रूपांतरित जीवन भाग 13—रोने वालों के साथ रोओ

Posted byHindi Editor September 17, 2024 Comments:0

(English version: The Transformed Life – Weep With Those Who Weep – Part 1)

रोमियों 12:15 का द्वितीय भाग हमें, “रोने वालों के साथ रोने” या “शोक करने वालों के साथ शोक करने” की आज्ञा देता है | हमारी मित्रता को पक्का बनाने में ‘दुःख’ की जो भूमिका होती है, वैसी भूमिका बहुत कम बातें निभा पाती हैं | अपने बीते समय के बारे में सोचिए, विशेषकर, उन समयों के बारे में जब आपके जीवन में अपार खुशियाँ थीं और ऐसे समय के बारे में जब आप अँधेरी घाटी से गुजर रहे थे | अब आप उन लोगों के बारे में सोचिए, जो इन दोनों समयों में आप के साथ थे | आप किन लोगों को अधिक स्मरण कर पा रहे हैं? यदि आप मेरे समान हैं, तो आप दुःख के समय साथ रहने वालों को अधिक स्मरण कर पा रहे होंगे | हम उन लोगों को अधिक स्मरण करते हैं जो उन अँधेरी घाटी के अनुभवों में हमारे साथ थे; उन लोगों को जो हमारे साथ तब थे, जब हमारे आँसू हमारे दिन और रात के आहार बन चुके थे | निम्नांकित कहानी इस सत्य को भली–भाँति बताती है:

एक महिला की मुलाकात अपने एक पड़ोसी के नौकर से हुई | उसने कहा, “मुझे तुम्हारी चाची की मौत की खबर सुनकर बहुत दुःख हुआ | तुम्हें उसकी बहुत याद आती होगी | तुम दोनों इतने अच्छे दोस्त जो थे |” नौकर ने उत्तर दिया, “हाँ, मुझे उसकी मौत का दुःख है | परन्तु हम दोनों दोस्त नहीं थे |” महिला ने पूछा, “ऐसे कैसे, मैं सोचती थी, तुम दोनों अच्छे दोस्त थे, मैंने तुम्हें कई बार साथ में हँसते और बात करते देखा था |”

उस नौकर ने उत्तर दिया, “हाँ, आपकी बात सही है, हम साथ में हँसते थे, हम आपस में बातें किया करते थे, परन्तु हमारे मध्य मात्र मेल–जोल का ही रिश्ता था | हमने कभी साथ में आँसू नहीं बहाये | दोस्त बनने से पहले लोगों को साथ में रोना पड़ता है |” 

संभावतः इस कहानी का अंतिम कथन अतिरेक जान पड़े तौभी इसमें व्यक्त विचार सही है | आँसुओं का बंधन ऐसा बंधन है जो लोगों को प्रगाढ़ मित्रता में ले आता है, और यह ऐसा मजबूत बंधन होता है कि आसानी से नहीं टूटता ! तौभी, एक दुखद सच्चाई यह है कि यद्यपि मसीही होने के नाते हम एक दूसरे के साथ सहभागिता में बुलाये गये हैं अर्थात हमारे जीवन को हमें दूसरों के साथ बाँटने के लिए बुलाया गया है या यूँ कहें कि हमारे आनंद और दुःखों को साथ में बाँटने के लिए, तौभी अपने दुखों को बाँटने के इस क्षेत्र में हम असफल हो चुके हैं |  हम दुःख में भागीदार बनते हुए दूसरों के साथ कदाचित ही प्रगाढ़ रिश्ता बनाते हैं |   

यदि हम ईमानदारी से स्वयं को उत्तर दें, तो हम पायेंगे कि ऐसे समय भी थे जब हम दूसरों के दुखों में प्रसन्न हुए–विशेष तौर पर उनके दुखों में जिन्होंने किसी तरह से हमें चोट पहुँचाई थी | कुछ ऐसा विचार जो कहता है, “उसे सही सजा मिली!” क्या आप जानते हैं ऐसी एक सोच के प्रति परमेश्वर का विचार क्या है? नीतिवचन 17:5ब  कहता है: “जो किसी की विपत्ति पर हँसता है, वह निर्दोष नहीं ठहरेगा!”

