रूपांतरित जीवन भाग 3—एक दूसरे की सेवा के लिए हमारे आत्मिक वरदानों का प्रयोग

(English version: “The Transformed Life – Using Our Spiritual Gifts To Serve One Another”)
रोमियों 12:1-2 में, पौलुस परमेश्वर की दया के प्रकाश में मसीहियों द्वारा अपनी देह और मन को एक जीवित बलिदान के रूप में अर्पित करने के मसीही उत्तरदायित्व के बारे में बात करता है | रोमियों 12:3 से लेकर शेष अध्याय में पौलुस लोगों के प्रति मसीहियों के उत्तरदायित्व के बारे में बात करता है—विश्वासियों और अविश्वासियों दोनों के प्रति |
रोमियों 12:3-8 में वह स्थानीय कलीसिया में एक—दूसरे की सेवा के लिए दीनता से हमारे आत्मिक वरदानों को प्रयोग करने की हमारे उत्तरदायित्व की बात करता है | परन्तु , इन पदों को देखने से पहले, आइये 1 कुरिन्थियों 12:7 से आत्मिक वरदानों के बारे में 4 बुनियादी सच्चाईयों को सीखें, “क्योंकि सब के लाभ पहुंचाने के लिये हर एक को आत्मा का प्रकाश दिया जाता है |”
सच्चाई #1 | प्रत्येक मसीही को एक या अधिक आत्मिक वरदान दिए गए है: “हर एक को आत्मा का प्रकाश दिया जाता है |”
सच्चाई #2 | आत्मिक वरदान, उपहार के रूप में “दिए गए” हैं | उन्हें कमाया या माँगा नहीं जा सकता |
सच्चाई # 3 | आत्मिक वरदानों को पवित्र आत्मा देता है: “आत्मा का प्रकाश दिया जाता है |”
सच्चाई #4 | आत्मिक वरदान दूसरे लोगों के लाभ के लिए दिया जाता है: “सब के लाभ के लिए |”
अतः, यदि मुझे इस पद की सच्चाईयों को संक्षेप में बताना पड़े तो यह कुछ इस प्रकार का होगा: आत्मिक वरदान, प्रत्येक मसीही को दूसरों की सेवा के उद्देश्य से पवित्र आत्मा द्वारा दिया गया एक विशेष योग्यता है | और रोमियों 12:3-8 के अनुसार, जब मसीही परमेश्वर प्रदत्त अपने आत्मिक वरदानों के माध्यम से एक दूसरे की सेवा के क्षेत्र में रूपांतरित जीवन को जीने का प्रयास करते हैं, तो उनमें 3 ये स्वभाव अवश्य होने चाहिए |
स्वभाव #1 | दीनता [रोमियों 12:3]
3 क्योंकि मैं उस अनुग्रह के कारण जो मुझ को मिला है, तुम में से हर एक से कहता हूँ, कि जैसा समझना चाहिए, उस से बढ़कर कोई भी अपने आप को न समझे पर जैसा परमेश्वर ने हर एक को परिमाण के अनुसार बाँट दिया है, वैसा ही सुबुद्धि के साथ अपने को समझे |
जब बात आत्मिक वरदानों को प्रयोग करने की आती है तो एक रूपांतरित जीवन में जो बुनियादी स्वभाव होना चाहिए, वह है दीनता—अपने बारे में कोई ऊँची राय रखने की कोई जगह नहीं, “जैसा सोचना चाहिए उससे बढ़कर कोई अपने बारे में न सोचे |” हम सब के सब अत्यावश्यक लोग हैं | एक कहावत है, “परमेश्वर अपने सेवक का अंतिम संस्कार करता है और अपने कार्य में आगे बढ़ता है!” कब्रिस्तान इस बात का प्रमाण है कि परमेश्वर के लोगों के गुजर जाने के बाद भी परमेश्वर की कलीसिया चलती रहती है |
1 कुरिन्थियों 4:7 हमें स्मरण दिलाता है कि हमारे जीवन में जो कुछ भी है, वो सब परमेश्वर के अनुग्रह का परिणाम है, “क्योंकि तुझ में और दूसरे में कौन भेद करता है? और तेरे पास क्या है जो तू ने [दूसरे से] नहीं पाया: और जब कि तूने [दूसरे से] पाया है, तो ऐसा घमण्ड क्यों करता है, कि मानों नही पाया?” यह पद बताता है कि हमारे पास वरदान होने के कारण घमण्ड करने या अपने आप को श्रेष्ठ समझने के लिए कोई स्थान नहीं है | हमारे पास जो कुछ भी है, वह सर्वाधिकारी परमेश्वर द्वारा हमें वरदान देने के लिए चुनाव करने का परिणाम है—दूसरों के लाभ के लिए और अंततः उसकी महिमा के लिए!
