संतोष से संबंधित 3 ग़लतफ़हमियाँ

Posted byHindi Editor June 20, 2023 Comments:0

(English version: 3 Misconceptions Concerning Contentment)

एक जवान लड़की ने, जिसके पिता को शिकायत करने की आदत थी, अपनी माँ से कहा, “मुझे इस परिवार में हर एक व्यक्ति की पसंद मालूम है| जॉनी को हैम्बर्गर्स पसंद है, जैनी को आईसक्रीम, विल्ली केला खाना पसंद करती है, और मम्मी को चिकन पसंद है|” अपना नाम न लिए जाने के कारण पिता चिड़चिड़ा उठा और उसने पूछा, “मेरे बारे में क्या ख्याल है ? मुझे क्या पसंद है ?” उस मासूम लड़की ने जवाब दिया, “आप को वो सब पसंद है जो हमारे पास नहीं है|” हालांकि हम इस बात पर हँस सकते हैं, तौभी यदि हम ईमानदारी से बात करें तो हममें से कई लोग – मसीही लोग भी, इस पिता के समान हैं| इस समस्या के होने का कारण यह है कि संतोष से संबंधित कई ग़लतफ़हमियाँ हैं| 

यह लेख इस विषय से संबंधित 3 सामान्य ग़लतफ़मियों और उनमें से प्रत्येक के प्रति बाईबल की प्रतिक्रिया पर रोशनी डालने का प्रयास करती है | 

ग़लतफ़हमी # 1. संतोष कोई इतना बड़ा मुद्दा भी नहीं है|

हम आमतौर पर, अपने जीवन में पसंद न आनेवाली बातों के प्रति, एक सामान्य मानवीय प्रतिक्रिया के रूप में अपने असंतोष को दिखाने का प्रयास करते हैं| आख़िरकार, मैं एक मनुष्य हूँ| कभी – कभी ना कहने की जरूरत पड़ती है|

बाईबल की प्रतिक्रिया: यदि परमेश्वर, असंतोष को एक “सामान्य” प्रतिक्रिया के रूप में देखता, तो वह संतोष करने के विषय में दी गयी निम्नांकित आज्ञाओं के समान, इतनी सारी आज्ञाएँ क्यों देता? अपनी कमाई में संतोष करो [लूका 3:14]| जो तुम्हारे पास है, उसी में संतोष किया करो [इब्रानियों 13:5] | हर प्रकार के लोभ से स्वयं को बचाए रखो [लूका 12:15] | विश्वासी होने के नाते हम इस बात को मानेंगे कि परमेश्वर की किसी भी आज्ञा को पालन करने से चूक जाना, एक पाप है | और चूंकि हम इस बात को मानते हैं, तो फिर क्या हमें संतोष करने में चूकने को भी एक पाप नहीं मानना चाहिए ? अतः, संतोष करना एक बड़ा मुद्दा है – ऐसा मुद्दा नहीं, जिसे हम क़ालीन के नीचे चुपचाप सरका दें |

और भी अधिक ध्यानपूर्वक देखने से अधिक स्पष्टता से पता चलता है कि परमेश्वर असंतोष को क्यों पाप ठहराता है | दो कारण, ध्यान में आते हैं |

a. असंतोष, परमेश्वर के सर्वाधिकार पर प्रहार करती है जब हम, हमारे जीवन में आनेवाली परिस्थितियों के प्रति असंतुष्टि दिखाते हैं, तो परमेश्वर को   हमारे साथ अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने का जो अधिकार है, हम उस अधिकार पर सवाल उठाते हैं | सृष्टि की हुई रचना द्वारा सृष्टिकर्ता से प्रश्न पूछना, हमेशा पापमय है |

b. असंतोष, परमेश्वर की भलाई पर प्रहार करती हैजब हम, हमारे जीवन में आनेवाली परिस्थितियों के प्रति असंतुष्टि दिखाते हैं, तो हम यह कहते हैं [हालाँकि शब्दों के द्वारा नहीं, परन्तु व्यवहार के द्वारा]: “परमेश्वर आप इस विशेष परिस्थिति में मेरे लिए भले [अच्छे] नहीं रहे हैं | यदि आप भले और प्रेम करने वाले हैं, तो आप मुझे वो क्यों नहीं दे रहे हैं जिसकी कामना मैं करता हूँ या मैं जिस बात को नापसंद करता हूँ, उस बात को मेरे जीवन से दूर क्यों नहीं करते ?” हालांकि परीक्षा के समय छुटकारे के लिए परमेश्वर को पुकारना पाप नहीं है, परन्तु परमेश्वर की भलाई पर ऊंगली उठाना पाप है | 