परमेश्वर हमें दूसरों के दुखों में भागीदार बनने के लिए बुलाता है | जिस प्रकार से आनंद करने वालों के साथ हमें आनंद करने के लिए बुलाया गया है, उसी प्रकार से हमें रोने वालों के साथ रोने के लिए भी बुलाया गया है | शोक करना या रोने का अर्थ यह है कि किसी संगी विश्वासी के दुःख और दर्द को उस तरह से महसूस करना मानो वे दुःख और दर्द हमारे अपने हों | अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखने की आज्ञा में दूसरों के आनंद और दुःख में उस तरह से भागीदार होना भी सम्मिलित है, मानो वे आनंद और दुःख हमारे अपने हों! तो यह होता है, सहभागिता या हमारे जीवन को एक–दूसरे के साथ बाँटना | 

हमारा परमेश्वर एक ऐसा परमेश्वर है, जो रोता है |

परमेश्वर जिस तरह से आनंद करने वालों के साथ आनंद करता है, ठीक उसी प्रकार से वह रोने वालों के साथ रोता है | यशायाह 63:9 में हम पढ़ते हैं, उनके सारे संकट में उसने भी कष्ट उठाया | उस समय परमेश्वर के लोग अर्थात इस्राएली जिस दर्द से होकर जा रहे थे परमेश्वर भी उसी दर्द से होकर गुजर रहा था | लाजर की कब्र पर रोकर यीशु मसीह ने न केवल मरियम और मार्था के दुखों में, जिनसे वह अत्याधिक प्रेम करता था, अपने आपको सम्मिलित किया, बल्कि साथ ही साथ उस शोक में भी सम्मिलित किया, जिसे पाप इस संसार में लेकर आया | 

हमें भी लूका 19:41 में बताया गया है, जब वह निकट आया तो नगर को देखकर उस पर रोया | वह उस नगर पर रोया जो उसे शीघ्र ही मार डालने पर था! प्रभु यीशु मसीह की यह भावना, यहेजकेल 18:32 में प्रदर्शित परमेश्वर के हृदय की भावना के बिल्कुल समरूप है, क्योंकि, प्रभु यहोवा की यह वाणी है, जो मरे, उसके मरने से मैं प्रसन्न नहीं होता, इसलिये पश्चात्ताप करो, तभी तुम जीवित रहोगे | परमेश्वर एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने शत्रुओं के मृत्यु पर भी दुखी होता है–उन लोगों की मृत्यु पर जो उसका तिरस्कार करते हैं और फलस्वरूप नाश होते हैं | ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि हमारा परमेश्वर, ‘रोने वाला परमेश्वर’  है–संसार के तथाकथित ईश्वरों से बिल्कुल विपरीत, जिनका दुःख से कोई सरोकार नहीं!

क्या आप जानते हैं कि हमारे आँसुओं के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या है? भजनसंहिता 56:8 हमें एक सुराग देता है: तू मेरे मारे मारे फिरने का हिसाब रखता है; तू मेरे आंसुओं को अपनी कुप्पी में रख ले! क्या उनकी चर्चा तेरी पुस्तक में नहीं है? कुप्पी एक ऐसी चीज थी जिसका इस्तेमाल उस समय के लोग केवल कीमती चीजों को रखने के लिए ही किया करते थे | अतः, दाऊद मुख्य रूप से यह कह रहा है कि उसके आँसू परमेश्वर के लिए इतने कीमती थे कि परमेश्वर ने उन्हें कुप्पी में रखा | तो यह है, परमेश्वर की दृष्टि में, हमारे आँसुओं की कीमत! 

हमारा परमेश्वर चिंता करने वाला परमेश्वर है | जिस प्रकार से वह मन फिराने वाले पापी के साथ आनंद मनाता है, उसी प्रकार से वह अपनी सृष्टि के साथ रोता भी है | वह अकेला कहीं दूर खड़ा हुआ परमेश्वर नहीं है | बल्कि वह तो एक ऐसा परमेश्वर है जो हमारे दर्द को अनुभव करता है! और चूंकि हमें इस परमेश्वर का अनुकरण करने के लिए [इफिसियों 5:1] और उसके पुत्र के और अधिक समान बनने के लिए रूपांतरित होने के लिए कहा गया है [रोमियों 12:2; 2 कुरिन्थियों 3:18], इसलिए रोने वालों के साथ रोने के स्वभाव को, हमारे मसीही जीवन का भी एक भाग अवश्य ही बनाना होगा! और ऐसा करने के लिए, मैं यह दिखाने का प्रयास करूंगा, कि हम रोमियों 12:15 के इस आज्ञा को अपने दैनिक जीवन में कैसे लागू कर सकते हैं |

