रूपांतरित जीवन भाग 16—हमें चोट पहुँचाने वालों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए

(English version: “The Transformed Life – How To Respond To Those Who Hurt Us”)
रोमियों की पत्री का 12वाँ अध्याय इन शब्दों के साथ समाप्त होता है: “17 बुराई के बदले किसी से बुराई न करो; जो बातें सब लोगों के निकट भली हैं, उन की चिन्ता किया करो | 18 जहाँ तक हो सके, तुम अपने भरसक सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप रखो | 19 हे प्रियो अपना पलटा न लेना; परन्तु क्रोध को अवसर दो, क्योंकि लिखा है, पलटा लेना मेरा काम है, प्रभु कहता है मैं ही बदला दूँगा | 20 परन्तु यदि तेरा बैरी भूखा हो तो उसे खाना खिला; यदि प्यासा हो, तो उसे पानी पिला; क्योंकि ऐसा करने से तू उसके सिर पर आग के अंगारों का ढेर लगायेगा | 21 बुराई से न हारो परन्तु भलाई से बुराई का जीत लो |”
रोमियों 12वाँ अध्याय का क्या ही उपयुक्त समापन, उस अध्याय का जिसका केन्द्रीय विषय है, “विश्वासियों को एक बुलाहट कि वे स्वयं को एक ऐसी जीवनशैली के लिए समर्पित कर दें जो पवित्र आत्मा के द्वारा जारी रहने वाले रूपान्तरण के कार्य के कारण अधिकाधिक यीशु मसीह के समान दिखाई [रोमियों 12:2] |” ‘जो हमें चोट पहुँचाते हैं उनके प्रति मसीह के समान प्रतिक्रिया दिखाना,’ विषय के अतिरिक्त, इस अध्याय का और क्या बेहतर समापन हो सकता है!
यीशु मसीह में जीवन—पर्यंत यह विशेषता थी कि वे उन्हें चोट पहुँचाने वालों के साथ और कुछ नहीं अपितु केवल भलाई ही किया करते थे और सब प्रकार के न्याय को परमेश्वर के हाथ में छोड़ देते थे | और ठीक यही बात इन आयतों में हमें करने के लिए कहा गया है: जो हमें चोट पहुँचाते हैं उनसे पलटा लेने से दूर रहने और उसी समय उनके साथ भलाई करने के लिए और सब प्रकार के न्याय को परमेश्वर के हाथों में छोड़ देने के लिए |
इन आयतों में हमें बताया गया है कि जब कोई हमें चोट पहुंचाए तो हमें 3 विशेष कार्य करने चाहिए: 1. पलटा मत लो | 2. प्रत्येक के साथ भलाई करो, और 3. सब प्रकार के न्याय को परमेश्वर के हाथ में छोड़ दो | आईए, इनमें से प्रत्येक कार्य को हम विस्तृत रूप से देखें |
और ऐसा हम क्रमानुसार आयत दर आयत जाते हुए नहीं करेंगे बल्कि हम प्रत्येक विषय के अंतर्गत कई आयतों या आयतों के भागों को एक साथ रखते हुए इस अध्ययन को करेंगे | आप देख पायेंगे कि एक ही प्रकार की बातों को दोहराया गया है, और उन्हें एक सुव्यवस्थित रीति से देखना अधिक सहायक सिद्ध होगा |
1. पलटा मत लो |
यह आज्ञा निम्नांकित आयतों में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है, “17 बुराई के बदले किसी से बुराई न करो…हे प्रियो अपना पलटा न लेना…21 बुराई से न हारो परन्तु भलाई से बुराई का जीत लो” [रोमियों 12:17अ, 19अ, 21] | इस सिद्धांत की शिक्षा न केवल पौलुस देता है बल्कि प्रेरित पतरस भी ऐसा ही करता है, “बुराई के बदले बुराई मत करो; और न गाली के बदले गाली दो” [1 पतरस 3:9] |
