रूपांतरित जीवन: भाग 2—अपने मन को मसीह को अर्पित करना

(English version: “The Transformed Life – Offering Our Minds To Christ”)
विश्वासियों को रोमियों 12:1 में परमेश्वर की दया प्राप्त करने के कारण अपनी देहों को एक जीवित बलिदान के रूप में अर्पित करने की बुलाहट देने के पश्चात, पौलुस आगे बढ़ते हुए रोमियों 12:2 में उन्हें अपने मनों को भी अर्पित करने की आज्ञा देता है, “और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो |”
यदि मन परमेश्वर को समर्पित न हो, तो देह को परमेश्वर को एक पवित्र और भावता हुआ बलिदान करके अर्पित नहीं किया जा सकता क्योंकि देह वही करता है, जो मन चाहता है! इसलिए पौलुस विश्वासियों को कहता है कि यदि वे एक सच्चे रूपांतरण को पाना चाहते हैं, तो मसीह को अपने मन को अर्पित करें | चिकित्सा जगत में चिकित्सक कहते हैं, “आप जो खाते हैं, आप वही हैं |” इसी प्रकार से आत्मिक–जगत में बाईबल कहती है, “आप जो सोचते हैं, आप वही हैं |” इसलिए, पौलुस मन [बुद्धि] के बारे में, जो हमारे समस्त प्रकार के विचारों का स्रोत है, बात करता है, और कहता है कि इसके सतत नवीणीकरण की आवश्यकता है | मात्र तभी, देह को एक भावता हुआ बलिदान के रूप में चढ़ाया जा सकता है |
सार रूप में इस पद को 3 भागों में बाँटा जा सकता है: 2 आज्ञायें हैं और उनके बाद इन आज्ञाओं का पालन करने के परिणाम | आज्ञा #1, नकारात्मक रूप पर केन्द्रित है, “संसार के सदृश्य न बनो |” यह इस बात पर ध्यान केन्द्रित करता है कि “हमें क्या नहीं करना चाहिए |” आज्ञा #2, सकारात्मक रूप पर केन्द्रित है, “परन्तु तुम्हारे मन के नये हो जाने से तुम्हारा चालचलन भी बदलता जाए” | यह इस बात पर ध्यान केन्द्रित करता है कि, “हमें क्या करना चाहिए |” और अंततः इन दोनों आज्ञाओं का पालन करने का परिणाम, “जिससे तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो |” आईए इन प्रत्येक भागों को निकटता से देखें |
आज्ञा #1 | “इस संसार के सदृश्य न बनो |”
“सदृश्य” शब्द की उत्पत्ति एक ऐसे शब्द से हुई है, जिसका प्रयोग एक ऐसे वस्तु का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जिसे किसी साँचे के अनुरूप ढाला या बनाया गया हो | बिस्किट या कुकीज़ बनाने वाले घोल के समान, जिसे जब भिन्न–भिन्न आकार वाले छेद के ट्रे में डाला जाता है, तो छेद के आकार के समान ही बिस्किट या कुकीज़ तैयार हो जाते हैं | साँचे या ट्रे का छेद उस अंतिम उत्पाद के आकार का निर्धारण करता है | उसी प्रकार से, यदि हम संसार के हाथों में अपने नियंत्रण को दे देंगे, तो हम आख़िरकर वैसा ही जीवन बितायेंगे जैसा संसार कहेगा–पौलुस का यही कहना है | जे. बी. फिलिप्स नामक व्यक्ति ने इस पद को कुछ इस ढंग से अनुवाद किया: “संसार तुम्हे अपने साँचे में न ढालने पाए |”
बाईबल कम से कम चार कारण बताती है कि हम क्यों संसार के सदृश्य नहीं बन सकते हैं |
कारण #1 | हम संसार के सदृश्य नहीं बन सकते, क्योंकि: बुनियादी तौर पर अपने उद्धार के कारण हम इस संसार के नहीं हैं |
यूहन्ना 17:16 में, पिता से प्रार्थना करते हुए यीशु मसीह ने ये शब्द कहे, “जैसे मैं संसार का नहीं, वैसे ही वे भी संसार के नहीं |” अतः, हमें इस संसार के सदृश्य बन जाने के दबाव का प्रतिरोध करना चाहिए क्योंकि हम इस संसार के नहीं हैं |
कारण #2 | हम संसार के सदृश्य नहीं बन सकते, क्योंकि: शैतान, इस संसार का परमेश्वर है |
