रूपांतरित जीवन भाग 15—एक दूसरे के साथ सामंजस्यता में जीवन बिताओ

Posted byHindi Editor October 15, 2024 Comments:0

(English version: The Transformed Life – Live in Harmony With One Another)

रोमियों 12:16 यह आज्ञा देता है: आपस में एक सा मन रखो; अभिमानी न हो; परन्तु दीनों के साथ संगति रखो; अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न हो | 

हमारा विषय है, एक दूसरे के साथ सामंजस्यता में जीवन बिताना और इस बात को निश्चित करना कि इसे होने से रोकने वाली एक ठोकर खिलाने वाली बात को हटाया जाये | और वह एक बात क्या है? यह है, अहंकार! यदि हम एकीकृत मानसिकता को दर्शाना चाहते हैं, तो हम अहंकारवादी सोच को अपने दिमाग पर राज करने की अनुमति नहीं दे सकते हैं | इसके स्थान पर, सोच में दीनता का भाव होना ही आपस में एक सा मन रखने की कुंजी है | 

आईए हम इस आयत की गठरी को चार भागों में विभाजित करते हुए खोलें–इसमें से प्रत्येक भाग एक आज्ञा है |   

आज्ञा # 1 |

आपस में एक सा मन रखो |” कुछ अनुवादों में लिखा है, “एक दूसरे के साथ सामंजस्यता में जीवन बिताओ |”  सोच में एकता ही यहाँ का मुख्य विचार है | मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम सबको सब बातों के बारे में एक ही प्रकार की राय रखनी पड़ेगी | हम रोबोट नहीं हैं | मुख्य विचार यहाँ यह है कि जब हम मसीह द्वारा रूपांतरित किए जाने के कार्य के द्वारा, मसीह के और अधिक समान बनते हैं तो हमें पिता की महिमा करने के एक सामूहिक लक्ष्य के लिए एक साथ आना चाहिए | यह मनोभाव इतना महत्वपूर्ण है कि यह आज्ञा नया नियम में बहुधा दोहराया गया है [फिलिप्पियों 1:27; फिलिप्प्यों 2:1 -2; 1 पतरस 3:8] |

जैसा कि प्रेरितों के काम 4:32 में बताया गया है, ऐसा एक मनोभाव आरंभिक कलीसिया का एक विशिष्ट गुण था, “और विश्वास करने वालों की मण्डली एक चित्त और एक मन के थे यहां तक कि कोई भी अपनी सम्पति अपनी नहीं कहता था, परन्तु सब कुछ साझे का था” | यहाँ तक कि पुराना नियम में भी भजनसंहिता 133:1 में भजनकार विश्वासियों द्वारा एकता में जीने की इसी अभिलाषा को व्यक्त करता है, “देखो, यह क्या ही भली और मनोहर बात है कि भाई लोग आपस में मिले रहें!” 

निम्नांकित उदाहरण पर ध्यान दें:

कैलीफोर्निया में एक ख़ास किस्म का पेड़ पाया जाता है जो 300 फीट तक ऊँचा होता है | अचरज की बात है कि इन दैत्याकार पेड़ों में असामान्य सतही जड़–प्रणाली होते हैं, जो सतह की नमी की अधिकतम मात्रा को खींच लेने के लिए सभी दिशाओं में फैले होते हैं | उनकी आपस में जुड़ी हुई जड़ें आँधी–तूफ़ान के समय प्रत्येक पेड़ को सहारा भी प्रदान करती हैं | इसीलिए वे सामान्य रूप से झुण्ड में ही उगते हैं | आप इसे कदाचित ही अकेले खड़े हुए पायेंगे क्योंकि तेज हवायें इसे शीघ्र ही जड़ से उखाड़ देती हैं!

हमारे कलीसियाओं और हमारे घरों में परमेश्वर इसी चित्र की अभिलाषा करता है | विश्वासियों को एक दूसरे के साथ सामंजस्यता में जीवन बिताना है | परन्तु, जैसा कि हम स्वयं ही अनुभव से जानते हैं कि अक्सर ऐसा होता नहीं है | सामंजस्यता के स्थान पर विभाजन और शान्ति के स्थान पर खलबली दिखाई पड़ती है | इसका एक मुख्य कारण है, अहंकार और इसीलिए पौलुस दूसरी आज्ञा देने के लिए आगे बढ़ता है |

आज्ञा # 2 |

“अभिमानी न हो |” वास्तव में पौलुस कहना चाहता है, “अपनी सोच में घमंडी मत बनो | यदि सामंजस्यता चाहिए तो अहंकारी सोच को हटाना होगा |” और वह सही है | हमारा आचरण हमारी सोच का ही एक परिणाम है; अहंकारी सोच, अहंकारी आचरण को उत्पन्न करती है!