पौलुस न केवल लोगों को यह कहता है कि वे अपने आपको जैसा सोचना चाहिए, उससे बढ़कर सोचने से बचें, परन्तु वह साथ ही उन्हें अपने बारे में सही ढंग से सोचने के लिए भी कहता है, “जैसा परमेश्वर ने हर एक को परिमाण के अनुसार बाँट दिया है, वैसा ही सुबुद्धि के साथ अपने को समझे |” हममें से प्रत्येक को परमेश्वर ने जितना विश्वास दिया है, हमें उसी के अनुसार स्वयं को समझना चाहिए |
हालांकि हमें अपने बारे में ऊँची राय नहीं रखनी है, तौभी हमें अपने बारे में एक अस्वस्थ दृष्टिकोण रखने के लिए नहीं कहा गया है, अपने बारे में अस्वस्थ दृष्टिकोण रखना, अक्सर झूठी दीनता का लक्षण है | यह उस व्यक्ति के समान है, जो अपने पासबान के पास गया और यह कहते हुए उसने अपनी झूठी दीनता का प्रदर्शन करना चाहा, “पास्टर, मुझे लगता है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ |” पासबान ने उसके मंसूबे को भाँप लिया और तुरंत जवाब देते हुए कहा, “भाई, आप कुछ भी नहीं है ! विश्वास से इस बात को स्वीकार करिये!”
पौलुस का तर्क यह है कि हमें इस बात को जानते हुए कि हमारे पास जो कुछ भी है, वो सब परमेश्वर की ओर से एक दान है, अपने बारे में एक सही और स्वस्थ दृष्टिकोण रखना चाहिए! प्रत्येक विश्वासी परमेश्वर की एक संतान है और परमेश्वर से उसने कुछ दान प्राप्त किया है | हमारा उत्तरदायित्व है कि हम हमारे आत्मिक वरदानो का प्रयोग दीनता के भाव में होकर करें | जब हम हमारे वरदानों का प्रयोग करने के माध्यम से दूसरे की सेवा करना चाहते हैं, तो यही हमारा प्रथम और बुनियादी स्वभाव होना चाहिए |
स्वभाव # 2 | एकता [रोमियों 12: 4-5]
4 क्योंकि जैसे हमारी एक देह में बहुत से अंग हैं, और सब अंगों का एक ही सा काम नहीं | 5 वैसा ही हम जो बहुत हैं, मसीह में एक देह होकर आपस में एक दूसरे के अंग हैं |
जब हम दूसरों की सेवा करना चाहते हैं तो न केवल विनम्रता बल्कि एकता का दृष्टिकोण भी हमें चिह्नित करना चाहिए | यद्यपि मसीह की देह में अंगो के मध्य अत्याधिक भिन्नता है, तौभी अंतिम रूप से हम सब मसीह के साथ जुड़ने के कारण एक देह हैं, और हममें से प्रत्येक पर एक दूसरे का अधिकार है | जब हम इस सत्य को स्मरण रखते हैं, तो हम एक दूसरे की सेवा करते समय एकता के लिए परिश्रम करेंगे | जिस प्रकार से भौतिक देह के प्रत्येक अंग को दूसरे अंगों की आवश्यकता होती है, वैसे ही हमें भी एक दूसरे की आवश्यकता है |
1 कुरिन्थियों 12:15-26 में पौलुस इस बात को समझाने के लिए भौतिक देह का उदाहरण देता है कि कैसे मसीह की देह में प्रत्येक मसीही को दूसरों की आवश्यकता है और परिणामस्वरूप वह इस प्रतिक्रिया के लिए बुलाहट देता है “ताकि देह में फूट न पड़े, परन्तु अंग एक दूसरे की बराबर चिन्ता करें” [1 कुरिन्थियों 12:25] |
बाईबल आधारित एकता हमारा लक्ष्य होना चाहिए | हम एक हैं—हम एक साथ दुखी होते हैं और एक साथ आनन्द करते हैं—ठीक उसी प्रकार जैसे किसी मानव देह में जब एक अंग को चोट पहुँचती है, तो सम्पूर्ण देह को दर्द का अनुभव होता है और जब एक अंग महिमा पाता है तो सम्पूर्ण देह उस महिमा में भागीदार होती है | देह में एकता का यह विषय इतना महत्वपूर्ण है कि यूहन्ना 17:21 में स्वयं यीशु मसीह ने हमारी एकता के लिए प्रार्थना किया, “जैसा तू हे पिता मुझ में हैं, और मैं तुझ में हूँ, वैसे ही वे भी हम में हों, इसलिए कि जगत प्रतीति करे, कि तू ही ने मुझे भेजा |” इफिसियों 4:3 में पौलुस इन शब्दों के साथ इस बात पर जोर देता है कि हमें एकता के लिए परिश्रम करना चाहिए “और मेल के बन्ध में आत्मा की एकता रखने का यत्न करो |” विश्वासियों के मध्य एकता बनाये रखने के लिए मेहनत करनी पड़ती है!