रोने वालों के साथ कैसे रोयें |

निम्नांकित 10 बातों पर ध्यान दीजिए | इसमें से 5 बातें ऐसी हैं, जो क्या नहीं करना है की श्रेणी में आती हैं | फिर 5 बातें ऐसी हैं, जो रोने वालों के साथ रोते समय क्या करना है की श्रेणी में आती हैं |

क्या नहीं करना है

1. उन्हें नहीं कहना है कि अब बस करो | हमें हर समय उन्हें रोना बंद करने के लिए नहीं कहना चाहिए | कई बार, यह आवश्यक होगा कि हम लोगों को मजबूत बनने के लिए कहें | हमें उनसे निवेदन करना पड़ेगा कि वे अधिक सकारात्मक बनें और परमेश्वर की सामर्थ और उसकी प्रतिज्ञाओं पर अधिक भरोसा रखें | इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हमें ऐसा करना पड़ेगा | परन्तु ये कार्य भी हमें उनके साथ एक या दो आँसू बहाने के बाद ही करना है | 

हमें दुःख में पड़े लोगों के साथ असंवेदनशील ढंग से बात नहीं करना चाहिए | नीतिवचन 25:20 कहता है, जैसा जाड़े के दिनों में किसी का वस्त्र उतारना वा सज्जी पर सिरका डालना होता है, वैसा ही उदास मन वाले के साम्हने गीत गाना होता है | जब कोई भारी वेदना से होकर गुजर रहा हो, तो हमें सावधान रहना चाहिए कि हम उनके दर्द को कहीं और न बढ़ा दें | यही ध्यान रखना है! 

कभी–कभी,  तकलीफ़ में पड़े लोगों के लिए मन में चिड़चिड़ापन आ जाता है | और अक्सर वह चिड़चिड़ाहट शब्दों के द्वारा बाहर आ जाता है | कल्पना करें कि तकलीफ़ में पड़े किसी व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार के और अतिरिक्त चोट को सहना कितना कष्टप्रद होगा! आपको अय्यूब के मित्र याद हैं? जो व्यक्ति पहले ही भयानक दर्द में था, उसके दर्द को उन्होंने और कितना अधिक बढ़ा दिया?

2. उसी समय पूर्ण छुटकारे का भरोसा मत दें | ऐसा मत कहें: परमेश्वर तुम्हें पूरी रीति से चंगा करेगा; तुम्हें एक बेहतर नौकरी मिलेगी; तुम्हें एक और बच्चा मिलेगा; तुम्हारी शादी हो जायेगी  इत्यादि | ऐसी प्रतिज्ञाएँ न करें जो परमेश्वर ने नहीं दी हैं | क्या परमेश्वर ये सारी चीजें कर सकता है? बिल्कुल! परन्तु क्या परमेश्वर ने हर परिस्थिति में ऐसा करने की प्रतिज्ञा दी है? नहीं! हम सर्वज्ञानी नहीं हैं | हम परमेश्वर के स्थान पर खड़े नहीं हो सकते और हमें ऐसा दुस्साहस करना भी नहीं है! 

हालाँकि दुःख में पड़े लोगों को बेहतर महसूस कराने का प्रयास करना और उन्हें बेहतर महसूस कराना एक सराहनीय कार्य है, तौभी यह भी मायने रखता है कि ऐसा कैसे किया जाता है | पवित्र शास्त्र की अवहेलना करते हुए झूठी प्रतिज्ञायें करके ऐसा करना किसी भी रीति से सही तरीका नहीं है | साथ ही यह भी ध्यान रखें कि यदि परमेश्वर पूर्ण चंगाई या बेहतर नौकरी न दे, तो फिर दुःख में पड़े उस व्यक्ति को और अधिक हताशा का सामना करना पड़ेगा | और यह उस दुखी व्यक्ति के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं होगा ! 