पलटा न लेने का यह सिद्धांत पुराना नियम में भी पाया जाता है | उदाहरण के रूप में देखें तो लैव्यव्यवस्था 19:18 में हम ऐसा पढ़ते हैं, “पलटा न लेना, और न अपने जाति भाइयों से बैर रखना, परन्तु एक दूसरे से अपने समान प्रेम रखना; मैं यहोवा हूँ |” सुलैमान भी इन शब्दों के साथ हमें प्रतिशोध का भाव दर्शाने के विरुद्ध चेतावनी देता है, “मत कह, कि जैसा उस ने मेरे साथ किया वैसा ही मैं भी उसके साथ करूँगा; और उस को उसके काम के अनुसार पलटा दूँगा” [नीतिवचन 24:19] |
इन समस्त आयतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो हमें चोट पहुँचाते हैं उनसे पलटा लेने से परमेश्वर हमें मना करता है—फिर चाहे वे मसीही हों या गैर—मसीही | कोई प्रतिशोध नहीं अर्थात कोई प्रतिशोध नहीं—घर में नहीं, कलीसिया में नहीं और न ही किसी भी अन्य स्थान में |
हालाँकि हमारा पापमय स्वभाव हमें वापस चोट पहुँचाने के लिए विवश कर सकता है, परन्तु याद रखें परमेश्वर हमें सब प्रकार के प्रतिशोध से मना करता है | जैसे को तैसा वाली मानसिकता नहीं | कोई हिंसा नहीं और पलटा लेने का कोई अहिंसक तरीका भी नहीं, जैसे कि चुप्पी रखना, ताना मारना या गुस्से में बात करना, अनदेखी करना, धड़ाम से दरवाजा बंद करना, अफ़वाह फैलाना, बदनाम करना इत्यादि | इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमें कितनी गंभीर चोट पहुँचाई गई है, आज्ञा तो तब भी स्पष्ट है: रत्ती भर भी प्रतिशोध नहीं!
परन्तु परमेश्वर का वचन केवल इसी आज्ञा के साथ ही रुक नहीं जाता है | न केवल हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हम पलटा न लें अर्थात निष्क्रिय बने रहें बल्कि साथ ही साथ चोट पहुँचाने वालों के साथ भलाई करने के द्वारा हमें अपनी प्रतिक्रिया में सक्रियता दिखाने की आज्ञा भी दी गई है | यह वह दूसरी बात है जिसकी शिक्षा हमें यह भाग देता है |
2. प्रत्येक के साथ भलाई करो |
पौलुस कहता है, “जो बातें सब लोगों के निकट भली हैं, उन की चिन्ता किया करो” [रोमियों 12:17ब] | इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम लोगों की दृष्टि में अच्छा बनने के लिए परमेश्वर की नैतिक आज्ञाओं का उल्लंघन कर सकते हैं | परन्तु इसका अर्थ यह है कि हमें वह कार्य करने के लिए प्रयत्नशील रहना ही चाहिए जो प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि में आदरणीय है | पौलुस का तर्क यह है कि सामान्यतः बुराई के बदले भलाई करने के कार्य को अविश्वासियों की दृष्टि में भी सम्मान मिलता है |
फिर वह कहता है, “जहाँ तक हो सके, तुम अपने भरसक सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप रखो” [रोमियों 12:18] | जहाँ तक संभव हो विश्वासियों को बाईबल की आज्ञाओं से समझौता किए बिना दूसरों के साथ मेलमिलाप रखने का भरसक प्रयास करना चाहिए | चूंकि हमारे नायक को शान्ति का राजकुमार कहा गया है [यशायाह 9:6] और हमें मेल कराने वाले बनने के लिए कहा गया है [मत्ती 5:9], इसीलिए हमारे लिए केवल यही उपयुक्त बात होगी कि हम जितना संभव हो सके उतना मेलमिलाप के तलाश में रहें |
