पापमय क्रोध और इसका कहर भाग 3: पापमय क्रोध का स्रोत क्या है?

Posted byHindi Editor January 21, 2025 Comments:0

यह लेख क्रोध के विषय या ठीक—ठीक कहें तो पापमय क्रोध के विषय को संबोधित करने वाली लेख—श्रृंखला के अंतर्गत भाग 3 है | भाग 1, पापमय क्रोध के बारे में एक सामान्य परिचय था, भाग 2 में इस प्रश्न पर विचार किया गया कि, ‘पापमय क्रोध क्या है?’ इस लेख में हम इस विषय से संबंधित प्रश्न #2 को देखेंगे: ‘पापमय क्रोध का स्रोत क्या है?’

II. पापमय क्रोध का स्रोत क्या है?

सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि क्रोध स्वयं में मूल कारण नहीं है—बल्कि यह तो किसी गंभीर समस्या का एक लक्षण है—एक पापमय ह्रदय की समस्या ! इस बात पर ध्यान दीजिए कि यीशु मसीह किसे पापमय क्रोध का स्रोत बताते हैं: 

मरकुस 7:21-23 21 क्योंकि भीतर से अर्थात मनुष्य के मन से, बुरी बुरी चिन्ता, व्यभिचार | 22 चोरी, हत्या, पर स्त्रीगमन, लोभ, दुष्टता, छल, लुचपन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं | 23 ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं |” 

पापमय क्रोध सहित समस्त बुरे कार्यों का स्रोत ह्रदय ही है | बाईबल के अनुसार, ह्रदय हमारा वह भाग है जिसमें हमारे विचार, भावनायें और इच्छाशक्ति सम्मिलित हैं | जब ह्रदय गलत अभिलाषाओं से भर जाता है और जब वे अभिलाषायें पूरी नहीं होती हैं, तो पापमय क्रोध जन्म लेता है | 

याकूब इस विचार का वर्णन और अधिक स्पष्टता से करता है:

याकूब 4:1-3 1 तुम में लड़ाईयाँ और झगड़े कहां से आ गये? क्या उन सुख-विलासों से नहीं जो तुम्हारे अंगों में लड़ते-भिड़ते हैं? 2 तुम लालसा रखते हो, और तुम्हें मिलता नहीं; तुम हत्या और डाह करते हो, ओर कुछ प्राप्त नहीं कर सकते; तुम झगड़ते और लड़ते हो; तुम्हें इसलिये नहीं मिलता, कि मांगते नहीं | 3 तुम मांगते हो और पाते नहीं, इसलिये कि बुरी इच्छा से मांगते हो, ताकि अपने भोग विलास में उड़ा दो |” 

दूसरे लोग या फिर शैतान आपके क्रोध के मूल कारण नहीं हैं—वे तो मात्र इसे भड़काते हैं! हालाँकि हमें हमारे क्रोध के लिए उनको दोष नहीं देना चाहिए परन्तु साथ ही साथ यह भी याद रखें कि [कई बार] इसे बढ़ावा देने के संबंध में उनकी भूमिका के बारे में अनभिज्ञ रहना मूर्खता ही होगा | इसीलिए यदि हम इस पाप पर विजय पाना चाहते हैं तो हमें शैतान का सामना करना चाहिए और इस बात की अनुमति हमें स्वयं को नहीं देनी चाहिए कि दूसरे लोग हमें भड़का सकें | परन्तु जिस कठिन बात से हमें व्यवहार करना होगा वह है हमारा ह्रदय—जो पापमय क्रोध का जड़ है | दुर्भाग्यवश, यहीं पर हम अक्सर असफल होते हैं | हम रोग के लक्षण [पापमय क्रोध] का इलाज करने का प्रयास करते हैं, रोग के कारण [ह्रदय की अभिलाषा] का नहीं | 

उदाहारण के लिए बात करें तो हम लगातार यह सहमति पाने के लिए संघर्ष करते रहते हैं कि हमारे जीवनसाथी या घनिष्ठ मित्र हमें अत्याधिक प्रेम करते हैं | दूसरे शब्दों में कहें तो, हमने एक ग्यारहवीं आज्ञा बना ली है, “तुम मुझे उस तरह से प्रेम करो जिस तरह से मैं चाहता हूँ, अपने सम्पूर्ण ह्रदय से, सम्पूर्ण मन से और सम्पूर्ण शक्ति से |”और जब हमें लगता है कि हमें उस तरह से प्रेम नहीं किया गया तो हम क्रोध के साथ प्रतिक्रिया दिखाते हैं | तो देखा आपने, अपेक्षायें कैसी शीघ्रता से माँगें—यहाँ तक कि आज्ञायें भी बन सकती हैं ! और इस प्रकार की एक मानसिकता हमें क्रोध के साथ फटने की ओर ले जाती है |

परन्तु, हम क्रोध से फटना नहीं चाहते हैं और बदलना चाहते हैं | अतः, हम आमतौर पर कुछ ऐसा करने का संकल्प लेते हैं: “अब से यदि दूसरे लोग मेरे प्रति प्रेम की पुष्टि नहीं करते हैं तो मैं क्रोधित नहीं होऊँगा | यदि मुझे महसूस हो कि मेरी अनदेखी हो रही है तो मैं क्रोधित नहीं होऊँगा |” इस प्रकार के संकल्प में यह खतरा है: वास्तविक समस्या को तो अब भी संबोधित किए बगैर ही छोड़ दिया गया है! क्रोध के स्रोत को स्पर्श ही नहीं किया गया है | हमने तो बस लक्षण के साथ व्यवहार किया है—कारण के साथ नहीं! 