टिप्पणी: अपने आत्मिक जीवन से असंतुष्ट रहना अच्छी बात है, क्योंकि हम परमेश्वर के संतान होने के नाते अभी भी वैसे नहीं बन पाए हैं जैसा कि हमें होना चाहिए | दूसरे शब्दों में कहें तो, आपके पास जो है, उसमें संतोष करो, परन्तु जिस आत्मिक अवस्था में आप हो उस अवस्था पर कभी संतोष न करो | जब हम अपने चारों ओर अनियंत्रित पाप को देखें और देखें कि मसीह का नाम का किस प्रकार अनादर होता है, तब असंतुष्ट रहना भी अच्छी बात है | इन क्षेत्रों में असंतुष्ट अनुभव करना पाप नहीं है और यह एक मसीही की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होनी चाहिए |

ग़लतफ़हमी # 2. संतोष करना परिस्थितियों पर निर्भर करता है| 

कितने ही बार हम सोचते हैं कि बस यदि मेरे वर्तमान हालात बदल जाते तो कितना अच्छा होता | यदि हम अविवाहित हैं तो हम विवाह करना चाहते हैं; यदि विवाहित हैं तो कामना करते हैं कि काश हम अविवाहित ही रहते | यदि हम निसंतान हैं, तो हम संतान चाहते हैं; और चाहते हैं कि यदि हमारे बच्चे हों तो दोनों प्रकार के [लड़का और लड़की] हों | जब हमारे बच्चे हो जाते हैं तो हम चाहते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हों | यह सूची बड़ी लम्बी है |ह्रदय से निरंतर यही चीख सुनाई देती है, “मैं जिस परिस्थिति में हूँ, कोई भी परिस्थिति उससे बेहतर ही होगी” | एक रोचक उद्धरण इस सत्य को भली- भाँति चित्रित करती है, “मनुष्य, बिलकुल मूर्ख लगता है; जब कुछ गर्म हो, तो वह ठंडा चाहता है | जब कुछ ठंडा हो, तो वह गर्म चाहता है | जो नहीं है, हर समय वह वही चाहता है |” क्या यह व्यक्ति जान पहचान का मालूम पड़ता है?

एक मनुष्य के बारे में एक किसा बताया जाता है जो अपने मित्रों से ईर्ष्या रखता था, क्योंकि उनके घर बड़े और आलीशान थे | इसलिए उसने अपना घर बेचकर, अधिक आकर्षक घर लेने का विचार किया और ऐसा करने के लिए उसने अपने घर को जमीन खरीदने – बेचने का कार्य करने वाली एक कंपनी के पास पंजीकृत करवाया | थोड़े ही समय के पश्चात, जब वह समाचार पत्र में विज्ञापन वाले पृष्ठ को पढ़ रहा था तो उसे एक मकान का विज्ञापन दिखा, यह मकान वैसा ही था, जैसा वह चाहता था | उसने तुरंत ही एजेंट को फोन लगाया और कहा, “आज के समाचार पत्र में जिस मकान का विज्ञापन आया है, मैं ठीक वैसा ही मकान चाहता हूँ | मैं इसे जल्द से जल्द देखना चाहता हूँ !” एजेंट ने उससे इस संबंध में कई प्रश्न पूछे और फिर कहा, “परन्तु श्रीमान, जिस मकान को आप खरीदने की बात कर रहे हैं, वो तो आपका मकान है !”