परन्तु, पौलुस एक यथार्थवादी था | वह जानता था कि ऐसे अवसर भी होंगे जहाँ कुछ लोगों के साथ मेलमिलाप में रहना संभव नहीं होगा | यहाँ तक कि यीशु मसीह भी फरीसियों के साथ मधुर संबंध नहीं रख सके ! इसीलिए पौलुस इस वाक्यांश को जोड़ता है, “जहाँ तक हो सके, तुम अपने भरसक |” फिर वह कहता है, “परन्तु यदि तेरा बैरी भूखा हो तो उसे खाना खिला; यदि प्यासा हो, तो उसे पानी पिला; क्योंकि ऐसा करने से तू उसके सिर पर आग के अंगारों का ढेर लगायेगा” [रोमियों 12:20] | पद 20, नीतिवचन 25:21-22 से लिया गया उद्धरण है | यहाँ जो हमें चोट पहुँचाते हैं उनके साथ भलाई करने की एक स्पष्ट आज्ञा दी गई है | भोजन और पानी, जीवन के लिए आवश्यक प्रायोगिक वस्तुयें हैं | यहाँ विचार यह है कि अपने सताने वालों को वे वस्तुयें दो जिनकी उन्हें आवश्यकता है, न कि वे जिसके वे हक़दार हैं | “तू उसके सिर पर आग के अंगारों का ढेर लगायेगा” वाक्यांश से संभवतः यह तात्पर्य है कि हमारे सताने वालों के प्रति जब हम प्रेम दिखाते हैं तो उस प्रेम में ऐसी सामर्थ होती है जो उन्हें उनके कार्यों के कारण अत्यंत लज्जित होने और विश्वास में होकर परमेश्वर की ओर मुड़ने के लिए प्रेरित करती है |
अंत में, हमें एक बार फिर से कहा गया है कि हम दूसरे लोगों की बुराई को स्वयं पर शासन करने की अनुमति न दें, बल्कि हमारी अच्छाई की उनकी बुराई पर जीत होनी चाहिए, जैसा कि इस आज्ञा में दिखाई पड़ता है, “भलाई से बुराई को जीत लो” [रोमियों 12: 21ब] | दूसरे शब्दों में कहें तो जो हमें चोट पहुँचाते हैं उनके साथ भलाई करने के लिए हमें प्रायोगिक रूप से उपायों की तलाश में रहना चाहिए और उनसे पलटा नहीं लेना चाहिए |
लूका 6:27-28 में यीशु मसीह ने यही बात कही, “27 परन्तु मैं तुम सुनने वालों से कहता हूँ कि अपने शत्रुओं से प्रेम रखो; जो तुम से बैर करें, उन का भला करो | 28 जो तुम्हें स्राप दें, उन को आशीष दो: जो तुम्हारा अपमान करें, उन के लिये प्रार्थना करो |” 1 थिस्सलुनीकियों 5:15 और 1 पतरस 3:9 जैसे अन्य भाग भी इसी विचार पर जोर देते हैं |
पुराना नियम में उत्पत्ति की पुस्तक के युसुफ का ख्याल मन में आ जाता है, आता है कि नहीं? उसने अपने उन भाईयों से पलटा लेने का प्रयास नहीं किया, जिन्होंने उसे गुलाम बनने के लिए बेच दिया था बल्कि कई वर्षों पश्चात जब अकाल आया तो उसने अकाल के दौरान उनके साथ भलाई करने के लिए सक्रिय प्रयास किया | और यही कार्य करने की आज्ञा हमें भी दी गई है | पलटा लेने के अपने प्रवृत्ति पर जय पायें और जो हमें चोट पहुँचाते हैं उनके साथ भलाई करने के लिए सक्रिय प्रयास करें |
अभी समाप्त नहीं हुआ है | यदि आप सोचते हैं कि ये दोनों आज्ञाओं तो अत्याधिक कठिन हैं तो पौलुस के पास कहने के लिए एक और बात है | और संभवतः वह कार्य सर्वाधिक कठिन है |
3. सब प्रकार के न्याय को परमेश्वर के हाथ में छोड़ दो |
पद 19 में यह कहने के पश्चात कि हमें पलटा नहीं लेना, पौलुस आगे कहता है, “परन्तु क्रोध को अवसर दो, क्योंकि लिखा है, पलटा लेना मेरा काम है, प्रभु कहता है मैं ही बदला दूँगा” [रोमियों 12:19ब] | वह व्यवस्थाविवरण 32:35 को उद्धृत करता है जहाँ मूसा इस्राएलियों को इस सच्चाई में विश्राम पाने और आनंद करने के लिए कहता है कि परमेश्वर अपने समय में उन लोगों का न्याय करेगा जो उसके लोगों को सताते हैं | नीतिवचन 20:22 में सुलैमान ने भी यही बात कही है, “मत कह, कि मैं बुराई का पलटा लूँगा; वरन यहोवा की बाट जोहता रह, वह तुझ को छुड़ाएगा!”
