धन्य – वचन: भाग 3 धन्य हैं वे जो शोक करते हैं

(English version: “The Beatitudes – Blessed Are Those Who Mourn”)
यह धन्य–वचन लेख–श्रृंखला के अंतर्गत तीसरा लेख है | धन्य–वचन खण्ड मत्ती 5:3-12 तक विस्तारित है | इस खण्ड में प्रभु यीशु ऐसे 8 मनोभावों के बारे में बताते हैं, जो उस प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में होना चाहिए जो उसका अनुयायी होने का दावा करता है | इस लेख में हम मत्ती 5:4 में वर्णित दूसरे मनोभाव को देखेंगे, “धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पायेंगे |”
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मेरे ऑफिस जाने के मार्ग में एक शराबघर ने अपना एक विज्ञापन लगवाया है, जिसमें लिखा है, “हर घंटा, खुशियों भरा!” संसार भर के लोग जिस बात के पीछे भाग रहे हैं, उसके मूलतत्व को यह कथन सच्चाई से बयान करती है | बार-बार, हमें यह बताया जाता है कि मजा करना ही ज़िन्दगी है | इसमें मेरे लिए क्या है? क्या ये मुझे खुश करेगा? एक लेखक दुनिया की प्रचलित मानसिकता को इस तरह से बयान करता है और उसका कहना सही है: “अधिकाँश लोग अपनी कब्र पर इस वाक्य के लिखे जाने से संतुष्ट होंगे: उसका जीवन सुखी था |”
परन्तु, मत्ती 5:4 में यीशु मसीह कहते हैं, “धन्य हैं वे जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पायेंगे |” पूरी तरह से संस्कृति–विपरीत शिक्षा! यीशु मसीह के अनुयायी एक अलग ही धुन में चलते हैं | एक टिप्पणीकार ने सही कहा है, “संसार को शोक करने वाले पसंद नहीं; शोक करने वाले गीले कम्बल के समान होते हैं |” फिर भी यीशु मसीह कहते हैं, सिर्फ शोक करने वाले ही परमेश्वर की आशीष को जानते हैं | केवल वे ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुग्रह प्राप्त करते हैं |
आरम्भ में ही, मैं आपको आश्वस्त कर दूँ कि इसका अर्थ बिल्कुल यह नहीं है कि मसीहियों को कभी नहीं हँसना चाहिए या कभी आनन्दित नहीं होना चाहिए | बाईबल के कई पद हमें आनन्दित होने की आज्ञा देते हैं [फिलिप्पियों 4:4 ; 1 थिस्सलुनीकियों 5:16] | सबसे महत्वपूर्ण बात है यह समझना कि हम जिस आनंद का अनुभव करते हैं, वह भी शोक करने के मनोभाव से पृथक नहीं होना चाहिए |
यीशु मसीह यहाँ पर “शोक करना” के लिए जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, वह शब्द यूनानी भाषा में तीव्र दुःख या अन्दर में छिपे दुःख का वर्णन करने वाला सर्वाधिक सशक्त शब्द है | उदाहरण के लिए, यीशु मसीह की मृत्यु पश्चात, यीशु मसीह के चेलों के दुःख को प्रगट करने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया [मरकुस 16:10] | और यीशु मसीह , इस शब्द का प्रयोग करने के द्वारा हमें यह शिक्षा देते हैं कि हम इस शब्द के अर्थ को कमजोर नहीं कर सकते हैं|
और यह वर्तमान काल में भी है, इस प्रकार यह पद कुछ इस प्रकार से बन पड़ता है, “धन्य हैं वे जो निरंतर शोक करते हैं |” तो यह साफ़ है कि यीशु मसीह हमें शोक करने वाली एक जीवन शैली के लिए बुलाते हैं | परन्तु यीशु मसीह यहाँ किस प्रकार के शोक के बारे में बात कर रहे हैं? उस प्रश्न का जवाब देने से पूर्व, आईए देखते हैं कि वे यहाँ किस प्रकार के शोक के बारे में बात नहीं कर रहे हैं |
यह शोक क्या नहीं है |
यह शोक उस दुःख को नहीं बतलाता है, जो दुःख किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर होता है या तब होता है, जब किसी व्यक्ति को वह नहीं मिलता है, जिसकी अभिलाषा उसे थी [2 शमूएल 13:2; 1 राजा 21:4] | न ही यह उस दुःख को बतलाता है, जब दैनिक जीवन की विभिन्न चुनौतियों के कारण जिन्दगी एक संघर्ष बन जाता है | और आख़िरी बात, यह एक मुरझाए चेहरे को लटकाए हुए घूमने की ओर संकेत नहीं करता है |