बाईबल की प्रतिक्रिया : क्या आपको आदम और हव्वा की कहानी याद है ? वे एक ऐसे सिद्ध परिस्थितियों में रहते थे, जिसकी बस कल्पना की जा सकती है और उनके पास संसार की सारी वस्तुयें थीं, बस उस एक वृक्ष के सिवाय [उत्पत्ति 1:28; 2:15–16] | परमेश्वर ने प्रेम में होकर, उन्हें आनंद करने के लिए उदारतापूर्वक बहुत कुछ दिया | परन्तु इस बात पर ध्यान दीजिये कि शैतान ने उन्हें असंतुष्ट करने के लिए किस रीति से परखा, “क्या परमेश्वर ने सचमुच कहा है, ‘तुम इस वाटिका का कोई भी फल न खाना’?” [उत्पत्ति 3:1] | बाईबल में लिखा हुआ पहला प्रश्न शैतान के मुख से निकला, और यह परमेश्वर के वचन पर संदेह करने और उसकी भलाई पर संदेह करवाने के उद्देश्य के साथ डिजाइन किया हुआ एक प्रश्न था |   

शैतान जो प्रयास कर रहा था वह यह था: “तो, इस संसार की सारी चीजें तुम्हारे पास नहीं है, है तो बताओ ? क्या परमेश्वर बहुत कंजूस नहीं है | क्या वह तुम्हें अधिक आनंद, सुख और पूर्णता से वंचित नहीं रख रहा है ?” उसका लक्ष्य था – जो चीजें उनके पास थीं [उनके पास लगभग सब कुछ था], उनसे उनकी आँखों को हटाना और जो उनके पास नहीं थी [बस वह एक वृक्ष], उस पर ध्यान लगवाना | यही सब प्रकार के असंतोष का जड़ है : हमारे पास जो है, उसके स्थान पर जो नहीं है उस पर ध्यान लगाना !

दुःख की बात है कि आदम और हव्वा दोनों ही शैतान के मुख से निकले इस झूठ के शिकार बन गए – झूठ, कि यदि बस तुम्हारी परिस्थितियाँ बदल जायें, तो तुम पहले से अधिक आनंदित हो जाओगे ! परिणाम ? आनंद के स्थान पर उन्हें मुसीबतें मिलीं – परमेश्वर ने जैसा प्रतिज्ञा किया है, वैसा ही होगा – इससे यह बात सिद्ध होती है कि पाप और शैतान के द्वारा किए गए झूठी प्रतिज्ञाओं पर परमेश्वर का वचन हमेशा जय पायेगा |    

आईए, इस महत्वपूर्ण सबक को सीखें | यदि इस संसार की लगभग सारी वस्तुएं होने के बावजूद आदम और हव्वा को संतुष्टि नहीं मिली, तो फिर उन विचारों से सावधान रहिए जो झूठी प्रतिज्ञा करते हुए कहती हैं, “मैं संतुष्ट हो जाऊँगा, यदि मुझे केवल वह चीज मिल जाये जो अभी मेरे पास नहीं है |” इसी कारण हमें प्रभु से निरंतर यह प्रार्थना करनी चाहिए, “मेरी आँखों को व्यर्थ वस्तुओं की ओर से फेर दे; तू अपने मार्ग में मुझे जिला (भजनसंहिता 119:37) |

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि सच्चा संतोष बाहरी परिस्थितियों से नहीं आता है | यह आता है, भक्ति को हमारी प्राथमिकता और अनन्तता को हमारी सोच बनाने से | 1 तीमुथियुस 6:6 कहता है, “संतोष सहित भक्ति बड़ी कमाई है |”  और सब प्रकार की भक्ति का आरम्भ होता है, प्रभु यीशु मसीह के माध्यम से परमेश्वर पिता के साथ एक रिश्ते में जुड़ जाने से | इसलिए, यदि आप अब तक इस रिश्ते में नहीं जुड़े हैं तो फिर मन फिराते हुए और विश्वास करते हुए मसीह के पास आईए | अपनी सर्व – पर्याप्तता के रूप में उसका आलिंगन कीजिए |

ग़लतफ़हमी # 3 . एक मसीही के जीवन में संतोष स्वाभाविक रूप से ( अपने आप ) आ जाता है |

जब हम मसीही बनते हैं, तो हम तुरंत ही इस संसार की वस्तुओं से घृणा करना आरम्भ कर देते हैं और अपनी सारी संतुष्टि मसीह में पाने लगते हैं | हम फिर पापमय देह की लालसाओं के सम्मुख नहीं झुकेंगे | 