2 कुरिन्थियों 4:4 शैतान को “इस संसार का ईश्वर”, कहता है | यीशु मसीह ने यूहन्ना 14:30 में शैतान को “संसार का सरदार” कहा | 1 यूहन्ना 5:19 बताता है कि “सारा संसार उस दुष्ट के वश में पड़ा है |” अतः, यदि हम इस संसार के नमूने के सदृश्य बनते हैं तो हम वास्तव में ऐसे जी रहे हैं मानो हम अभी भी शैतान के नियंत्रण में हैं और मानो हम उसके अधिकार से नहीं छुड़ाये गये हैं |
कारण #3 | हम संसार के सदृश्य नहीं बन सकते, क्योंकि: यह संसार मिटता जाता है |
1 यूहन्ना 2:17 कहता है, “संसार और उस की अभिलाषायें दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा |” इसीलिए, यूहन्ना ने थोड़ा पहले, पद 15 में यह आज्ञा दी: “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है |” यदि हम ऐसे लोग हैं जो संसार की सदृश्यता वाली जीवनशैली का प्रदर्शन करते हैं, तो फिर सच कहें तो हम पिता को प्रेम नहीं करते हैं | और इसका अर्थ यह है कि हमारा सचमुच में उद्धार नहीं हुआ है और हम संसार के लोगों के साथ नाश हो जायेंगे |
कारण #4 | हम संसार के सदृश्य नहीं बन सकते हैं, क्योंकि: इससे गवाही खराब होती है |
यीशु मसीह हमें अपना गवाह बनने की बुलाहट देता है, क्योंकि हम “जगत की ज्योति” हैं [मत्ती 5:14] | यदि हम संसार के समान जीवन बिताते हैं, तो रौशनी फैलाने के लिए कोई ज्योति नहीं होगी | और यह उस उद्देश्य को खत्म कर देता है, जिसके लिए परमेश्वर ने हमें इस अँधेरे संसार के मध्य रख छोड़ा है |
तो, इन चार कारणों के द्वारा आपने देख लिया कि पौलुस क्यों इस बात पर जोर देता है कि यदि हमें जीवित बलिदान बनना है, तो हमें संसार के सदृश्य बनने के दबाव का लगातार प्रतिरोध करना चाहिए | परन्तु बस उतना ही पर्याप्त नहीं है | हमें साथ ही परमेश्वर को “हाँ” कहने की भी आवश्यकता है, जो हमारे मन को नया बनाने का कार्य करता है, यही इस पद में दी गई दूसरी आज्ञा हैं | सच्चा और स्थाई परिवर्तन तभी आता है, जब मन रूपांतरित होता है |
आज्ञा #2 | “परन्तु तुम्हारे मन के नए हो जाने से तुम्हारा चालचलन भी बदलता जाये |”
मन को नया करके चालचलन को बदलने का कार्य कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसे हम अपने प्रयासों से कर सकते हैं | यह हमारे लिए पवित्र आत्मा के द्वारा किया जाता है, हालाँकि इस पद में पवित्र आत्मा का कोई उल्लेख नहीं है | यदि हम “बदलता जाये” और “मन का नया हो जाना”, वाक्यांशों को निकटता से देखें, तो यह सत्य और स्पष्ट नजर आयेगा |
बदलता जाये [transformed] | यह शब्द [transformed], एक ऐसा शब्द है , जिससे हमें इंग्लिश शब्द, ‘metamorphosis’, प्राप्त हुआ है | इसका प्रयोग इस बात का वर्णन करने के लिए किया जाता है कि कैसे एक इल्ली, तितली बन जाती है या एक डिंभकीट मेंढक बनता है | इसमें स्वयं के रूप को बदलने का विचार निहित है | यह शब्द नया नियम में 2 बार और आया है |
पहली बार यह मत्ती 17:2 में आया है, जहाँ इस शब्द का प्रयोग रूपांतरण के पर्वत पर पतरस, याकूब और यूहन्ना के सम्मुख यीशु मसीह के रूपांतरण का वर्णन करने के लिए किया गया है | दूसरी बार यह 2 कुरिन्थियों 3:18 में आया है, जहाँ हम पढ़ते हैं, “परन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश-अंश कर के बदलते जाते हैं |”
यहाँ हम एक विवरण को पाते हैं कि जब विश्वासीगण मसीह की महिमा के बारे में और अधिक सोचते रहते हैं, तो पवित्र आत्मा कैसे विश्वासियों को और अधिक यीशु के समान बनाने के लिए निरंतर परिवर्तित करता रहता है |