तो आपने देखा, ऊपर बताये गये शोक का अनुभव, विश्वासी और अविश्वासी दोनों ही करते हैं | परन्तु, धन्य–वचन में यीशु मसीह जिस शोक के बारे में बताते हैं, वह एक ऐसा मनोभाव है जिसका प्रदर्शन केवल विश्वासी–केवल उसके विश्वासयोग्य अनुयायी ही कर सकते हैं |
यह शोक क्या है |
जिस शोक के बारे में यीशु मसीह यहाँ बताते हैं, वह पाप के कारण शोक करना है | प्रथम धन्य वचन को स्मरण कीजिए, “धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं” [मत्ती 5:3] से तात्पर्य भौतिक कंगालपन से नहीं, परन्तु आत्मिक कंगालपन से था | ठीक इसी प्रकार, यहाँ यीशु मसीह जिस शोक की बात कर रहे हैं, वह शोक एक आत्मिक शोक है–ह्रदय की गहराई से पाप के कारण शोक–तीव्र शोक! और एक जीवनशैली के रूप में केवल विश्वासीगण ही इस प्रकार के मनोभाव को प्रदर्शित कर सकते हैं |
तो आपने देखा, पहला धन्य वचन, ‘मन की दीनता’, पाप के प्रति हमारी समझ के बौद्धिक पक्ष को दर्शाती है | और दूसरा धन्य वचन, ‘शोक करना’, पाप के प्रति हमारी समझ के भावनात्मक पक्ष को दर्शाती है | ये दोनों साथ–साथ चलते हैं | जब कोई व्यक्ति अपने पाप को देख पाता है और महसूस करता है कि वह आत्मिक रूप से दिवालिया [अर्थात मन की दीनता] हो चुका है, तो फिर वह पश्चाताप करता है [अर्थात पाप के कारण शोक करना] | गुजरे जमाने के किसी लेखक ने कहा है, “अवश्य है कि पाप सदैव आँसू बहाये |” पाप के कारण शोक करना केवल उद्धार पाने तक नहीं होना चाहिए, परन्तु यह तो निरंतर बने रहना चाहिए, क्योंकि हम निरंतर पाप करते हैं |
याकूब 4:9 भी इस सत्य का समर्थन करता है, “दुखी होओ, और शोक करो, और रोओ: तुम्हारी हँसी शोक में और तुम्हारा आनन्द उदासी में बदल जाये |” रोचक बात यह है कि इस आयत में “शोक” के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया गया है, वह, वही यूनानी शब्द है जिसका प्रयोग यीशु मसीह ने मत्ती 5:4 में किया | और याकूब की पत्री की सन्निकट पृष्ठभूमि भी इस बात को स्पष्ट करती है कि वहाँ शोक करना का अर्थ आत्मिक शोक से है–पाप के कारण शोक करना |
बाईबल, 2 कुरिन्थियों 7:10 में पाप के कारण किए जाने वाले दो प्रकार के शोक या दुःख का वर्णन करती है | एक परमेश्वर- भक्ति का शोक है और दूसरा संसारी: “परमेश्वर-भक्ति का शोक ऐसा पश्चाताप उत्पन्न करता है जिस का परिणाम उद्धार है और फिर उस से पछताना नहीं पड़ता: परन्तु संसारी शोक मृत्यु उत्पन्न करता है |” परमेश्वर–भक्ति का शोक [या दुःख] परमेश्वर–केन्द्रित होता है और यह शोक करने वाले व्यक्ति को पश्चाताप के द्वारा पाप से खींचकर परमेश्वर के पास वापस पहुँचाता है | संसारी शोक स्व–केन्द्रित होता है और यह शोक करने वाले व्यक्ति को परमेश्वर के पास वापस नहीं पहुँचाता |
पतरस और यहूदा के उदाहरण, दोनों प्रकार के शोक के उत्कृष्ट उदाहरण हैं | प्रभु यीशु से विश्वासघात करने के पश्चात दोनों ने शोक किया | पतरस के शोक ने उसे वापस प्रभु यीशु के पास पहुँचाया–परमेश्वर–केन्द्रित शोक | यहूदा के शोक ने उसे वापस प्रभु यीशु के पास नहीं पहुँचाया, क्योंकि वह स्व–केन्द्रित और संसारी शोक था! इस धन्य–वचन में प्रभु यीशु परमेश्वर–केन्द्रित शोक की बुलाहट देते हैं–एक ऐसे शोक की बुलाहट जो शान्ति पाने के लिए पश्चाताप के द्वारा हमें परमेश्वर के पास और प्रभु यीशु के पास वापस पहुँचायेगी!