इसका अर्थ यह है कि हमें न्याय को अपने हाथों में नहीं लेना है | हमें सम्पूर्ण मन से परमेश्वर पर भरोसा रखना है कि वह अपने समय और अपने तरीके से न्याय करेगा | न्याय करने का कार्य केवल परमेश्वर के हाथ में है, और जो उसके हाथ में है, हम उसे अपने हाथ में लेने की जुर्रत न करें | हम जब अपनी अधीरता में, अपने चोट पहुँचाने वालों को दंड देते हैं तो वास्तव में हम यह कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं आप पर यह भरोसा रखने के लिए आश्वस्त नहीं हूँ कि आप सही न्याय करेंगे |” ऐसे व्यवहार से परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता है | यह उस परमेश्वर पर अविश्वास करने का एक लक्षण है जिसने कहा है कि वह पलटा लेगा | सच्चा विश्वास ईश्वर के वचनों को मानता है और उन लोगों से निपटने के लिए उनकी प्रतीक्षा करता है जो हमें ठेस पहुँचाते हैं।
इसी बीच, यदि जो हमें चोट पहुँचाता है वह मन फिरा ले, तो अवश्य ही हमें उस चोट पहुँचाने वाले को तुरंत ही क्षमा करना चाहिए | हमारे प्रभु ने लूका 17:3ब-4 में इस बात को स्पष्ट किया है, “यदि तेरा भाई अपराध करे तो उसे समझा, और यदि पछताए तो उसे क्षमा कर | यदि दिन भर में वह सात बार तेरा अपराध करे और सातों बार तेरे पास फिर आकर कहे, कि मैं पछताता हूं, तो उसे क्षमा कर |” इन आयतों के अनुसार जो हमारे विरोध में अपराध करते हैं उन्हें हमें उनके अपराध को बताना है और यदि वे सही में पश्चाताप करते हैं तो हमें उन्हें क्षमा करना है | परमेश्वर का वचन बिल्कुल स्पष्ट है |
इसके साथ ही साथ हमें पूर्ण मेलमिलाप के प्रयास में भी रहना है | अक्सर हम क्षमा करने के पश्चात दूरी बना लेने के मामले में दोषी ठहरते हैं | इससे क्षमा करने का उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है; क्षमा करने का उद्देश्य है, मेलमिलाप | जब परमेश्वर क्षमा करता है तो वह सदैव स्वयं के साथ हमारा मेलमिलाप करता है [कुलुस्सियों 1:22; 2 कुरिन्थियों 5:17-19] | और हमें भी यही कार्य करना है, सामने वाले व्यक्ति के अनिच्छुक रहने पर भी हमें यह कार्य करना है!
क्षमा चाहने वाले व्यक्ति को एक सलाह: यदि हमने किसी को चोट पहुँचाई है तो हमें केवल यह कहते हुए क्षमा नहीं माँग लेनी है, “मैंने जो किया उसके लिए मुझे क्षमा करिए,” बल्कि साथ ही साथ जिसे हमने चोट पहुँचाई है उसके साथ हमें मेलमिलाप के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए | कई बार हम अपने आपको सांत्वना देने के लिए क्षमा माँग लेते हैं और फिर दूरी बनाकर रखते हैं! यह एक गलत दृष्टिकोण है |
याद रखें, क्षमा पाने और करने का अंतिम लक्ष्य है, मेलमिलाप | सामने वाले व्यक्ति का मेलमिलाप का इच्छुक होना या न होना हमारे हाथ में नहीं है | लेकिन पूर्ण समाधान पाने के लिए हमें वह सब करना चाहिए जो हम कर सकते हैं—चाहे हम माफ़ी मांग रहे हों या हम पश्चाताप करने वालों को माफ़ी दे रहे हों। |
जब हमें चोट पहुँचाने वाला व्यक्ति पश्चाताप न करे तो हमारी प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए?