बाईबल की प्रतिक्रिया : काश ! यह सच होता | यह सच है कि एक विश्वासी बनने पर हमारे स्वभाव में एक बुनियादी परिवर्तन आता है | परन्तु, पवित्र आत्मा के प्रति निरंतर समर्पण रखना और पापमय देह की लालसाओं को “नहीं” कहना एक सतत संघर्ष है, सच है ना ? आईए प्रेरित पौलुस  के उदाहरण को देखें | रोम में बंदीगृह में रहते हुए फिलिप्पियों को लिखते हुए, उसने यह कहा, “मैंने यह सिखा है कि जिस दशा में हूँ; उसी में संतोष करूँ” [फिलिप्पियों 4:11] | क्या आप ने ध्यान दिया ? पौलुस को संतोष करना सीखना पड़ा | अगली आयत में वह इसी विचार को दोहराता है, “मैं दीन होना भी जानता हूँ और बढ़ना भी जानता हूँ | हर एक बात और सब दशाओं में मैंने तृप्त होना, भूखा रहना, और बढ़ना घटना सीखा है” [फिलिप्पियों 4:12] | इन दो आयतों में दो बार वह इस बात को बताता है कि उसने संतोष करना सीखा है | दूसरे शब्दों में कहें तो, उसके प्रभावशाली मनपरिवर्तन के पश्चात भी, उसके जीवन में,  “संतोष” अपने आप [स्वाभाविक रूप] से नहीं आ गया |

इससे हमें कुछ आशा मिलती है | संतोष अपने आप नहीं आता है – परन्तु इसे सीखने की आवश्यकता है | यह एक प्रक्रिया है | हम भी प्रेरित पौलुस की तरह ही – पवित्र आत्मा से सामर्थ पाकर, जो कि परमेश्वर के वचन और हमारी गंभीर प्रार्थना का इस्तेमाल करता है – संतोष करने के रहस्य को सीखने के लिए आवश्यक प्रयास कर सकते हैं | 

फिलिप्पियों 4:11 में जहाँ पौलुस यह बताता है कि कैसे उसने “संतोष करना सीखा”, वहाँ यूनानी भाषा में प्रयुक्त “संतोष” शब्द का अर्थ है, “स्व- पर्याप्त” या “संतुष्ट” | उस समयकाल के समाज में इस शब्द का इस्तेमाल एक ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता था, जिसने किसी बाहरी शक्ति की सहायता के बिना, अपनी आतंरिक मानुषिक सामर्थ का ही प्रयोग करते हुए जीवन के समस्त दबावों को शांति से सहा हो |  इसके विपरीत पौलुस इस बात को स्वीकार करता है कि उसकी स्व–पर्याप्तता मसीह की ओर से आती है, उसी मसीह से जो हर समय संतुष्ट रहने के लिए हर विश्वासी को हर वह चीज देता है, जिसकी आवश्यकता है |

यदि हम पौलुस से पूछते, “आपने हर परिस्थिति में, फिर चाहे वह कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो, संतुष्ट रहने के रहस्य को कैसे सीखा?” उसकी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार की होती, “मेरी पर्याप्तता उस मसीह की ओर से आती है, जो मुझे वह सब देता है जिसकी मुझे संतुष्ट रहने के लिए आवश्यकता है |” अगली आयत इस बात को स्पष्ट करती है |

फिलिप्पियों 4:13 में पौलुस के शब्दों पर ध्यान दीजिए, “जो मुझे सामर्थ देता है उसमें मैं सब कुछ कर सकता हूँ |” कुछ अनुवाद में ऐसा लिखा है, “मैं मसीह के द्वारा या उसके द्वारा जो मुझे बलवंत करता है सब कुछ कर सकता हूँ |” दुर्भाग्यवश, यह उन कई आयतों में से एक आयत है जिसकी बड़ी ही गलत व्याख्या की जाती है और कहा जाता है कि यदि एक व्यक्ति मसीह में अपने विश्वास को काम में लायें तो वह जो चाहे वह कर सकता है | परन्तु यह आयत यह बात तो बिलकुल ही नहीं सिखाती है | फिलिप्पियों 4:10–19 का सम्पूर्ण सन्दर्भ संतोष के संबंध में है |पौलुस कहता है कि परिस्थितियों से परे संतुष्ट रहने का उसका रहस्य मसीह से आने वाली उसकी पर्याप्तता पर आधारित है, मसीह जो हर समय संतुष्ट रहने के लिए उसे [और हमें] सारी आवश्यक वस्तुयें प्रदान करता है |

इसीलिए, मसीही समझ के अनुसार, “संतुष्ट रहने का अर्थ है, स्वयं के पास मसीह के होने के कारण पूर्णतः तृप्त रहना|” यदि हम संतुष्ट रहना चाहते हैं तो हमें यही बात सीखनी है | यदि हमारे पास मसीह है तो हमारे पास इस जीवन और आने वाले जीवन के लिए सब कुछ है | यदि हमारे पास मसीह नहीं है तो हमारे पास कुछ भी नहीं है –हमारे पास भौतिक वस्तुओं की भरपूरी होने के बावजूद |

समापन विचार .