हमारे शोक का उथलापन |
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई लोगों का शोक, जो स्वयं को मसीही बताते हैं, संसारी शोक से मेल खाता है | अक्सर अभिलाषाओं का पूरा न होना, लोकप्रिय न बन पाना, व्यापार जगत में सफलता की सीढियाँ न चढ़ पाना इत्यादि के कारण शोक उत्पन्न होता है | आईए इस बारे में थोड़ा विचार करें |
ऐसा आख़िरी बार कब हुआ था, जब हम अपने घमण्ड के कारण, स्वार्थ के कारण, ऊँचे पद में पहुँचने के अपने होड़ के कारण, दूसरों से प्रशंसा पाने के अपने धूर्त प्रयासों के कारण, दूसरों को ताने मारने के कारण शोकित हुए थे? ऐसा आख़िरी बार कब हुआ था, जब एक पवित्र परमेश्वर को शोकित करने के कारण, उसकी आज्ञाओं के उल्लंघन के कारण हमें तीव्र दर्द हुआ था? ऐसा आख़िरी बार कब हुआ था, जब हमने हमारे पापों के कारण आँसू बहाया था?
एक बेपरवाह जवान ने एक प्रचारक से पूछा, “आप कहते हैं कि जो उद्धार नहीं पाए हैं वे लोग पाप के एक भार को ढो रहे हैं | मुझे तो ऐसा कोई भार महसूस नहीं होता | पाप कितना भारी होता है? क्या यह 5 किलोग्राम भारी होता है? या फिर 40 किलोग्राम भारी?” प्रचारक ने प्रत्युत्तर में उस जवान से यह प्रश्न पूछा, “यदि तुम किसी मृत देह पर 200 किलोग्राम वजन रख दो, तो क्या उसे कोई भार महसूस होगा?” जवान ने उत्तर दिया, “उसे कुछ भी महसूस नहीं होगा क्योंकि वह मरा हुआ है |”
प्रचारक ने यह कहते हुए अपनी बात समाप्त की, “वह आत्मा भी सचमुच में मरा हुआ ही है, जिसे पाप का कोई भार महसूस नहीं होता या जो पाप के भार के प्रति उदासीन है और जो पाप की उपस्थिति के बाद भी बेपरवाह है |”
आप देखेंगे कि वहीं दूसरी ओर विश्वासीगण ऐसे लोग हैं जो आत्मिक रूप से मरे हुओं में नहीं पड़े हैं | वे आत्मा के द्वारा जिलाए गये हैं [इफिसियों 2:4-5] | वे नये सिरे से जन्मे हुए लोग हैं | और नये जन्म का एक स्पष्ट प्रमाण है, पाप के भार को महसूस करना ! जहाँ पाप का भार महसूस नहीं होता, जहाँ कोई शोक नहीं होता , वहाँ यह वैध प्रश्न उठ खड़ा होता है: “क्या सही में नया जन्म हुआ है?”