इसका अर्थ यह है कि हमें दूसरों के वरदानों से ईर्ष्या नहीं होती है या फिर जब वे अपने आत्मिक वरदानों का प्रयोग करके एक पहचान को पाते हैं, तो हम उनसे जलाते नहीं हैं | इसका अर्थ यह है कि हम उन तुच्छ मुद्दों की अनदेखी करते हैं, जो देह में एकता के लिए आसानी से खतरा बन सकते हैं | इसका अर्थ यह है कि हम इस बात को स्मरण रखते हुए एक धीरजवन्तऔर क्षमाशील मनोभाव का प्रदर्शन करते हैं कि हम सब एक देह के अंग हैं और हममें से प्रत्येक को हमारे आत्मिक वरदानों का प्रयोग करते हुए, दूसरों को लाभ पहुँचाने की बुलाहट मिली है |
स्वभाव # 3 | विश्वासयोग्यता [रोमियों 12:6-8]
6 और जब कि उस अनुग्रह के अनुसार जो हमें दिया गया है, हमें भिन्न भिन्न वरदान मिले हैं, तो जिस को भविष्यद्वाणी का दान मिला हो, वह विश्वास के परिमाण के अनुसार भविष्यद्वाणी करे | 7 यदि सेवा करने का दान मिला हो, तो सेवा में लगा रहे, यदि कोई सिखाने वाला हो, तो सिखाने में लगा रहे | 8 जो उपदेशक हो, वह उपदेश देने में लगा रहे; दान देनेवाला उदारता से दे, जो अगुआई करे, वह उत्साह से करे, जो दया करे, वह हर्ष से करे |
उपरोक्त सूची, पवित्र आत्मा द्वारा दिए गये वरदानों की एक सम्पूर्ण सूची नहीं है | 1 कुरिन्थियों 12:28-30, इफिसियों 4:11 और 1 पतरस 4:11, जैसे अन्य भाग और अधिक विवरण देते हैं | यहाँ मूल विचार यह है कि पवित्र आत्मा ने जो भी वरदान या वरदानों को दिया है, उनका प्रयोग प्रत्येक विश्वासी के द्वारा विश्वासयोग्यता से किया जाना चाहिए | अपने वरदानो को गाड़ना नहीं चाहिए या फिर उनका प्रयोग करते समय आलस्य नहीं दिखाना चाहिए | वरदान इसलिए दिए गए हैं ताकि हम उनका प्रयोग दूसरो को लाभ पहुँचाने के लिए कर सकें | साथ ही इन पदों में जो सूची पौलुस देता है, क्या आपने उसमें किसी विशेष बात पर ध्यान दिया है? बाईबल के अन्य भागों के अनुसार, इस सूची में दी गयी लगभग सभी बातों को प्रत्येक मसीही को करना है | प्रत्येक मसीही को दूसरों को बाईबल के बारे में बताना है, दूसरों की सेवा करना है, दूसरों को शिक्षा देना है, दूसरों को प्रोत्साहित करना है, दूसरों को दान देना है और दूसरों पर दया दिखाना है | परन्तु इन विशेष वरदानों को प्राप्त व्यक्तियों को ऐसा और बहुतायत में करना है!