अहंकार हमेशा अपनी मर्जी से चलना चाहता है | और जब ऐसी मानसिकता होती है, तो हमेशा लड़ाईयाँ होती हैं [याकूब 4: 1-3] | फिर चाहे कलीसिया की बात हो, या घर की, जहाँ भी “या तो मेरी सुनो या निकलो” वाला एक ढीठ रवैया होगा, वहाँ कोई सामंजस्यता नहीं हो सकती | जहाँ पर भी दियुत्रिफुस के समान “मुझे सबसे पहला रहना अत्याधिक पसंद है”, वाला दृष्टिकोण होगा, वहाँ झगड़ा होगा [3 यूहन्ना 1:9] | इसीलिए यह आज्ञा दी गई है, “अभिमानी न हो |”

आज्ञा # 3 |  

अहंकार द्वारा स्वयं को प्रगट करने का एक तरीका यह है कि वह समाज में लोगों के रुतबे और स्वयं के लिए उनके महत्व को देखते हुए, केवल कुछ ख़ास लोगों के साथ ही संगति रखता है | दूसरे शब्दों में कहें तो अहंकारी लोग सभी लोगों से संगति नहीं रखते हैं बल्कि वे केवल ऐसे लोगों के साथ संगति रखते हैं जो उनके अभिरुचियों को और आगे ले जा सकें |  इसीलिए पौलुस कहता है, “परन्तु दीनों के साथ संगति रखो |”

यीशु मसीह ने समाज के तिरस्कृत लोगों के साथ समय बिताया और संभ्रांत लोगों के मध्य रहने का प्रयास नहीं किया | हमें भी ऐसा ही करना चाहिए | हमें यह नहीं देखना चाहिए कि कौन हमें ऊँचे पद या सामर्थ के स्थान पर पहुँचने में सहायता करेगा और फिर केवल उनके साथ ही हमें मित्रता बनाकर नहीं रखनी चाहिए | दूसरे शब्दों में कहें तो, हमें जहाँ जाना है, वहाँ पहुँचने के लिए हम लोगों का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं | बल्कि हमें सभी लोगों के साथ प्रेम में होकर समानता का व्यवहार करना करना चाहिए, इसमें तिरस्कृत लोगों के साथ समय बिताने की तत्परता भी सम्मिलित है [लूका 14:13] |  

एक प्रचारक ने एक आरंभिक कलीसियाई सभा के एक दृश्य का वर्णन किया | एक प्रसिद्ध व्यक्ति एक विश्वासी बन गया औए वह अपनी पहली कलीसियाई सभा के लिए कलीसिया में आया | उसने उस कमरे में प्रवेश किया जहाँ सभा चल रही थी | मसीही अगुवे ने उसे इशारा करते हुए एक स्थान दिखाया और उससे कहा, “कृप्या, वहाँ बैठ जाईए!” उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, “लेकिन, मैं वहाँ नहीं बैठ सकता, क्योंकि ऐसा करने से तो मुझे मेरे दास [गुलाम] के बाजू में बैठना पड़ेगा |” उस अगुवे ने अपनी बात दोहराई,  “कृप्या, वहाँ बैठ जाईए!” उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, “अपने दास [गुलाम] के बाजू में तो बिल्कुल भी नहीं!” उस अगुवे ने पुनः एक बार अपनी बात दोहराई, “कृप्या, वहाँ बैठ जाईए!” अंततः वह आदमी बताये गये स्थान पर गया, अपने दास [गुलाम] के बाजू में बैठा, और उसे शान्ति का एक चुम्बन दिया |

तो यह है वह कार्य जो मसीहियत ने रोमी साम्राज्य में किया | मसीही कलीसिया एकमात्र ऐसा स्थान था जहाँ स्वामी और दास [गुलाम] अगल–बगल में बैठते थे | आज भी कलीसिया एक ऐसा स्थान है जहाँ सभी प्रकार के पार्थिव भेद मिट गये हैं, क्योंकि परमेश्वर के सम्मुख लोगों का कोई सम्मान नहीं है | 