अक्सर हम अपने आपको यकीन दिला बैठते हैं कि अनुग्रह के द्वारा हमारा उद्धार हो जाने के कारण, हमें हमारे पापों के कारण रोने की आवश्यकता नहीं है | हम अपने पापों का अंगीकार करते हैं, प्रभु यीशु के द्वारा प्रस्तावित क्षमा के लिए दावा प्रस्तुत करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं | हम चाहते हैं कि पाप क्षमा पाने का यह कार्य तुरंत पूरा हो जाए | या, कई बार हम अपने पापों को त्यागना ही नहीं चाहते | हम इसे बस कुछ देर और पकड़े रहना चाहते हैं | इसीलिए, हम उस पाप के कारण शोक करने से दूर रहते हैं | क्योंकि शोक करने का अर्थ है कि हमें उस पाप को छोड़ना ही पड़ेगा! और कई बार जब हम सच में शोक करते हैं तो ऐसा उन पापों के लिए करते हैं, जिन पापों ने हम पर से अपनी पकड़ खो दी है!
परन्तु यीशु मसीह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो उसके अनुयायी हैं वे अपने समस्त पापों के लिए अपने ह्रदय की गहराई से शोक करते हैं | यहाँ तक कि सर्वाधिक नगण्य पाप भी उन्हें चिंतित करते हैं! वे उस पाप से छुटकारे के लिए पुकार उठते हैं | निश्चित रूप से यह हताशा में भरी आशाहीन पुकार नहीं होती है, परन्तु यह तो एक तीव्र पुकार है जिसके लिए उनके अन्दर निवास करने वाला पवित्र आत्मा उन्हें उभारता है–यह पुकार उस पाप विशेष के कार्य से न केवल शोकित होता परन्तु साथ ही साथ यह उस पाप से छुटकारा भी चाहता है |
बाईबल टीकाकार जॉन स्टॉट ने कहा, “कई मसीही ऐसी कल्पना करने वाले जान पड़ते हैं कि विशेष रूप से जब वे पवित्र आत्मा से भरे हुए हैं, तब उन्हें अपने चेहरे पर एक स्थाई मुस्कान रखना ही पड़ेगा और उन्हें लगातार जोशीले और उत्साही बने रहना होगा | कोई व्यक्ति और कितना गैर बाईबल सम्मत बन सकता है?” बाईबल के अनुसार बात करें तो, जॉन स्टॉट सही है, क्योंकि पाप के प्रति ऐसे हल्के–फुल्के दृष्टिकोण को, हम भक्त लोगों के द्वारा दिखाई गई प्रतिक्रियाओं में नहीं देखते हैं |
दाऊद एक ऐसा व्यक्ति था जिसने पाप करने के पश्चात एक भक्त प्रतिक्रिया दिखाया | उसके शब्दों पर ध्यान दीजिए: “क्योंकि मेरे अधर्म के कामों में मेरा सिर डूब गया, और वे भारी बोझ की नाईं मेरे सहने से बाहर हो गए हैं ” [भजनसंहिता 38:4] | “मैं तो अपने अधर्म को प्रगट करूँगा, और अपने पाप के कारण खेदित रहूंगा ” [भजनसंहिता 38:18] | “मैं तो अपने अपराधों को जानता हूँ, और मेरा पाप निरन्तर मेरी दृष्टि में रहता है” [भजनसंहिता 51:3] | संसार कहेगा, “हे दाऊद, यह क्या ही नकारात्मक दृष्टिकोण है | यह तो खुश रहने का तरीका नहीं है!” परन्तु परमेश्वर दाऊद के बारे में कहता है, वह एक भक्त व्यक्ति है–मेरे मन के अनुसार एक पुरुष [प्रेरितों के काम 13:22] | तो, देखा आपने, अपने पाप के कारण शोक करना भक्ति के साथ सामंजस्यता में है |
दूसरों के पापों के कारण शोक करना |
बाईबल विश्वासियों को न केवल उनके स्वयं के पापों के कारण शोक करने के लिए आव्हान देती है बल्कि यह उन्हें दूसरों के पापों के लिए भी शोक करने के लिए बुलाती है | यौन अनैतिकता के पाप को बर्दाश्त करने वाली अहंकारी कुरिन्थ कलीसिया को, पौलुस, दूसरों के पापों के कारण शोक करने में असफल होने के कारण इस ढंग से डाँटता है, “और तुम शोक तो नहीं करते?” [1 कुरिन्थियों 5:1-2] |