मूल कारण के साथ व्यवहार करने के लिए हमें अवश्य ही गहराई में उतरना होगा और गंभीर प्रश्न पूछने होंगे , “मैं लगातार दूसरों से प्रेम की तलाश में क्यों रहता हूँ?” और जब हम ऐसा करेंगे तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँच पायेंगे कि प्रेम पाने की यह अभिलाषा स्वार्थता की एक मानसिकता से उत्पन्न होती है—स्वयं के प्रति एक अस्वस्थ प्रेम से! परन्तु जब हम बाईबल की इस सच्चाई को समझ जाते हैं कि परमेश्वर ने हमसे प्रेम किया है और वह हमारी दुर्दशा के बावजूद अब भी हमसे प्रेम करता है और यह कि हम मसीह यीशु में संपूर्णतः और सदैव स्वीकार्य हैं, तब हम दूसरों से इस प्रकार के प्रेम की अपेक्षा किए जाने के पाप को देख पायेंगे | 

फिर इस समस्या के सम्पूर्ण समाधान के लिए हम एक ऐसी स्वार्थी अभिलाषा को छोड़ेंगे और उसके स्थान पर हमारे लिए परमेश्वर के प्रेम पर लगातार धन्यवादित मन से विचार करने वाले बनेंगे | पवित्र सोच ने बदबूदार सोच का स्थान ले लिया है | इस प्रकार से, इस परिस्थिति में हमने क्रोध को जड़ से उखाड़ते हुए क्रोध की इस समस्या के साथ सही व्यवहार किया है | हमारे अन्दर पापमय क्रोध उत्पन्न कराने के लिए जिम्मेदार अन्य बातों के लिए भी हम इसी सिद्धांत का उपयोग कर सकते हैं | हम कितने ही बार तब क्रोधित हो जाते हैं, जब:

  • किसी ने उसी समय हमारे ई—मेल या फोन का जवाब नहीं दिया | हमारे पास एक 12 वीं आज्ञा है, “मेरे फोन या ई—मेल का जवाब देने से पहले तू सूर्य अस्त नहीं होने देना, बल्कि इस कार्य को तुम्हें आज ही करना चाहिए, उसी दिन जब यह “आज” कहलाता है | 
  • हमारी अनदेखी की जाती है, हमारा अपमान होता है या हमारे साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार होता है [यद्यपि बाईबल कहती है कि हमें तिरस्कार की अपेक्षा करनी चाहिए और तब भी एक क्षमाशील ह्रदय बनाये रखना चाहिए |]
  • हमारे सपने कुचल दिए जाते हैं [यद्यपि बाईबल हमें स्वयं का इनकार करने की आज्ञा देता है |] 

मुख्य बात यह है: पापमय क्रोध से व्यवहार करने के लिए यह आवश्यक है कि गहराई में उतरा जाए और समस्यारूपी वृक्ष की कुछ टहनियों को काँटने या कुछ पत्तियों को छाँटने के बजाय उसकी जड़ तक पहुँचा जाये | हमें यह स्मरण रखना आवश्यक है कि क्रोध हमेशा ही विशाल हिमखंड का ऊपरी हिस्सा मात्र है | चुनौती यह है कि उसके नीचे की सतह को देखा जाए | कई लोग लगातार क्रोध की समस्या से मुक्ति के लिए संघर्षरत ही रहते हैं क्योंकि वे असली मुद्दे तक जाते ही नहीं | और ऐसा क्यों? क्योंकि वे अपनी आतंरिक अभिलाषाओं को बदलने के कार्य को करना ही नहीं चाहते | वे केवल कुछ बाहरी परिवर्तन पर ध्यान—केन्द्रित करते हैं | 

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि पंप को सफ़ेद रंग से रंगने से पानी का रंग नहीं बदलेगा | दूसरे शब्दों में कहें तो बाहरी आदत—व्यवहार में सुधार मूल समस्या का समाधान नहीं दे सकता है | हमें अवश्य ही आतंरिक ह्रदय रूपांतरण पर ध्यान—केन्द्रित करना चाहिए [रोमियों 12:2] | यह संसार हमें केवल बाहरी बातों को परिवर्तित करना ही सीखा सकता है—इसके पास आतंरिक परिवर्तन के लिए संसाधन या सामर्थ नहीं है | केवल परमेश्वर ही अपनी आत्मा और अपने वचन  के माध्यम से हमें अन्दर से बाहर की ओर पूर्ण रूप से परिवर्तित करता है! इसीलिए जब बात आतंरिक परिवर्तन की आती है तो गलत उद्देश्यों और अभिलाषाओं को छोड़ देने मात्र से काम नहीं चलता है बल्कि उनके स्थान पर परमेश्वर को पसंद आने वाली अभिलाषाओं और उद्देश्यों को लाना होगा | यदि एक बार यह हो जाए तो बाहरी बातें अपना ख्याल स्वयं ही रख लेती हैं |

नीतिवचन 4:23 कहता है, “सबसे अधिक अपने मन की रक्षा कर क्योंकि जीवन का मूल स्रोत यही है |”

इस बात पर ध्यान दें कि कैसे ह्रदय सम्पूर्ण देह को नियंत्रित करता है [नीतिवचन 4:20-22, 24-26 भी देखिए |] समस्त कार्य ह्रदय से ही निकलते हैं | इसीलिए यह समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ह्रदय ही पापमय क्रोध का स्रोत है, और यदि हम इस पापमय क्रोध को नाश करना चाहते हैं तो हमें ह्रदय की अभिलाषाओं में एक परिवर्तन की तलाश में रहना चाहिए | इतना कहकर, अब हम अपने अगले लेख में इस प्रश्न को देखेंगे, “पापमय क्रोध के पात्र [objects] कौन हैं?”

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