इसीलिए आईए, दीनों के साथ निरंतर संगति रखने के लिए तत्पर रहें | 

आज्ञा #4 |

इस आयत में पौलुस एक और आज्ञा को जोड़ता है: “अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न हो |” अपने बारे में एक अभिमानी राय मत रखो | स्वयं पर घमंड मत करो | पौलुस यही कह रहा है | New Living Translation में इसे ऐसे लिखा गया है: “ऐसा मत सोचो कि तुम सब कुछ जानते हो |” घमंडी लोग बिल्कुल ऐसे ही होते हैं | वे स्वयं को बहुत बड़ा समझते हैं, जो उनमें थोथा अभिमान उत्पन्न करता है, ऐसा अभिमान जिसके अन्दर कुछ भी नहीं है | 

इसीलिए बाईबल हमें अहंकारी न होने या अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न होने की बार–बार चेतावनी देती है | नीतिवचन 3:7 में लिखा है, “अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न होना; यहोवा का भय मानना, और बुराई से अलग रहना |” नीतिवचन 26:12 में लिखा है, “यदि तू ऐसा मनुष्य देखे जो अपनी दृष्टि में बुद्धिमान बनता हो, तो उस से अधिक आशा मूर्ख ही से है |”  

जो लोग अपनी ही दृष्टि में बुद्धिमान हैं, ऐसे अहंकारी लोगों से बात करना भी मुश्किल है | यदि आपने उन्हें उनकी गलतियों को दिखाया है, तो फिर उनके रोष का सामना करने के लिए तैयार हो जायें | उनको बस इतना कह दें कि वे घमंडी हैं, और वे अत्याधिक ऊँची आवाज में कहेंगे, “मुझे घमंडी कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?” वहीं दूसरी ओर जब अन्य लोग दीनता का अनुकरण करने वाले लोगों के पापों को बताते हैं, तो वे लोग ध्यान से सोचते हैं | वे रुकते हैं और स्वयं से पूछते हैं, “क्या वे सही हैं?”  वे यह पूछने से भी नहीं हिचकते, “क्या आप मुझे ठीक–ठीक बतायेंगे कि मेरी कौन सी बात ने आपको यह कहने के लिए प्रेरित किया कि मैं घमण्डी हूँ या मेरी कौन सी बात ने आपको बेचैन या क्रोधित कर दिया इत्यादि |

एक प्रसिद्ध मसीही उद्योगपति हॉवर्ड बट्ट ने, “एक प्रभावशाली व्यक्ति बनने की कला,”  शीर्षक से एक लेख लिखा | उसमें लिखे गये कई महत्वपूर्ण बातों में से कुछ बातें ये हैं:

 यह मेरा घमंड है जो मुझे परमेश्वर के अनाधीन बनाता है | यह मुझे यह महसूस करवाना चाहता है कि मैं अपनी नियति का स्वामी हूँ, अपने जीवन का संचालन स्वयं मैं ही करता हूँ, अपने लक्ष्यों का निर्धारण स्वयं करता हूँ, और अकेले अपने दम पर जीता हूँ | परन्तु ऐसी  भावना तो मेरी बुनियादी बेईमानी है | मैं अकेले नहीं जी सकता | मुझे दूसरों से सहायता लेनी ही पड़ेगी और मैं अंततः स्वयं पर निर्भर नहीं रह सकता | अपनी अगली श्वाँस के लिए मैं परमेश्वर पर निर्भर हूँ | यह दिखाना मेरी बेईमानी होगी कि मैं एक अदना, कमजोर और सीमित मनुष्य के अलावा और कुछ हूँ | अतः, परमेश्वर के अनाधीन जीवन बिताना एक स्व–भ्रम है |  

यह केवल इतनी सी बात नहीं है कि घमंड एक छोटा सा दुर्भाग्यपूर्ण लक्षण है और दीनता एक आकर्षक छोटा सद्गुण; बल्कि यहाँ तो मेरी आतंरिक मानसिक ईमानदारी दाँव पर लगी हुई है | जब मैं अहंकारी हूँ, तो मैं इस संबंध में स्वयं से झूठ बोल रहा हूँ कि मैं कौन हूँ | मैं मनुष्य नहीं अपितु परमेश्वर होने का दिखावा कर रहा हूँ | 

मेरा अहंकार एक मूर्तिपूजा है जिसमें मैं स्वयं की आराधना करता हूँ | और यह तो नरक का राष्ट्रीय धर्म है! 