आप देखेंगे कि, संसार दूसरों के पापों की या तो निंदा करता है या फिर उन पापों के लिए कोई बहाना बना देता है | परन्तु हमें दूसरों के पापों को देखकर, सबसे पहले और सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप से जो कार्य करना है, वह है उन पापों के लिए दुखी होना | पवित्रशास्त्र में विश्वासियों की यही जीवन पद्धति दिखाई पड़ती है [भजनसंहिता 119:36; यिर्मयाह 13:17; फिलिप्पियों 3:18] |
यहाँ तक कि इस धन्य – वचन को कहने वाले यीशु मसीह ने भी दूसरों के पापों के लिए शोक किया | लूका 19:41 में हम पढ़ते हैं, “जब वह निकट आया तो नगर को देखकर उस पर रोया |” वह उस नगर के लिए रोया जिसके नागरिक कुछ दिन के अन्दर ही उसे मार डालने के बड़े घिनौने पाप को करने वाले थे! इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि बाईबल यीशु मसीह का वर्णन एक दुखी पुरुष [या क्लेश सहने वाले पुरुष] के रूप में करती है [यशायाह 53:3] | दूसरों के पाप के कारण चिंतित रहने के अर्थ में उन्हें दुखी पुरुष कहा गया है | वे दूसरों के पापों के कारण वेदना में भरकर शोक करते थे–अपने पापों के कारण नहीं, क्योंकि उन्होंने “कोई पाप किया ही नहीं” [1 पतरस 2:22] |
इस सच्चाई के प्रकाश में ज़रा सोचें, कि हम यीशु मसीह के अनुयायी, हमारे सह–विश्वासियों सहित, हमारे चारों ओर रहने वाले अन्य लोगों के पापों से बिना प्रभावित हुए कैसे रह सकते हैं? जब हम अपने चारों ओर अनियंत्रित पाप को देखते हैं, तो फिर हम कैसे अपने जीवन को, बस हँसते हुए गुजार सकते हैं?
कई लोगों ने इसी झूठी शिक्षा को बहुमूल्य शिक्षा मान लिया है कि मसीही जीवन तो बस मुस्कुराहटों से भरपूर जीवन है | हाँ, यह सच है कि परमेश्वर “हमारे सुख के लिये सब कुछ बहुतायत से देता है” [1 तीमुथियुस 6:17] | और सुलैमान भी अवश्य ही कहता है कि “मन का आनन्द अच्छी औषधि है” [नीतिवचन 17:22] | परन्तु, क्या अच्छी बातों का आनंद उठाना मात्र ही जिन्दगी है? क्या समस्त प्रकार के दुखों से बचने के लिए, हरसंभव प्रयास करने का नाम ही जिन्दगी है? क्या अपने आपको उस सीमा तक आनंद में डूबा देने का नाम ही जिन्दगी है, जहाँ हर प्रकार का दुःख सुन्न पड़ जाए?
यदि हम स्वयं को ईमानदारी से उत्तर दें, तो क्या हम इस जीवन के सुख–विलासों का आवश्यकता से अधिक उपयोग करने के दोषी नहीं ठहरेंगे? इस प्रकार का जीवन जीना मूर्खतापूर्ण और आत्मिक रूप से खतरनाक है | आईए हम सुलैमान के बुद्धिमानीपूर्ण बात को मानें, जहाँ वह प्रचुर सुख–विलास वाली जीवनशैली को पाने के लिए पागलों के समान दौड़ते रहने के विरुद्ध चेतावनी देता है: “जेवनार के घर जाने से शोक ही के घर जाना उत्तम है; क्योंकि सब मनुष्यों का अन्त यही है, और जो जीवित है, वह मन लगाकर इस पर सोचेगा | हँसी से खेद उत्तम है, क्योंकि मुंह पर के शोक से मन सुधरता है | बुद्धिमानों का मन शोक करने वालों के घर की ओर लगा रहता है, परन्तु मूर्खों का मन आनन्द करने वालों के घर लगा रहता है” [सभोपदेशक 7:2-4] |
सुलैमान कहता है, शोक का पीछा करो | यीशु मसीह कहते हैं, शोक का पीछा करो | ये तो एकदम स्पष्ट वचन हैं, जिन्हें इसलिए रचा गया है, ताकि अपने ह्रदय के चारों ओर हमने जो धोखारूपी जाल बुन रखा है, हमें उससे खींचकर निकाला जाये | हम जिन बातों पर रोते हैं और जिन बातों पर हँसते हैं, उसी से हमारे ह्रदय की सच्ची अवस्था का पता चलता है | अब यदि हम स्वयं को ईमानदारी से उत्तर दें, तो क्या हम दोषी नहीं ठहरेंगे, उन बातों पर हँसने के लिए जिन बातों पर हमें वास्तव में रोना चाहिए, और उन बातों पर रोने के लिए, जिन बातों पर हमें हँसना चाहिए?