यदि हमें चोट पहुँचाने वाला व्यक्ति पश्चाताप नहीं करता है तो क्या करें? यदि उन्हें नहीं लगता है कि उनके कार्य गलत हैं तो क्या करें? क्या ऐसी अवस्था में भी हमें उन्हें क्षमा करना है? कई लोगों को लगता है कि हमें ऐसा ही करना चाहिए | आख़िरकर, क्या हमसे यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि हम सबको क्षमा करें? क्या स्वयं यीशु मसीह ने भी जब वे क्रूस पर लटके हुए थे तब अपने शत्रुओं को क्षमा नहीं किया? आईए इन प्रश्नों को हम निकटता से देखें |
सर्वप्रथम मैं आपको स्मरण दिला दूँ कि चोट पहुँचाने वाला व्यक्ति का पश्चाताप करना या न करना एक अलग मामला है, परन्तु जहाँ तक हमारी बात है हमें कभी भी प्रतिशोध के प्रयास में नहीं रहना है बल्कि भलाई करने के प्रयत्न में लगे रहना है |
व्यवस्थाविवरण को उद्धृत करते हुए जब पौलुस पलटा लेने के कार्य को परमेश्वर के हाथ में छोड़ने के लिए कहता है तो वास्तव में वह यह बताना चाह रहा है कि जो पश्चाताप नहीं करते हैं वे अवश्य ही परमेश्वर के न्याय का सामना करेंगे और यदि वे अंत तक पश्चाताप न करें तो इस न्याय में नर्क भी सम्मिलित हो सकता है | मसीह के समान होने और परमेश्वर का अनुकरण करने के लिए हमें उसी तरह क्षमा करना होगा जिस तरह से परमेश्वर क्षमा करता है | सही है कि नहीं ? इसीलिए हमें थोड़ा रुकना चाहिए और इस प्रश्न को पूछना चाहिए:
क्या परमेश्वर सबको क्षमा करता है या परमेश्वर केवल उनको क्षमा करता है जो पश्चाताप करते हैं?
यदि हम कहें कि वह सबको नि:शर्त क्षमा करता है तो फिर सब लोग स्वर्ग जा रहे हैं | यह तो सर्वउद्धारवाद नामक झूठी शिक्षा है जो बताती है कि अंततः सबका उद्धार हो जायेगा | बाईबल ऐसा नहीं सिखाती है |
स्वयं यीशु मसीह ने लूका 13:3 और लूका 13:5 में दो बार कहा कि यदि हम मन न फिरायें [पश्चाताप न करें] तो हम नाश हो जायेंगे | पश्चाताप नहीं, तो क्षमा नहीं | सच कहें तो सम्पूर्ण पुराना नियम और नया नियम पाप से मन फिराने की ही बुलाहट देता है | मन न फिराने वाले लोग स्वर्ग के अधिकारी नहीं होंगे | निष्कर्ष यह है कि परमेश्वर केवल उन्हीं को क्षमा करता है जो मन फिराते हैं और विश्वास में होकर उसके पुत्र के पास आते हैं |
क्रूस पर भी जब यीशु ने मन फिराने वाले डाकू को क्षमा किया, तो यही काम वे शीघ्रता से अन्य लोगों के लिए भी कर सकते थे | स्मरण रखें कि यीशु को धरती पर पाप क्षमा करने का अधिकार था [मत्ती 9:6] और उन्होंने कई लोगों के पाप क्षमा किए | परन्तु क्रूस पर उनके द्वारा कहे गये शब्द “हे पिता, इन्हें क्षमा कर” [लूका 23:34], उनके द्वारा सबको क्षमा करने के कार्य को नहीं दिखाते हैं | यह तो केवल एक प्रार्थना थी जिसमें यीशु मसीह परमेश्वर से उन लोगों को क्षमा करने का आग्रह कर रहे थे; इसका अर्थ यह है कि यीशु मसीह चाहते थे कि वे परमेश्वर की ओर फिरने के लिए, अपने पापों से मन फिराने के लिए, मसीह में विश्वास करने और इस प्रकार क्षमा का अनुभव पाने के लिए उभारे जायें | यीशु मसीह ने उन्हें स्वयं क्षमा नहीं किया क्योंकि उन्होंने मन नहीं फिराया था | यीशु मसीह ने क्रूस पर लटके हुए केवल एक व्यक्ति को क्षमा किया, और वह व्यक्ति था वह डाकू जिसने सचमुच में मन फिराया था [लूका 23:42] | स्तिफ़नुस ने भी ऐसा ही किया, जब उसे पत्थरवाह किया जा रहा था तो उसने प्रार्थना की, “हे प्रभु ये पाप इन पर मत लगा” [प्रेरितों के काम 7:60] | उसने उन्हें क्षमा नहीं किया बल्कि उसने प्रार्थना किया कि यीशु मसीह उन्हें क्षमा करे | यहाँ तक कि उसके सताने वालों में से एक व्यक्ति शाऊल [अर्थात पौलुस] को भी तब तक क्षमा नहीं मिली जब तक कि उसने दमिश्क जाते समय मन न फिरा लिया!