यह सच है कि पूर्ण छुटकारा आ रहा है–परन्तु यह तो भविष्य की बात है, जब यीशु मसीह वापस आयेंगे और अपना राज्य स्थापित करेंगे | हम उन्हें उस प्रतिज्ञा का भरोसा दिला सकते हैं | परन्तु तब तक, उनके वर्तमान जीवन में परमेश्वर की इच्छा को स्वीकार करने के लिए हमें उनकी सहायता करनी है, फिर चाहे इस इच्छा में दुःख भी सम्मिलित क्यों न हो | हम उन्हें उस दुःख के दौरान परमेश्वर की उपस्थिति का स्मरण दिला सकते हैं और उन्हें परमेश्वर की ओर ताकते रहने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं | 

3. उनके दुःख की तुलना दूसरों के दुखों से न करें | ऐसा होता है कि हम दुःख में पड़े व्यक्ति को बेहतर महसूस कराने के लिए दूसरों के दुखों को दिखाने का प्रयास करते हैं | हम कहते हैं, “तुम्हें एड़ी में दर्द हो रहा है | मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके एड़ी की हड्डी टूट गई है |” ये क्या है? इससे सुनने वाले को कैसा लगेगा? क्या उसे इस बात से खुश रहना चाहिए कि उसकी एड़ी की हड्डी नहीं टूटी और इस बात को ध्यान में रखते हुए उसे  अपने एड़ी के दर्द के बारे में बात नहीं करनी चाहिए? किसी भी व्यक्ति का दुःख उसके लिए उस समय कोई छोटी बात नहीं होती है | ऐसा कहना बेहतर होगा, “मुझे दुःख है कि आप इस दर्द से गुजर रहे हैं |”

4. उन पर दोष न लगायें |  एक बार फिर, अय्यूब के मित्र याद आ गये | कुछ ऐसी बातें, “तुम अपने पापों के कारण इस दुःख में हो”, हालाँकि, कभी–कभी यह सच हो सकता है, तौभी इसे अंतिम सत्य के रूप में नहीं बोलना चाहिए | हम परमेश्वर के स्थान पर खड़े नहीं हो सकते हैं | ऐसा करना अहंकार है | हाँ, कभी–कभी उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित करने के लिए एक या दो शब्द कहना उपयुक्त होगा कि वे अपने जीवन को परखें कि कहीं वे पाप में तो नहीं जी रहे हैं | परन्तु, यह भी तब ही करना चाहिए, जब हम पहले उनके दुःख में उनके साथ सच में भागीदार बन गये हों और उनका भरोसा जीत चुके हों | नीतिवचन 12:18 चेतावनी देता है, ऐसे लोग हैं जिनका बिना सोच विचार का बोलना तलवार की नाईं चुभता है, परन्तु बुद्धिमान के बोलने से लोग चंगे होते हैं | हमारे शब्द चंगाई लाने वाले होने चाहिए, दर्द पहुँचाने वाले नहीं |

5. उन्हें नजरअंदाज न करें | कई बार हमें समझ नहीं आता कि हम दुःख से होकर गुजर रहे लोगों को क्या कहें | इसलिए हम उन्हें इस डर से नजरअंदाज करने लग जाते हैं, कि कहीं हमारे किसी व्यवहार से उन्हें चोट न पहुँच जाए | या फिर हो सकता है कि हमें दुःख में पड़े लोगों के इर्द–गिर्द रहना पसंद ही न हो | दुःख में पड़े लोगों से मिलने से अत्याधिक निराशा होती है और मैं एक ऐसे माहौल से होकर नहीं जाना चाहता | यहाँ तक कि टी. वी. देखते समय भी कुछ दुखद समाचार आने पर हम शीघ्रता से चैनल बदलने का प्रयास करते हैं | अच्छा सामरी के दृष्टांत के लेवी और याजक के समान जो उस घायल यात्री को देखकर दूसरे रास्ते चले गये [लूका 10:31-32], हम भी दुःख को देखकर दूसरे रास्ते चले जाने का प्रयास करते हैं | हमें ऐसा करना, बंद करना ही होगा |  

इस प्रकार, रोने वालों के साथ रोने की परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने का प्रयास करते समय ऐसी पाँच बातें जो हमें नहीं करनी हैं : (1) उन्हें नहीं कहना है कि अब बस करो, (2) उसी समय पूर्ण छुटकारे का भरोसा मत दें, (3) उनके दुःख की तुलना दूसरों के दुखों से न करें, (4) उन पर दोष न लगायें, और (5) उन्हें नजरअंदाज न करें |

अगले लेख में हम देखेंगे कि जब रोने वालों के साथ रोने की इस आज्ञा की बारी आती है, तो हमें क्या करना है |

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