यीशु मसीह के वचन स्पष्ट हैं: परमेश्वर केवल उन लोगों को आशीष देते हैं जो अपने पापों और दूसरे लोगों के पापों के कारण निरंतर शोक करते हैं | परमेश्वर केवल ऐसे ही लोगों का अनुमोदन करते हैं |
शान्ति की प्रतिज्ञा |
शोक करने के मनोभाव के साथ जीवन बिताने का प्रतिफल क्या है? शान्ति! मत्ती 5:4 के अंतिम भाग को देखें, “वे शान्ति पायेंगे |” वे और केवल वे ही शान्ति पायेंगे–इस वर्तमान जीवन में भी और समस्त सम्पूर्णता में तब जब यीशु मसीह अपना राज्य स्थापित करने के लिए वापस आयेंगे और जब परमेश्वर हमारे सारे आँसुओं को पोछेगा | यही है यीशु मसीह की प्रतिज्ञा |
“शान्ति पायेंगे”, शब्द एक ऐसे यूनानी शब्द का अनुवाद है जिसका अर्थ एक ऐसे व्यक्ति से है जो शान्ति देने, प्रोत्साहित करने या हिम्मत देने के लिए साथ रहता है | परमेश्वर को “सब प्रकार की शान्ति का परमेश्वर” कहा गया है [2 कुरिन्थियों 1:3] | इसी यूनानी शब्द का प्रयोग यीशु मसीह के लिए भी किया गया है, हालाँकि वहाँ हिन्दी अनुवाद में ‘शान्ति देने वाला’ के स्थान पर ‘सहायक’ [Advocate] शब्द का प्रयोग हुआ है [1 यूहन्ना 2:1] | पवित्र आत्मा को भी शान्ति देने वाला, प्रोत्साहन देने वाला या हिम्मत देने वाला कहा गया है [यूहन्ना 14:16] |
जब हम पाप के कारण शोक करते हैं तो हमारे द्वारा पवित्र शास्त्र पढ़ने के माध्यम से, सन्देश सुनने के माध्यम से या यहाँ तक कि दूसरे विश्वासियों की सहभागिता के माध्यम से भी परमेश्वर पिता और परमेश्वर पुत्र, पवित्र आत्मा के द्वारा हमें शान्ति देते हैं और हमें प्रोत्साहित करते हैं |
दाऊद को इस बात का इतना भरोसा था कि परमेश्वर शोक करने वाले लोगों को शान्ति देगा कि वह यह कहने को प्रेरित हो गया, “यहोवा टूटे मन वालों के समीप रहता है, और पिसे हुओं का उद्धार करता है” [भजनसंहिता 34:18; भजन संहिता 51:17 भी देखिए] | जब हम अपने पापों के कारण शोक करते हैं और सच्चे पश्चाताप में होकर उन पापों को मसीह के पास ले जाते हैं, तो पवित्र आत्मा हमें आश्वासन देता है कि हमारे पाप क्षमा किए गये हैं | 1 यूहन्ना 1:9 में लिखा है, “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है |”
प्रकाशितवाक्य 21:4 में लिखा है, परमेश्वर “उन की आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा; और इस के बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहिली बातें जाती रहीं |” हाँ, यह सच है कि ये बातें भविष्य की हैं और ये बातें उनके साथ होंगी, जो पाप के कारण शोक करने वाली एक जीवन शैली का अनुकरण करते हैं–यहीं इस धरती पर और अभी वर्तमान समय में! इस प्रकार हम देखते हैं कि एक शान्ति है जो इस जीवन में आनंद और खुशी की ओर ले जाती है और उस शान्ति का सम्पूर्ण अनुभव आनेवाले राज्य में सदैव मिलता रहेगा |
