धन्य – वचन: भाग 1 परिचय

(English version: “The Beatitudes – Introduction”)
संभवतः, प्रभु यीशु द्वारा प्रचार किए गये उपदेशों में सबसे प्रसिद्ध उपदेश वह है जिसे, “पहाड़ी उपदेश” के नाम से जाना जाता है | यह तीन अध्यायों तक विस्तारित है [मत्ती 5-7] | उस उपदेश का आरंभिक खण्ड मत्ती 5:3-12 में पाया जाता है, जिसे बहुधा धन्य–वचन [Beatitudes] के नाम से जाना जाता है, और यह खण्ड उन 8 मनोभावों की एक सूची देता है, जो उस प्रत्येक व्यक्ति में होना चाहिए, जो मसीह का अनुयायी होने का दावा करता है | हम उन 8 मनोभावों में से प्रत्येक को एक लेख—श्रृंखला के अंतर्गत विस्तृत रूप से देखेंगे, उस श्रृंखला का आरम्भ यहाँ इस परिचय लेख के माध्यम से हो रहा है |
परन्तु इससे पहले कि हम ऐसा करें, उस सम्पूर्ण खण्ड को पढ़ लेने से हमें सहायता मिलेगी |
मत्ती 5:3-12
“3 धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है | 4 धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पाएंगे | 5 धन्य हैं वे, जो नम्र हैं, क्योंकि वे पृथ्वी के अधिकारी होंगे | 6 धन्य हैं वे जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किये जाएंगे | 7 धन्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी | 8 धन्य हैं वे, जिन के मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे | 9 धन्य हैं वे, जो मेल करवाने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे | 10 धन्य हैं वे, जो धर्म के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है | 11 धन्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, और सताएं और झूठ बोल बोलकर तुम्हरो विरोध में सब प्रकार की बुरी बात कहें | 12 आनन्दित और मगन होना क्योंकि तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा फल है इसलिये कि उन्होंने उन भविष्यद्वक्ताओं को जो तुम से पहिले थे इसी रीति से सताया था ”|
जो लोग यीशु के बिना हैं, वे स्वाभाविक रूप से समस्त प्रकार की कमजोरियों से बचने का प्रयास करते हैं | परन्तु, मत्ती 5:3-12 में प्रभु यीशु के अनुसार ये कमजोरियाँ उन सब लोगों की जीवनशैली की पहचान होनी चाहिए जो उसका अनुसरण करने का दावा करते हैं | ऐसा क्यों? क्योंकि ऐसी ही एक जीवनशैली पर परमेश्वर की आशीषें आती हैं, ऐसी ही जीवनशैली को उसकी स्वीकृति मिलती है—यद्यपि यह एक ऐसी जीवनशैली है जिसे संसार ठट्ठों में उड़ाता है | दूसरे शब्दों में कहें तो यीशु मसीह हमें संस्कृति—विपरीत जीवनशैली [मुख्य–धारा से विपरीत जीवनशैली] के लिए बुलाहट देता है!
मत्ती 5:3-12 को बहुधा “धन्य—वचन”, शीर्षक दिया जाता है | इंग्लिश भाषा का यह शब्द [Beatitudes] लातिनी भाषा के एक शब्द “Beatus” [बेटस] से आता है जिसका अनुवाद करते हुए लिखा गया, “धन्य” | एक लेखक इन्हें ऐसे “सुन्दर मनोभाव” कहता है, जो यीशु मसीह के सच्चे अनुयायियों में होने चाहिए | मैं इस बात से सहमत हूँ ! और इस खण्ड में 8 मनोभाव सूचीबद्ध हैं—पद 10-12 उनमें से एक मनोभाव का वर्णन करता है—और वह मनोभाव है, सताव में स्थिर रहना—हालाँकि “धन्य” शब्द पद 10 और 11 दोनों स्थानों पर आता है |
यदि आप ध्यान दें तो आप पायेंगें कि इन मनोभावों को “धन्य” शब्द से चिन्हित किया गया है और “धन्य” शब्द 9 बार आया है | कुछ अनुवादों में इसे “आनंदित” या “सौभाग्यशाली” के रूप में अनुवादित किया गया है | तौभी ये दोनों अनुवादित शब्द संभवतः वैसा एक सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं जैसा चित्र “धन्य” शब्द प्रस्तुत करता है | क्यों? इसके दो कारण हैं |
कारण # 1 . “आनंदित” शब्द इस बात का संकेत देता है कि एक व्यक्ति कैसा महसूस करता है | वहीं दूसरी ओर धन्य शब्द इस बात का संकेत देता है कि उनके बारे में परमेश्वर क्या सोचता है | यह परमेश्वर द्वारा उस व्यक्ति को स्वीकार किया जाना है, जो मन में दीन होने, शोक करने और इसी प्रकार के अन्य गुणों का प्रदर्शन करता है | इसीलिए मैं “धन्य” शब्द को प्रयोग करना पसंद करता हूँ |