नया होना [Renewing] | यह शब्द [Renewing], नया नियम में केवल एक अन्य स्थान पर आया है और वह पद है तीतुस 3:5, “तो उस ने हमारा उद्धार किया: और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किए, पर अपनी दया के अनुसार, नए जन्म के स्नान, और पवित्र आत्मा के हमें नया बनाने के द्वारा हुआ |” इस बात पर ध्यान दीजिए कि नया जन्म और नया बनाने का कार्य कौन करता है: यह तो पवित्र आत्मा का कार्य है | हम देखते है कि कैसे पवित्र आत्मा दोनों प्रकार के कार्य को करता है; नया बनाने के कार्य को और बदलने के कार्य को | और 12:2 के भाषा–संरचना को देखें, जहाँ मन का नया हो जाना और चालचलन का बदलना, कर्मप्रधान रूप में दिया गया है, तो हम सुरक्षित रूप से निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि केवल पवित्र आत्मा ही हमारे विचारों और अंततः हमारे कार्यों में परिवर्तन ला सकता है |
अतः पौलुस विश्वासियों को मन को नया बनाने के पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति समर्पित होने की बुलाहट देता है | इस सत्य को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है: यद्यपि पवित्र आत्मा रूपांतरण करने के कार्य को करता है, तौभी अवश्य है कि हम उसके प्रति समर्पित होने की अपनी भूमिका को निभायें | हमें अवश्य ही हमारे मनों को बदलने के लिए पवित्र आत्मा को अनुमति देना चाहिए | वह हमारी इच्छा के विरुद्ध हमारा रूपांतरण नहीं करेगा | यहाँ पर एक मानवीय जिम्मेदारी भी सम्मिलित है |
यदि हम एक जीवित बलिदान बनना चाहते हैं, तो अवश्य है कि हम अपने मनों को प्रभु को संपूर्णतः अर्पित करने के द्वारा अपनी सोच में परिवर्तन लाने की अभिलाषा रखें | मन का नया होना अवश्य है क्योंकि उद्धार के पहले, मन एक भ्रष्ट अवस्था में था [इफिसियों 4:18] | मनपरिवर्तन [उद्धार] के समय, परमेश्वर नवीनीकरण प्रक्रिया को आरम्भ करते हैं | मन को नया बनाने की यह प्रक्रिया एक जीवन–पर्यंत चलने वाली प्रतिक्रिया है, जो उस दिन अपनी पूर्णता को पायेगा, जब हम संपूर्णतः मसीह के समान बनाये जायेंगे [1 यूहन्ना 3:2; फिलिप्पियों 3:20-21]–एक ऐसी घटना जिसे बाईबल “महिमीकरण” नाम देती है [रोमियों 8:30] |
यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि मन के इस रूपांतरण कार्य के लिये पवित्र आत्मा जिन साधनों का इस्तेमाल करता है, वे हैं, पवित्र शास्त्र में लिखे वचन, जिनमें मसीह की महिमा का वर्णन है | इस प्रकार, पवित्र आत्मा हमारे मनों को परिवर्तित करने के लिए दृश्य रूप से पवित्र शास्त्र का इस्तेमाल करता है | साथ ही, वह पवित्र शास्त्र को समझने के लिए प्रकाश देने के आंतरिक कार्य को भी करता है [1 कुरिन्थियों 2:13-14] | इस प्रकार से, हम मसीह की महिमा को समझ सकते हैं |
बाईबल की सच्चाईयाँ ही हैं जो हमारा उद्धार करती हैं और बाईबल की सच्चाईयाँ हमें निरंतर पवित्र करती हैं | स्वयं यीशु मसीह ने, पिता से प्रार्थना करते हुए यह कहा , “सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर : तेरा वचन सत्य है।” [यूहन्ना 17:17] | जब तक एक व्यक्ति परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने के पश्चात सीखे गए सत्यों को जीवन में लागू करने के लिए परमेश्वर से सहायता मांगते हुए अपने सोच पर पवित्र शास्त्र के प्रभुत्व के लिए स्वयं को समर्पित न कर दे, तब तक उस व्यक्ति का मन रूपांतरित नहीं होगा |