मुद्दा यह है कि जो भी वरदान हमें मिला है, हमें विश्वासयोग्यता से उसका प्रयोग करना है | यदि आप नहीं जानते हैं कि आपके पास क्या वरदान है, तो पता लगाईए कि कहाँ पर क्या आवश्यकता है और बस सेवा करना आरम्भ कर दीजिये | अक्सर आप पायेंगे कि आप उस क्षेत्र के लिए वरदान प्राप्त हैं | इसके अलावा, अपने आसपास के लोगों से भी पूछें | या फिर यह पता लगाईए कि आपका हृदय आपको सेवा करने के लिए किस क्षेत्र की ओर ले जा रहा है और फिर उस सेवा को करिए | परमेश्वर ने देह को एक साथ जोड़कर रखा है, ताकि आत्मिक वरदानों को छिपाने की आवश्यकता न पड़े बल्कि वे सार्वजनिक रूप से बाहर लाये जायें और प्रयोग किये जायें |
तो इस प्रकार—दीनता, एकता और विश्वासयोग्यता—ये तीन स्वभाव हैं जो परमेश्वर प्रदत्त आत्मिक वरदानों के माध्यम से एक दूसरे की सेवा करने के क्षेत्र में अपने रूपांतरित जीवन को जीने का प्रयास करते समय हमारी पहचान बन जाने चाहिए |
समापन—विचार |
तटस्थ जीवन जीना कोई उपाय नहीं है | हम अलग—थलग रहकर अपने आत्मिक वरदानो का प्रयोग नहीं कर सकते हैं | उनका प्रयोग दूसरों के लाभ के लिए किया जाना है | इसीलिए एक स्थानीय कलीसिया में रहना और कलीसिया की सभाओं में अपनी उपस्थिति देना आवश्यक है—इसका अर्थ है, रविवार सुबह आराधना सभा में और उन अन्य अवसरों पर, जब कलीसिया इकट्ठी होती है [बाइबल अध्ययन , प्रार्थना सभा इत्यादि ] | इसमें कलीसिया की सभाओं के अतिरिक्त, अन्य स्थानों पर विश्वासियों से मिलना भी सम्मिलित है | परमेश्वर का लक्ष्य यह है कि हम मसीह—समान बन जायें | और सामुदायिक जीवन के बगैर ऐसा नहीं होता है | हमें उचित रूप से हमारे आत्मिक वरदानों का प्रयोग करते हुए, एक दूसरे की सेवा करने की आज्ञा का अभ्यास करना है |
नीचे इस बात के कुछ कारण दिए गए हैं कि क्यों कई मसीही अपने आत्मिक वरदानों को प्रभावकारी रूप से प्रयोग नहीं कर सकते है |
- घमण्ड | “सब कुछ मेरे तरीके से होना चाहिए | यदि ऐसा नहीं होगा, तो मैं सेवा नहीं करूँगा |” या “यदि मुझे श्रेय नहीं दिया जाता है, तो मैं सेवा नहीं करूंगा |” या फिर असफलता का भय, “यदि मैं असफल हो जाऊँ तो क्या होगा ? मैं दूसरों के सम्मुख कैसा लगूँगा |” यह सोचन के स्थान पर कि ‘परमेश्वर क्या सोचेगा?’, इस बात की अधिक चिंता करना कि, ‘लोग क्या सोचेंगे?’
- आलस्य | सेवा करने में मेहनत लगती है | परमेश्वर की “सेवा” को ‘हाँ’ कहने का अर्थ है , कुछ विशेष क्रियाकलापों को नहीं कहना |दुःख की बात है कि आज कई तथाकथित विश्वासियों में यह नजरिया होता है कि वे ज्यादा से ज्यादा इतना कर सकते हैं कि रविवार को आयें और अपना मुँह दिखायें | जो लोग अधिक वरदान प्राप्त हैं, उन्हें आवश्यक क्रियाकलापों को करने दें | वरदानों के होने का अपने आप में ही यह अर्थ नहीं है कि हम उन्हें प्रयोग ही करेंगे | हमें अवश्य ही अपनी सारी ताकत झोकनी पड़ेगी | आज आलस्य विश्वासियों के मध्य एक एक छूत के पाप के समान प्रतीत होता है |
- हताशा | इसके बेशुमार कारण हैं | “कोई परिणाम दिखाई नहीं पड़ रहा है | लोगों की कम उपस्थिति | मेरे व्यक्तिगत जीवन में कई बातें हो रही हैं | इसलिए, मैं दूसरों के बारे में नहीं सोच सकता |”
- गलत प्राथमिकतायें | सांसारिक क्रियाकलापों में अत्याधिक समय का दिया जाना | लोगों के पास शनिवार के कार्यों के लिए भरपूर ऊर्जा रहती है | परन्तु, रविवार सुबह आते ही इतने थक जाते हैं कि कोई सेवा नहीं होती! या फिर मेरे पास पूरे सप्ताह के दौरान थोड़ा भी खाली समय नहीं रहता है क्योंकि मैं कई अन्य सांसारिक क्रियाकलापों से भयंकर तरीके से बँधा हुआ हूँ | व्यस्त जीवन जीने का अर्थ हमेशा यह नहीं होता है कि वह व्यक्ति आत्मिक रूप से उपजाऊ है | हम किन कार्यों में व्यस्त हैं? प्रत्येक मसीही के द्वारा एक परीक्षण प्रश्न निरंतर पूछा जाना चाहिए और वह प्रश्न है कि, “क्या ये बातें अनन्तकालीन महत्व की हैं ?”