जिस पौलुस ने रोमियों की पत्री लिखी है उसी पौलुस ने अन्य स्थान में इन आज्ञाओं को दिया है:
“एक दूसरे पर कृपाल, और करूणामय हो, और जैसे परमेश्वर ने मसीह में तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी एक दूसरे के अपराध क्षमा करो” [इफिसियों 4:32] |
“यदि किसी को किसी पर दोष देने का कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो; जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो” [कुलुस्सियों 3:13] |
उपरोक्त कथनों में समान बात यह है कि हमें उसी प्रकार से क्षमा करने के लिए कहा गया है जिस प्रकार से प्रभु करता है | और प्रभु पश्चाताप के बगैर क्षमा नहीं करता है!
अतः यदि हमें क्षमा करने के मामले में परमेश्वर का अनुकरण करना है तो हम भी केवल तभी क्षमा कर सकते हैं जब सच्चा पश्चाताप दिखाई पड़े |ल्यूक 17:3बी-4 में हमारे प्रभु के शब्दों को बताकर इस बाइबिल सत्य पर जोर देने के लिए मैंने जो पहले लिखा था उसे दोहराना चाहता हूं, “यदि तेरा भाई अपराध करे तो उसे समझा, और यदि पछताए तो उसे क्षमा कर | यदि दिन भर में वह सात बार तेरा अपराध करे और सातों बार तेरे पास फिर आकर कहे, कि मैं पछताता हूं, तो उसे क्षमा कर |” हमें अवश्य ही सदैव क्षमा करने के लिए इच्छुक और तत्पर रहना चाहिए और इस प्रकार मेलमिलाप के द्वार को खुला हुआ रखना चाहिए | परन्तु यदि कोई पश्चाताप न हुआ हो तो हम क्षमा की घोषणा नहीं कर सकते हैं | यदि हम ऐसा करते हैं तो हम इस मामले में परमेश्वर का अनुकरण करने में और पश्चाताप न करने वाले व्यक्ति को परमेश्वर के न्याय के बारे में चेतावनी देने में और इस सच्चाई को बताने में असफल रह जाते हैं कि पश्चाताप न करने वाले लोग स्वर्ग में प्रवेश नहीं करेंगे |
यह सच है कि हमें कड़वाहट और घृणा को स्वयं को नियंत्रित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए | परन्तु यह भी समान रूप से सच्ची बात है कि जहाँ पश्चाताप नहीं है वहाँ क्षमा देना बाईबल—सम्मत बात नहीं है | हमें भ्रमित होकर बिल्कुल भी यह नहीं समझना है कि पलटा लेने से इंकार करना और हमें चोट पहुँचाने वालों के प्रति भलाई करना और उन लोगों को परमेश्वर के हाथ में सौंप देना तथा उन्हें क्षमा करना एक ही बात है | ये दो भिन्न बातें हैं |
हमें इस भ्रम में भी बिल्कुल ही नहीं रहना है कि यदि हम क्षमा नहीं करते हैं तो फिर कड़वाहट ही दूसरा विकल्प है | या तो मैं क्षमा करता हूँ या कड़वाहट से भर जाता हूँ | यह सच नहीं है | हमें इसे ‘या तो यह या वह,’ वाले ढंग से नहीं देखना है | आज्ञा यह है कि यदि कोई पश्चाताप न हो तो हम क्षमा नहीं कर सकते और उसी समय हमें कड़वाहट भी नहीं रखनी है | और साथ ही हमें सदैव क्षमा करने के लिए इच्छुक रहना है | इसी प्रकार के भाव को हमें स्वयं में उत्पन्न करना है |