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि यिर्मयाह ने अपने सहयोगी बारुक को इन शब्दों से चेतावनी दी: यिर्मयाह 45:5, “क्या तू अपने लिये बड़ाई खोज रहा है? उसे मत खोज |” इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि फिलिप्पी 2:3-4 कहता है, 3 विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो | 4 हर एक अपनी ही हित की नहीं, वरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे |

तो फिर हम घमंड को कैसे मारें और कैसे सामंजस्यता में जीवन बिताएं? तीन सुझाव | 

( 1 ) हमें स्वीकार करना होगा कि हमारे मन में अहंकार है [भजनसंहिता 51:4]

( 2 )  हमें पवित्रशास्त्र में उन भागों को पढ़ना चाहिए जहाँ घमंड और दीनता की शिक्षा दी गई है और परमेश्वर से हमें ईमानदारी से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह सीखी गई सच्चाईयों को हमारे जीवन में लागू करने में हमारी सहायता करे  [इफिसियों 6:17-18अ] |  

( 3 ) हमें अवश्य ही निरंतर यीशु मसीह के जीवन पर ध्यान करना चाहिए और उसके पद-चिन्हों का अनुकरण करना चाहिए | दीनता सीखने का सर्वोत्तम तरीका यही है कि इसे यीशु मसीह के उदाहरण से सीखें | अपने बारे में बताते हुए स्वयं यीशु मसीह ने ये बातें कहीं, “ मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूँ ” [मत्ती 11:29] | सुसमाचार की पुस्तकों में यह एकमात्र बार है जहाँ यीशु मसीह स्वयं का वर्णन देते हैं–कि वह नम्र और मन में दीन हैं!

यीशु मसीह के बारे में यह बात बहुत सही कही गई है कि “घमण्ड के उस प्रत्येक रूप पर जिसमें हम दोषी ठहरते हैं, उसका जीवन और उसकी मृत्यु एक स्थाई फटकार है |” निम्नांकित सारणी इस विचार को प्रतिबिंबित करती है |

घमंड कहता है: यीशु मसीह के बारे में बाईबल यह कहती है: 
मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखो  क्या यह बढ़ई का पुत्र नहीं है? [मत्ती 13:55]  
देखो, मेरे पास कितना पैसा है  मनुष्य के पुत्र को सिर धरने की भी जगह नहीं  है [लूका 9:58]
मेरे रूप–रंग को देखो  उसमें हमें आकर्षित करने योग्य कोई सुन्दरता या प्रताप नहीं था [यशायाह 53:2]
देखो, मैं कितने महत्वपूर्ण लोगों के साथ उठता–बैठता हूँ   चुंगी लेने वालों और पापियों का मित्र [लूका 7:34]
देखो, मेरे नीचे कितने लोग हैं  मैं तुम्हारे मध्य में एक सेवक के समान हूँ [लूका 22:27]
देखो, कितने लोग मेरी प्रशंसा करते हैं  वह तुच्छ जाना गया और मनुष्यों का त्यागा हुआ था [यशायाह 53:3]
देखो, मैं कितना ताकतवर हूँ  मैं खुद से कुछ नहीं कर सकता [यूहन्ना 5:30]
देखो, मैं कैसे हमेशा अपनी मर्जी पूरी करवा लेता हूँ  मैं अपनी इच्छा नहीं, परन्तु अपने भेजने वाले की इच्छा चाहता हूँ [यूहन्ना 5:30]
देखो, मैं कितना चतुर हूँ  मैं अपने आप से कुछ नहीं करता, परन्तु जैसे पिता ने मुझे सिखाया, वैसे ही ये बातें कहता हूँ [यूहन्ना 8:28]

जब हम एक दूसरे के साथ सामंजस्यता में जीने के प्रयास में हैं, तो आईए हम इस यीशु से सीखें–हमारे उद्धारकर्ता, हमारे प्रभु, हमारे नम्र और दीन राजा, और सच्ची दीनता सचमुच में कैसा दिखता है, दिखाने वाले, हमारे आदर्श से!

    

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