्पित क्षेत्र तक पहूँचने के लिए शैतान उस व्यक्ति के जीवन में एक अंदरूनी मार्ग बना लेगा और जिसके परिणामस्वरूप उसकी गवाही और सेवकाई धूमिल होगी और उसका तथा उसकी सेवकाई का अन्य लोगों पर कुछ अधिक प्रभाव नहीं रहेगा |”
वह फिर आगे कहता गया,
“हे मसीहियों, क्या मसीह ने तुम्हारी देह पर अधिकार पा लिया है? क्या कभी आपने, एक अत्यंत ही दृढ़ इच्छा से, अपनी देह को उसे अर्पित किया है, ताकि इस पर उसका नियंत्रण हो, उसके लिए यह इस्तेमाल हो, और इससे उसकी महिमा हो? यदि नहीं, तो यह कार्य आप अभी क्यों नहीं करते हैं? बस इतना कहिये, ‘हे प्रभु, मैंने अपना हृदय पहले ही आपको दे दिया है, अब मेरी देह को ग्रहण करिये! इसे स्वच्छ, शुद्ध और अप्रदूषित रखने में मेरी सहायता करिये | आपको जैसा उचित लगता है, उसी तरीके से मुझे अपनी महिमा के लिए इस्तेमाल करिए | मैं आपकी आज्ञापालन के लिए खड़ा हूँ!’”
ऐसा नहीं है कि बहुत देर हो गई है | आप अभी आरम्भ कर सकते हैं | जब हम परमेश्वर के प्रति संपूर्णतः समर्पित होते हैं, तो कोई अनंत खतरे नहीं होते हैं, होते हैं , तो केवल अनंत आशीषें! आइए, उस कोरे कागज़ पर हस्ताक्षर करके, उसे परमेश्वर को सौंप दें | जो उसे सही लगे, उसे वो सब कुछ लिखने दें! तो यह है, सच्चा समर्पण | यह उसके प्रति एक निशर्त समर्पण है, जिसने अपनी दया में होकर, हमारे लिए, इतना कुछ किया है!