यह सच बात है कि जहाँ पश्चाताप नहीं होता है वहाँ अपने मन को कड़वा होने से बचाना एक संघर्ष बन जाता है | परन्तु, पवित्र आत्मा की सहायता से, हमें पवित्रशास्त्र पर मनन करने और प्रार्थना करने के द्वारा अपने मन को कड़वा होने से रोकने के लिए संघर्ष करते रहना चाहिए | यह एक युद्ध है—यहाँ तक कि कई मामलों में जीवन—पर्यंत चलने वाला संघर्ष | तौभी हमें न्याय को अपने हाथ में लेने से इंकार करना है | हमें इसे अपने न्यायी परमेश्वर के हाथ में सौंपना है जो कभी गलत नहीं कर सकता [व्यवस्थाविवरण 32:4]! उसी समय, हमें उन लोगों के प्रति जिन्होंने हमें चोट पहुँचाया है, जितनी भलाई हम कर सकते हैं, उतनी भलाई करते रहना है |
साथ ही मैं इस बात को भी स्पष्ट कर दूँ कि मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि लोग हमारे विरुद्ध जो छोटे—छोटे पाप करते हैं हमें उन प्रत्येक पापों के लिए उनसे पश्चाताप की अपेक्षा करनी चाहिए | हमें छोटी—छोटी बातों को नजरअंदाज करना सीखना चाहिए | यह तो मसीही परिपक्वता का हिस्सा है—दूसरों की कमजोरियों को सहनशीलता से सहना | क्योंकि हममें भी गलती करने की प्रवृत्ति है | जब कोई गंभीर पाप हो या फिर जब यह बार—बार दोहराया जाये तो फिर हमें उस पाप को करने वाले व्यक्ति को प्रेमपूर्वक समझाना चाहिए कि वह पश्चाताप करे |
अतः जब हम समस्त न्याय की बात को परमेश्वर के हाथ में छोड़ देते हैं तो हमें क्षमा करने और कड़वाहट से न भरने के लिए तैयार रहना चाहिए | इस भाग में यह वह तीसरी बात है जो पौलुस हमसे चाहता है कि हम करें |
जब हम समाप्त करने वाले हैं, तो आईए हम उन तीन बातों को स्मरण रखें जो हमें अपने चोट पहुँचाने वालों के प्रति प्रतिक्रिया में करनी हैं:
1. पलटा न लें
2. सबके साथ भलाई करें और
3. सब प्रकार के न्याय को परमेश्वर के हाथ में छोड़ दें |
मसीह-समान बनने का सही अर्थ यही है क्योंकि यीशु मसीह ने स्वयं भी यही किया | “वह गाली सुन कर गाली नहीं देता था, और दुख उठा कर किसी को भी धमकी नहीं देता था, पर अपने आप को सच्चे न्यायी के हाथ में सौपता था” [1 पतरस 2:23] | और जब उनके शत्रु उनके विरोध में कार्य किए जा रहे थे उसी समय यीशु मसीह उनके लिए सर्वश्रेष्ठ भलाई का कार्य कर रहे थे—उनके पापों की कीमत चुका रहे थे ! पवित्र आत्मा परमेश्वर ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जो हमें मसीह के स्वरुप में रूपांतरित कर सकता है; आईए हम उस पवित्र आत्मा पर निर्भर रहते हुए प्रभु का अनुकरण करने के लिए प्रयत्नशील रहें |