कई सारे मसीही, न्यूनतम रूपांतरण का अनुभव करते हैं | इसका कारण यह है कि वे अपने मन को संसार की बहुत सारी बातों और मनोरंजन के सम्मुख रहने की अनुमति देते हैं | प्रायोगिक रूप से बात करें तो, यदि आप उन्हें एक अविश्वासी के साथ रख दें, तो उनके जीवनशैली, कामकाज और बात के आधार पर उनके मध्य अंतर को बताना मुश्किल हो जायेगा | इसीलिए विश्वासियों को स्वस्फूर्त होकर बाईबल पठन, प्रार्थना, संगति, सेवा, सुसमाचार–प्रचार और बाईबल को अच्छे तरह से समझाने वाले लेखकों के पुस्तक को पढ़ने जैसे आत्मिक अनुशासन को अपनाना चाहिए | इस प्रकार से वे, कहीं अधिक महत्वपूर्ण आत्मिक रूपांतरण का अनुभव कर सकते हैं |
हमें इस बात को स्मरण रखना अवश्य है कि आत्मिक विकास स्वमेव [अपने आप] नहीं होता है | पवित्रता संयोग की बात नहीं है | उम्र में बढ़ोतरी, आत्मिक बढ़ोतरी के समतुल्य नहीं हैं | आत्मिक विकास तभी होता है, जब विश्वासी अपने मनों को प्रतिदिन उचित आत्मिक अनुशासन के लिए सौंपता हैं | ऐसा नहीं हो सकता है कि हम अपने जीवन को संसार और इसकी विचारधारा से नियंत्रित होने दें और उसी समय आत्मिक अनुशासन का अभ्यास करने का प्रयत्न करें और किसी तरह आशा करें कि यह कार्य करेगा और हम आत्मिक रूप से बलवंत होकर उभरेंगे | ऐसा नहीं हो सकता है कि हम एक तरफ स्वस्थ आहार नियम के अनुसार भोजन करने का प्रयास करें और उस समय जंक फूड भी खाते रहें ! जो बात शरीर के लिए कार्य नहीं करती है; वही बात आत्मा के लिए भी कार्य नहीं करती है! कई लोग संतुलन बनाने के अपने निरर्थक प्रयास में, आत्मा को भी ‘हाँ’ कहते हैं और संसार को भी ‘हाँ’ कहते हैं | बाईबल उन्हें व्यभिचारी लोग कहती है [याकूब 4:7] | संसार को ‘नहीं’ कहे बगैर पवित्र आत्मा को ‘हाँ’ कहना केवल एक बड़ी हताशा की ओर ले जायेगा |
इसलिए हमें आज से ही इस संकल्प को लेना होगा कि जब हम अपने मनों को पवित्र आत्मा के रूपांतरण कार्य के लिए सौंपते हैं, तो हमें स्वयं को भक्ति के प्रशिक्षण के लिए भी सौंप देना है | हमें फिलिप्पियों 4:8 की सच्चाइयों को भी निरंतर अभ्यास में लाने की आवश्यकता है: “निदान, हे भाइयों, जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरणीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्र हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, निदान, जो जो सदगुण और प्रशंसा की बातें हैं, उन्हीं पर ध्यान लगाया करो |” हमारी सोच, हमारा निर्माण करती है! यह अत्यावश्यक है कि हम अपने मनों को सही बातों से भरे रखें |
कई लोग जो बाह्य तौर पर खुलकर बुराई नहीं करते है, वे अपने विचारों में पाप करते हैं–यह कुछ भी हो सकता है–वासना का विचार, घृणा, दूसरों की बुराई की कामना, लालच, सांसारिक सफलता और सामर्थ पाने की अभिलाषा, ईर्ष्या का विचार इत्यादि | हम यह सोचते हुए स्वयं को धोखा दे सकते हैं कि जब तक हम अपने विचारों को कार्यरूप में न बदलें, तब तक बस सोचते रहने में कोई बड़ी समस्या नहीं है | हमें इस बात को स्मरण रखने की आवश्यकता है कि परमेश्वर विचारों का भी न्याय करता है और एक जीवित बलिदान बनने में एक शुद्ध मन होना सम्मिलित है | इस बात का खतरा हमेशा बना रहता है कि आज या कल हम अपने विचारों को कार्यरूप में बदलेंगे | हम जैसा सोचते हैं , हम वैसे ही हैं!