परन्तु यदि आप वर्तमान जीवन में हँसते ही रहेंगे और शोक करने के इस सिद्धांत से दूर रहेंगे, तो लूका 6:25 में यीशु मसीह ने ये वचन कहे “हाय, तुम पर; जो अब हँसते हो, क्योंकि शोक करोगे और रोओगे |” सब कुछ उल्टा होने पर है| वर्तमान में पाप के कारण रोओ–सदा की शान्ति पाओ | वर्तमान में पाप के बारे में सोचते हुए हँसते रहो–अनन्तकाल के लिए रोते रहो! मैं विश्वास करता हूँ कि ये शिक्षा देते हुए यीशु मसीह अत्यंत गंभीर थे | उनकी ये बातें केवल हमारी सूचना के लिए नहीं हैं | वे हमारे रूपांतरण के लिए हैं | हमें अवश्य ही लक्ष्य बना लेना चाहिए कि हम इस प्रकार के शोक करने वाले जीवन को जीयेंगे |
तो, हम ऐसा कैसे करेंगे? हम अपने पापों और दूसरों के पापों के कारण शोक करने वाले जीवनशैली का अनुकरण कैसे कर सकते हैं? दो शब्दों का प्रयोग करते हुए मैं 2 सुझाव देना चाहता हूँ और आशा करता हूँ कि इससे सहायता मिलेगी, ये दो शब्द हैं: चिंतन करो और भागो |
1. चिंतन करो |
हमें अपने आत्मिक अवस्था पर चिंतन करने के लिए नियमित समय निकालना ही चाहिए | उस दौरान हमें अपने आप से निम्नलिखित प्रकार के कठिन प्रश्न पूछने चाहिए:
मैं अक्सर पापमय बातें क्यों सोचता हूँ? जब मुझे वह नहीं मिलता जो मैं चाहता हूँ, तो मैं इतने असंतोषजनक ढंग से प्रतिक्रिया क्यों दिखाता हूँ? जब मुझे कोई उकसाता है, तो मैं क्रोधित क्यों हो उठता हूँ? जब अन्य लोग तरक्की करते हैं, तो मुझे जलन क्यों होती है? मैं उन वासनामय विचारों से दूर भागने के स्थान पर, उनमें मगन क्यों हो जता हूँ? मैं अपने आपको धर्मी समझते हुए दूसरों पर दोष क्यों लगाते रहता हूँ? मैं क्यों लगातार अपनी तुलना अन्य लोगों से करते रहता हूँ? परमेश्वर ने मुझे जो दिया है, मैं उसमें संतुष्ट क्यों नहीं रहता हूँ और मैं इतनी शिकायत क्यों करता हूँ? मैं ऐसे स्थानों में क्यों जाता हूँ, जहाँ मुझे नहीं जाना चाहिए; और ऐसी चीजों को क्यों देखता हूँ, जो मुझे नहीं देखना चाहिए? मैं क्यों अपनी जीभ का प्रयोग दूसरों को चोट पहुँचाने के लिए करता हूँ?
हमें अवश्य ही अपने आप को कठघरे में खड़ा करना चाहिए और आत्म–अवलोकन करना चाहिए | इन विषयों से हमें ईमानदारी से निपटना चाहिए | हमें अवश्य ही, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमारे ह्रदय को जाँचे [भजन संहिता 139:23-24] और उन पापों को प्रकाश में लेकर आये जिनसे हम संभवतः अवगत भी नहीं थे |
तो आईए, पवित्र आत्मा हमारे ध्यान में जितने पापों को लाता है, हम उन समस्त पापों पर चिंतन करने के लिए समय निकालें | हमारे पापों का भार एक सच्चे अपराध बोध को उत्पन्न करेगा | तब हम अपने पापों पर शोक करना आरम्भ करेंगे–उन्हीं पापों पर जिनके लिए यीशु पर थूका गया, जिनके कारण कोड़ों ने उसकी पीठ छलनी कर दी, जिनके कारण उनके हाथों और पैरों में कीलें ठोकी गईं और जिनके कारण उसके माथे पर काँटे धंसा दिए गये | तब हम समझ पायेंगे कि सच्चाई में होकर ऐसा पुकारना क्या होता है, “मैं कितना भयानक पापी हूँ! बात केवल इतनी सी ही नहीं है कि मैं पाप करता हूँ, बल्कि इससे कहीं बड़ी बात यह है कि मैं पाप के प्रति वैसी प्रतिक्रिया भी नहीं दिखाता हूँ, जैसा मुझे दिखाना चाहिए | मेरा पश्चाताप अत्यंत उथला है |”
और जब हम इस विचार पर आ खड़े हों तब आता है सुझाव # 2.