मसीही होने के नाते हम अक्सर अपने घुटनों पर आकर परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं कि उसने हम जैसे अयोग्य पापियों को बचाया जो कि नर्क जाने के अतिरिक्त और कोई योग्यता नहीं रखते थे; इसके अलावा भी हम कई बातों के लिए धन्यवाद देते हैं | परन्तु, प्रार्थना समाप्त होने से भी पहले, हम परमेश्वर से कहते हैं कि उसे हमारे जीवन की उन बातों को कैसे ठीक करने की आवश्यकता है जो हमें गलत लगते हैं |  जिस क्षण हमारे साथ कुछ गलत होता है उसी क्षण हम सोचने लगते हैं, “परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य रहने के बावजूद मेरे साथ ऐसे कैसे हो सकता है ? जो लोग मुझसे अधिक पापी हैं उन लोगों को सारी अच्छी वस्तुयें क्यों मिलती हैं, और मेरे हिस्से में समस्या या अपूर्ण सपने आते हैं ?” यद्यपि हम दावा करते हैं कि हम ऐसे अयोग्य पापी हैं जो किसी भी प्रकार की भली वस्तु पाने के योग्य नहीं हैं, तौभी हममें यह अपेक्षा करने [यहाँ तक कि हमारे हक़ के रूप में माँगने] की प्रवृत्ति हो सकती है कि कुछ ख़ास आशीषें हमें मिलनी ही चाहिए | क्या हमें हमारा ढोंग दिखाई देता है ? 

1 तीमुथियुस 6:8 कहता है, “यदि हमारे पास खाने और पहिनने को हो, तो हमें इन्हीं पर संतोष करना चाहिए |” फिलिप्पियों 4:19 कहता है, “मेरा परमेश्वर भी अपने उस धन के अनुसार जो महिमा सहित मसीह यीशु में है, तुम्हारी हर एक घटी को पूरा करेगा |” इन आयतों से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि परमेश्वर सदैव हमारी आवश्यकताओं [लालसाओं या मांगों को नहीं] को पूरा करेगा | अपने जीवन में इस बात को लगातार स्मरण रखना संतुष्ट रहने में हमारी सहायता करेगा कि हम किसी भली वस्तु को पाने की योग्यता नहीं रखते हैं तौभी परमेश्वर सदैव हमारी आवश्यकताओं को पूरा करता है | इस प्रकार का दृष्टिकोण हमारे अहंकार को कुचलने में भी सहायक होता है [जो कि हमेशा एक अच्छी बात है] |

प्रिय विश्वासी, संभवत: आप शारीरिक रूप से बीमार हैं और संभवतः आपको कभी चंगाई न मिले | आप आर्थिक रूप से गरीब हैं और संभवतः भविष्य में भी, आपके पास ज्यादा कभी न हो | आप अपने कैरियर में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं और संभवतः कभी भी अधिक ऊंचाई तक न जा पायें | आप अविवाहित हैं और संभवतः जिन्दगी भर अविवाहित ही रहें | आप एक बीमार बच्चे के पालक हैं और संभवतः आपको जीवन – पर्यंत उसका ख्याल रखना पड़े | आपके परिवार में विकट स्थिति है, जहां आपका / आपकी जीवनसाथी और बच्चे आपसे कभी प्रेम न करें | इन सबके बावजूद, आप यह कहने के इच्छुक हैं : “प्रभु, मैं उन सारी चीजों को आनंदपूर्वक स्वीकार करने और उनमें पूर्णतः संतुष्ट रहने के लिए इच्छुक हूँ , जिन्हें आपने मुझे दिया है और जिन्हें आपने मुझसे दूर रखा है | मैं असंतुष्ट रहकर आपको शोकित करना नहीं चाहता हूँ | जिन परिस्थितियों में आपने मुझे प्रेमपूर्वक रखा है, उनमें से प्रत्येक में आपके नाम को महिमा दिलाने में मेरी सहायता करें |” यही है, सच्चे संतोष का सार !