इस प्रकार, यहाँ जोर इस बात पर दिया गया है कि हम अपने मनों को समर्पित कर दें ताकि पवित्र आत्मा उन्हें निरंतर रूपांतरित और नया करते रहे | इसका परिणाम क्या होगा? इस पद का तीसरा भाग परिणाम के बारे में स्पष्ट शिक्षा देता है |
आज्ञा #1 और आज्ञा #2 को पालन करने का परिणाम | “जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो |”
हमारी हिंदी बाईबल में प्रयुक्त वाक्यांश, “अनुभव से मालूम करना” के लिए मूल भाषा में एक ही शब्द का इस्तेमाल किया गया है और उसका प्रयोग किसी धातु की कीमत जानने के लिए उसको परखने की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए किया जाता था | पौलुस वास्तव में यह कहना चाहता है कि: “जब हम अपने मनों को परमेश्वर के सत्य से नया बनाये जाने के लिए समर्पित करेंगे, तो हम “परमेश्वर की इच्छा” को जानने के योग्य बन जायेंगे–हमारे जीवन के लिए उसकी “भली, भावती और सिद्ध इच्छा” को जानने के योग्य | यहाँ परमेश्वर की इच्छा से तात्पर्य है, पवित्रशास्त्र में स्पष्टता से प्रकाशित इच्छा की एक अच्छी समझ और दिन–प्रतिदिन के जीवन के मुद्दों में परमेश्वर की इच्छा की एक स्पष्ट समझ |
यदि हम मन के रूपांतरण के प्रयास में हैं, तो फिर उतावलीपूर्वक बाईबल पढ़ने से, किसी वचन या भाग मनन करने के लिए कभी–कभार ही समय निकालने से, जब शरीर थका हुआ हो और आँखे नींद से बोझिल तब प्रार्थना करने के लिए कुछ मिनट निकालने से काम नहीं चलेगा | यदि हम इस प्रकार के जीवनशैली के अपराधी हैं, तो हमें अवश्य ही पश्चाताप करना चाहिए | हमें अवश्य ही परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहिए कि वह हमें पवित्रशास्त्र को उचित ढंग से पढ़ने और प्रार्थना करने के लिए समय निकालने के कार्य को महत्व देने के लिए प्रेरित करे | समय की कमी होना, कभी भी इसका कारण नहीं होता है | हम हमेशा उन कामों को करने के लिए समय निकाल लेते हैं जो हमें पसंद हैं या जिन्हें हम महत्वपूर्ण समझते हैं | क्या इससे बड़ा और कोई काम है कि हम अपने मनों को सौंप दें ताकि पवित्र आत्मा उन्हें रूपांतरित करें?
अक्सर लोग अपने शरीर और मन को जीवित बलिदान के रूप में अर्पित करने से इनकार करते हैं परन्तु उसी समय वे अपने जीवन में परमेश्वर की इच्छा जानना चाहते हैं | जब लोग परमेश्वर की स्पष्ट प्रकाशित आज्ञाओं को मानने से सीधे–सीधे इनकार करें, तो परमेश्वर जीवन से जुड़े मुद्दों पर उनका मार्गदर्शन क्यों करें?
अतः यदि हम अपने जीवन में परमेश्वर की इच्छा अनुभव से मालूम करना चाहते हैं, तो अपनी देह और मन को परमेश्वर को चौबीसों घंटे और सातों दिन देने के लिए अपने आपको समर्पित करना आवश्यक होगा | परन्तु ऐसा केवल उसी उद्देश्य के लिए नहीं है | बल्कि साथ ही साथ केवल यही वह एकमात्र तरीका है, जिससे हम उस प्रकार की आराधना कर सकते हैं, जिससे परमेश्वर प्रसन्न होता है | और केवल यही कार्य ही उसके समस्त मनोहर दया को [विशेषत:, उस क्रूस पर दिखाई गई दया को] चखने के पश्चात, दिखाई जाने वाली सर्वोतम और एकमात्र प्रतिक्रिया होगी | क्योंकि क्रूस ही वह स्थान है, जहाँ परमेश्वर के पुत्र ने हमारे पापों के दण्ड को सहा ताकि हम नर्क से छुड़ाये जायें और उसके साथ स्वर्ग में अनंत जीवन का अनुभव करें |