2.भागो
चिंतन करने का उद्देश्य है, मसीह के पास शान्ति पाने के लिए भागना | स्वागत करने के लिए उत्सुक उसकी बाँहों में समा जाना–ऐसी बाहें जो कभी भी एक शोक करने वाले और पश्चाताप करने वाले पापी का तिरस्कार नहीं करेंगे | हमें अपने दुर्दशारूपी कीचड़ में लोटते रहने की आवश्यकता नहीं है | हम उससे कह सकते हैं कि हमने पाप किया है और उससे विनती कर सकते हैं कि वह हमें शुद्ध कर दे | और दयालु प्रभु यीशु बिना किसी झिझक के न केवल हमारे पापों को क्षमा करेंगे बल्कि साथ ही साथ हमारे परेशान मनों को शान्ति और आराम देंगे |
किसी महाविद्यालय में एक नया छात्र अपने गंदे कपड़ों को, अपने एक मोटे सूती कमीज में बाँधे हुए छात्रावास के कपड़ा धोने वाले कक्ष में प्रवेश करता है | परन्तु वह अपने गंदे कपड़ों से इतना लज्जित महसूस कर रहा था कि उसने गठरी खोली ही नहीं | उसने अपने गंदे कपड़ों को गठरी सहित ही वाशिंग मशीन में डाल दिया | जब मशीन बंद हुआ तो उसने उस गठरी को कपड़े सुखाने वाले खण्ड में डाल दिया और आख़िरकर अंत में वह उस अनखुले गठरी को अपने कमरे में ले गया | उसने पाया, कि उसके कपड़े भीगे जरूर थे और फिर सूख भी गये परन्तु वे साफ़ नहीं हुए थे |
परमेश्वर कहते हैं, “कि अपने पापों को किसी सुरक्षित छोटी गठरी में मत रखो | मैं तुम्हारे जीवन में पूर्ण सफाई करना चाहता हूँ–तुम्हारे जीवन की सब गन्दगी की सफ़ाई |”
इस बात को कभी न भूलें, “[परमेश्वर का] पुत्र, यीशु का लहू, हमें सब पापों से शुद्ध करता है ” [1 यूहन्ना 1:7] | इसलिए, चिंतन करो और भागो | मेरा सुझाव है कि यदि हम अपने दैनिक जीवन में इस धन्य–वचन का पालन करना चाहते हैं, तो हमें इन दो बातों का अभ्यास प्रतिदिन करना चाहिए |
हताशा में गिरने से बचने के लिए, आईए इस बात को स्मरण रखें कि हमारे बदले यीशु मसीह ने इस धन्य–वचन का सिद्धता में पालन किया है | इसलिए, इस सोच के जाल में न फँसे कि हमें परमेश्वर से स्वीकार्यता पाने या उसके सम्मुख स्वीकार्य बने रहने के लिए शोक करने के इस मनोभाव का प्रदर्शन सिद्धता में करना होगा | बल्कि, जब हम इस दौड़ में दौड़ते हैं तो उसे अपना आदर्श मानें–और पवित्र आत्मा हमारे अन्दर परिवर्तन का कार्य करता है ताकि हम और अधिक यीशु के समान बन जायें [2 कुरिन्थियों 3:18] |
बीता समय, बीत गया | आज एक नया दिन है | हम इस महान सच्चाई पर विश्वास करने और उस पर कार्य करने के द्वारा पुनः एक शुरुआत कर सकते हैं: सच में धन्य हैं वे जो अपने पापों के कारण और दूसरों के पापों के कारण शोक करते हैं–क्योंकि वे और केवल वे ही शान्ति पायेंगे!