आईए हमारे हिस्से में जो आया है उसे हम आनंदपूर्वक स्वीकार करना सीखें | जिन बातों को हम नकारात्मक समझते हैं, उन्हें लगातार स्मरण करते रहना असंतोष की आग में मात्र ईंधन देने का ही कार्य करेगा | कई बार हम अपने कष्टों को जोड़ने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हम अपनी आशीषों को गिनना भूल जाते हैं | फिलिप्पियों 4:8 के सिद्धांत को लागू करना, असंतोष की आत्मा का नाश करने और संतोष की आत्मा उत्पन्न करने का एक सर्वोत्तम तरीका है: इसलिए, हे भाइयों, जो-जो बातें सत्य हैं, और जो-जो बातें आदरणीय हैं, और जो-जो बातें उचित हैं, और जो-जो बातें पवित्र हैं, और जो-जो बातें सुहावनी हैं, और जो-जो बातें मनभावनी हैं, अर्थात्, जो भी सद्‍गुण और प्रशंसा की बातें हैं, उन्हीं पर ध्यान लगाया करो |” वह विश्वासी जो निरंतर प्रभु यीशु के साथ अपने रिश्ते पर और उन बातों पर विचार करते रहता है जिन्हें बाईबल सत्य, आदरणीय, उचित और पवित्र कहती है, वह सच्चे संतोष और आत्मा को शांति देनेवाले परमेश्वर की उपस्थिति का अनुभव करेगा [फिलिप्पियों 4:7, 9] |

हमें इस बात को स्मरण रखने की आवश्यकता है कि परमेश्वर कभी भी हमारी अवनति के लिए कोई कार्य नहीं करता है और न ही किसी कार्य की अनुमति देता है | सब कुछ हमेशा उसकी महिमा और हमारी सर्वश्रेष्ठ भलाई के लिए ही होता है | हाँ, हम अक्सर इस जिन्दगी के रहस्यों को नहीं समझ पाते हैं, और सच कहें तो यदि हम इस बात को समझ लें कि हमारा परमेश्वर हमारे जीवन से जुडी सारी बातों के ऊपर सर्वाधिकार रखता है और वह एक अच्छा [भला] परमेश्वर है, तो हमें जिन्दगी के रहस्यों को समझने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी | वह जानता है कि हमारे लिए सर्वोत्तम क्या है |  हमें तो बस उसमें विश्राम करने की आवश्यकता है | यदि हम पूरे मन से इन सच्चाईयों का आलिंगन करें, तो कल्पना करिए कि हमारे ह्रदय की अवस्था क्या होगी – सदैव संतुष्टि के अहसास के साथ विश्राम !

इफिसियों 1:3 कहता है कि हमें “स्वर्गीय स्थानों में सब प्रकार की आत्मिक आशीष” मिली है | कुलुस्सियों 2:10 कहता है, “[हम] उसी में [मसीह में] भरपूर हो गए हैं |” इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया इस विषय पर क्या कहती है कि हम कैसे दिखते हैं या हमारे पास क्या है और क्या नहीं, परमेश्वर कहता है कि हमें मसीह के साथ अपने रिश्ते के कारण उत्कृष्ट आशीषें मिली हैं और हम सम्पूर्ण [सिद्ध] हैं | वर्तमान में हमें किसी बात की कमी नहीं है और भविष्य में भी किसी बात की कमी नहीं होगी | परमेश्वर प्रतिज्ञा करता है, तुम्हारे बुढ़ापे में भी मैं वैसा ही बना रहूंगा और तुम्हारे बाल पकने के समय तक तुम्हें उठाए रहूंगा | मैं ने तुम्हें बनाया और तुम्हें लिए फिरता रहूँगा [यशायाह 46:4] | ऐसे सुन्दर आश्वासन के साथ क्या हम सदैव आनंद के साथ यह नहीं कह पायेंगे, “यहोवा मेरा चरवाहा है, मुझे कुछ घटी न होगी” [भजनसंहिता 23:1] ?

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