कारण # 2 . “आनंदित” या “आनंद” को हमारी संस्कृति में जिस तरह से समझा जाता है, उस कारण से भी मैं “धन्य” शब्द को पसंद करता हूँ | हमारी संस्कृति आनंद को ऐसे आनंदकारी अनुभवों के रूप में देखती है जो इस संसार की परिस्थितियों पर निर्भर हैं | जबकि वे लोग जिन्हें परमेश्वर ने आशीष दिया है अर्थात, वे जो उसके अनुमोदन को प्राप्त करते हैं, वे लोग खुश और आनंदित रहते हैं , और यह एक भिन्न प्रकार का आनंद है | यह संसार के द्वारा वर्णित आनंद से बिल्कुल अलग ही प्रकार का आनंद है | यह एक ऐसा अनुभव है जो परमेश्वर की प्रसन्नता और उन लोगों पर परमेश्वर के अनुमोदन के परिणामस्वरूप आता है—उन्हें इस बात से कोइ फर्क नहीं पड़ता कि वे किन परिस्थितियों का सामना करते हैं | यहाँ तक कि सताव और क्लेश के दौरान भी विश्वासीगण परमेश्वर द्वारा अनुमोदन प्राप्त करके एक सकारात्मक अवस्था में रहते हैं—और ऐसा उन परिस्थितियों में भी होता है जब उन्हें सांसारिक रूप से कोई खुशी महसूस नहीं होती है | इसीलिए मैं “धन्य” शब्द को प्रयोग करना पसंद करता हूँ |
अंत की बात यह है कि यदि हम समझ पाते हैं कि धन्यता या आनंद का सच्चा अर्थ क्या है, तो फिर यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह जाता कि हम “धन्य” शब्द का प्रयोग करते हैं या फिर “आनंदित” शब्द का |
धन्य – वचन खण्ड में, एक विशेष रूप – संरचना है | प्रत्येक धन्य – वचन के तीन घटक हैं | सबसे पहले, धन्यता की उद्घोषणा है [“धन्य”—मत्ती 5:3अ] | फिर, उस धन्यता के लिए किसी विशेष मनोभाव पर आधारित एक कारण है [“क्योंकि वे मन के दीन हैं”—मत्ती 5:3ब] | और अंत में ऐसे मनोभाव को दिखाने के लिए एक पुरस्कार है [“क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है”—मत्ती 5:3स] |
धन्य—वचन खण्ड का केन्द्रीय विषय यह है: “स्वर्ग के राज्य” की धन्यता की अनुभूति—वर्तमान में भी और फिर भविष्य में संपूर्ण प्रचुरता में | यह विषय “स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है”, वाक्यांश से मिलता है, यह वाक्यांश पद 3 और 10 के अंतिम भाग में पाया जाता है ! “उन्हीं का है”, से वर्तमान अधिकार का संकेत मिलता है |
तो आपने देखा, स्वर्ग के राज्य में एक वर्तमानकालीन तत्व है और एक भविष्यकालीन तत्व भी | जैसा कि परमेश्वर ने पुराना नियम में प्रतिज्ञा किया था, भविष्यकालीन तत्व उसके भौतिक राज्य की ओर संकेत करता है; जिसे यीशु मसीह तब स्थापित करेंगे, जब उनका धरती पर पुनरागमन होगा | तथापि, अभी भी, सच्चे विश्वासी—अर्थात वे विश्वासी जो राजा यीशु के प्रभुत्व या शासन के आधीनता में रहते हैं, कुछ विशेष आत्मिक आशीषों का अनुभव करते हैं |
इस बात को समझना महत्वपूर्ण है कि स्वर्ग के राज्य की आशीषें मात्र उनके लिए आरक्षित हैं, जो उद्धार का अनुभव करने और उसके कारण उनमें पवित्र आत्मा का निवास होने के परिणामस्वरूप, इन 8 मनोभावों को अपने दैनिक जीवन में प्रदर्शित करते हैं | इसका अर्थ यह नहीं है कि विश्वासी इन सभी मनोभावों का प्रदर्शन हर समय पूरी सिद्धता में करेंगे | मसीहियों में पवित्र आत्मा का स्थाई निवास होने के बाद भी विश्वासीगण इस जीवनशैली से चूक सकते हैं और दुःख की बात है कि ऐसा अक्सर होता है |
तौभी, इस जीवन शैली का अनुसरण करने का लक्ष्य, जिसका वर्णन न केवल धन्य—वचन खण्ड में अपितु सम्पूर्ण पहाड़ी उपदेश में किया गया है, उस प्रत्येक मसीही पर हावी हो जाना चाहिए [और अवश्य ही होना चाहिए] जो इस धरती पर राजा यीशु के शासन के आधीनता में रहता है | हालाँकि विश्वासीगण आसमान के इस ओर [धरती पर] इस लक्ष्य तक कभी पूर्णतया में नहीं पहुँच पायेंगे, तौभी उन्हें इस लक्ष्य का पीछा अवश्य ही सम्पूर्ण ह्रदय से करना चाहिए | स्व. हैडन रॉबिन्सन ने अपनी पुस्तक, “व्हाट जीसस सेड अबाऊट सक्सेसफुल लिविंग”, में बिल्कुल ठीक लिखा है, “परमेश्वर शिखर—स्थल से भी अधिक वहाँ तक पहुँचने की प्रक्रिया में रूचि रखता है | लक्ष्य के पीछे जाने का कार्य ही, इस कार्य का पुरस्कार बन जाता है |”
तो, इतना कहने के पश्चात, हम पहले धन्य—वचन को अगले लेख में देखेंगे! तब तक क्यों न आप प्रार्थनापूर्वक इस भाग का स्वयं ही अध्ययन करें और प्रभु से प्रार्थना करें कि वह न केवल आपमें इस प्रकार की जीवनशैली का निरंतर अनुसरण करने की इच्छा उत्पन्न करे बल्कि साथ ही ऐसा करने में आपको सक्षम भी बनाए?