कोई व्यक्ति इस बात के लिए हमेशा बहाना बना सकता और अपने आप को तसल्ली दे सकता है कि वह क्यों अपने आत्मिक वरदानो को प्रयोग में नहीं ला रहा है | परन्तु वास्तविकता यह है: प्रभु हमें बुलाहट देता है कि हम स्वयं का इंकार करें और हर समय उसका अनुकरण करें | जब बात आत्मिक वरदानों को प्रयोग करने की आती है, तो हमेशा एक कीमत चुकानी पड़ती है | परन्तु यह बात उसके सन्तान के रूप में हमारी बुलाहट को पूरी करने से हमें रोकनी नहीं चाहिए | उद्धार पाए हुए लोग दूसरों की सेवा करते हैं! यहाँ मुद्दा कोई आकर्षक वरदान होने का नहीं है | मुद्दा यह है कि परमेश्वर ने हमें जो कुछ भी दिया है, हम उसका उपयोग कैसे करते है!
मत्ती 25:14-30 में तोड़ो के दृष्टांत में यीशु मसीह के शब्दों को स्मरण करिए! प्रत्येक सेवक को अलग—अलग तोड़े दिए गए थे | एक को 5, दूसरे को 2 और तीसरे को केवल 1 “प्रत्येक को उसकी योग्यतानुसार” [पद 15] | जिन्होंने प्राप्त तोड़े को अच्छे इस्तेमाल में लगाया ,उनकी प्रशंसा की गई | जिस व्यक्ति ने प्राप्त तोड़ा का इस्तेमाल नहीं किया था, उसे कठोर डाँट मिली | इस व्यक्ति के लिए यीशु मसीह के द्वारा कहे गए शब्द, अत्यंत ही कठोर थे | “हे दुष्ट और आलसी दास…और इस निकम्मे दास को बाहर के अन्धेरे में डाल दो, जहां रोना और दांत पीसना होगा” [मत्ती 25:26,30], और इससे यह संकेत मिलता है कि यह मनुष्य एक सच्चा मसीही तक नहीं था | अतः एक सच्चा विश्वासी बने रहकर लगातार सेवा में कमी करने वाला जीवन नहीं बिताया जा सकता है |
वहीँ दूसरी तरफ, जब हम अपने आपको दूसरों की सेवा के लिए अर्पित करते हैं तो हम न केवल भविष्य में अपने प्रभु यीशु के होठों से इन शब्दों को सुनेंगे “धन्य हे अच्छे और विश्वासयोग्य दास” [मत्ती 25:21], परन्तु साथ ही अभी वर्तमान में भी हम इस निश्चता को पा सकते हैं कि हमारा उद्धार सच्चा है!
अतः इस भाग में पौलुस हमारे आत्मिक वरदानों को प्रयोग करने संबंधी कई जटिल मुद्दों पर अपनी शिक्षा देता है | इसीलिए हमें अत्यंत सावधानी से चलना होगा | और फिर लोगों की सेवा करने के लिए पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त आत्मिक वरदानों को दीनता के भाव, एकता और विश्वासयोग्यता के साथ प्रयोग में लाने का उपाय क्या है ? “हमें लगातार क्रूस को देखना है |” प्रभु यीशु ने हमारे लिए अपने आप को दे दिया! यह बात हमें स्वयं को दूसरों के लिए दे देने को निरंतर प्रेरित करनी चाहिए |
हमें दया मिली है | होने पाये कि यह दया हमें हमारे आत्मिक वरदानों को दूसरों के लाभ के लिए प्रेम में प्रयोग करने के लिए नए रूप से प्रेरित करे | यही है, रोमियों 12:3-8 में पौलुस का तर्क | पवित्र आत्मा हमारी सहायता करे कि हम इसे अपने अभ्यास में ला सकें |