रूपांतरित जीवन, भाग 5—उत्साह के साथ प्रभु की सेवा करना

(English version: “The Transformed Life – Serving The Lord Enthusiastically”)
इस बात का एक प्रमाण कि किसी व्यक्ति को पवित्र आत्मा रूपांतरित कर रहा है, यह होता है कि वह व्यक्ति प्रभु की सेवा उत्साह से करता है |
विश्वासियों को, मन के नए हो जाने के कारण बदलते जाने की आज्ञा देने के पश्चात, पौलुस ने रोमियों 12:11 में यह आज्ञा दी, “प्रयत्न करने में आलसी न हो; आत्मिक उन्माद में भरो रहो; प्रभु की सेवा करते रहो |” पद 11 में इस्तेमाल किया गया, “आलसी”, शब्द, मत्ती 25:26 में भी इस्तेमाल हुआ है, जहाँ यीशु मसीह उस मनुष्य को डाँटते हैं, जिसे एक तोड़ा [सोना से भरा थैला] दिया गया, और जिसने जाकर उस एक तोड़े को जमीन में गाड़ दिया |पुराना नियम में भी परमेश्वर आलसी लोगों को डाँटता है | उदाहरण के लिए, हम नीतिवचन 6:9 में आलसी लोगों को कहे गए इन शब्दों को पाते हैं, “हे आलसी, तू कब तक सोता रहेगा? तेरी नींद कब टूटेगी?” यशायाह 56:10 में परमेश्वर ने, इस्राएल के आत्मिक अगुओं को उनकी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में असफल होने के कारण डाँटा | और डाँटे जाने का एक कारण, उनका आलस्य था | “उसके पहरूए अन्धे हैं, वे सब के सब अज्ञानी हैं, वे सब के सब गूंगे कुत्ते हैं जो भौंक नहीं सकते; वे स्वप्न देखने वाले हैं और लेटे रहकर सोते रहना चाहते हैं |” यिर्मयाह 48:10, इसी विचार को प्रतिध्वनित करता है, “शापित है वह, जो यहोवा का काम आलस्य से करता है!” परमेश्वर उन लोगों से प्रसन्न नहीं होता है जो उसकी सेवा एक लापरवाही और आलस्य के दृष्टिकोण से करते हैं |
नया नियम में, इब्रानियों 12:28-29 में भी इस बात को स्पष्ट किया गया है कि, इस बात से परमेश्वर को फ़र्क पड़ता है कि हम उसकी सेवा कैसे करते हैं, “28 इस कारण हम इस राज्य को पाकर जो हिलने का नहीं, उस अनुग्रह को हाथ से न जाने दें, जिस के द्वारा हम भक्ति, और भय सहित, परमेश्वर की ऐसी आराधना कर सकते हैं जिस से वह प्रसन्न होता है | 29 क्योंकि हमारा परमेश्वर भस्म करने वाली आग है |” इसीलिए हम सब के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम स्वयं से निरंतर पूछते रहें, “क्या प्रभु के लिए की गई मेरी आराधना या सेवा भय या श्रद्धा के साथ किया जाता है? क्या यह आभार, आनंद और उत्साह के भाव से किया जाता है? क्या यह एक ग्रहणयोग्य सेवा है?” हम ऐसा क्यों करें? क्योंकि परमेश्वर ऐसी माँग करता है!
रोमियों 12:11 में पौलुस वास्तव में यही कह रहा है: “जब प्रभु की सेवा की बात आये, तो आलस्य मत दिखाओ | इसे बड़े उत्साह के साथ करो |” इसमें परमेश्वर प्रदत्त आत्मिक वरदानों को दूसरों के लाभ के लिए अच्छे उपयोग में लाने [रोमियों 12:3-8] और इस प्रकार से परमेश्वर को महिमा देने की बात भी सम्मिलित है ! “उन्माद”, शब्द में “उबलने” या “उमड़ने” का विचार निहित है | हममें उसी प्रकार का उत्साह होना चाहिए, जिस प्रकार के उत्साह को पवित्र आत्मा सही ढंग से उभारता है | पौलुस यहाँ किसी विक्षिप्त आत्मिक सनक के बारे में बात नहीं कर रहा है | वह एक ऐसे आतंरिक दृष्टिकोण के बारे में बात कर रहा है, जिसका निर्माण उस मन [बुद्धि] के कारण हुआ है, जिसे बाईबल की सच्चाईयों की अच्छी जानकारी है और जिसने स्वयं को प्रभु की सेवा के लिए संपूर्णतः दे दिया है | यह उस प्रकार का हृदय है जो जानता है कि परमेश्वर का उस पर पूर्ण मालिकाना अधिकार है | “सेवा”, शब्द उस शब्द से आता है, जिस शब्द से हमें, “गुलाम [दास]” शब्द मिलता है | इसलिए पद 11 को इस तरह से अनुवाद करना भी बिल्कुल उचित होगा, “उत्साह से प्रभु की गुलामी करते रहो |” ‘गुलाम’ शब्द को यहाँ नकारात्मक अर्थ में नहीं समझा जाना चाहिए | बल्कि इसे इस रूप में समझा जाना चाहिए कि मसीह के लहू से खरीदे जाने के कारण परमेश्वर हमारा स्वामी बन गया है [1 कुरिन्थियों 6:20] | और यह स्वामित्व, पूर्ण स्वामीभक्ति की माँग करता है |
जब हम प्रभु की सेवा करते हैं तो हम वही कार्य कर रहे होते हैं जो हमें करना चाहिए | इसी बात को यीशु मसीह ने लूका 17:7-10 में सिखाया, “7 पर तुम में से ऐसा कौन है, जिस का दास हल जोतता, या भेंड़ें चराता हो, और जब वह खेत से आए, तो उस से कहे तुरन्त आकर भोजन करने बैठ? 8 और यह न कहे, कि मेरा खाना तैयार कर: और जब तक मैं खाऊं-पीऊं तब तक कमर बान्धकर मेरी सेवा कर; इस के बाद तू भी खा पी लेना | 9 क्या वह उस दास का आभार मानेगा, कि उस ने वे ही काम किए जिस की आज्ञा दी गई थी? 10 इसी रीति से तुम भी, जब उन सब कामों को कर चुको जिस की आज्ञा तुम्हें दी गई थी, तो कहा, हम निकम्मे दास हैं; कि जो हमें करना चाहिए था वही किया है |” यही दीन दृष्टिकोण हमारी पहचान होनी चाहिए; हम कहते रहें, “जो हमें करना चाहिए था, हमने केवल वही किया है” | हमें एक बड़ी पदवी मिली है, “यीशु मसीह के गुलाम [दास]”| गुलाम वही कार्य करते हैं, जिनकी आज्ञा उनके स्वामी से उन्हें मिलती है | स्वामी हमें उसकी सेवा उत्साह से करने की आज्ञा देते हैं |
इस बारे में लिखते हुए कि जब प्रभु की सेवा करनी की बात आती है, तो किस प्रकार का दृष्टिकोण हमारा होना चाहिए, श्रीमान डोनाल्ड व्हिटनी अपनी पुस्तक आत्मिक अनुशासन [Spiritual Disciplines] में लिखते हैं [पृष्ठ 129] |
आवश्यकता है: परमेश्वर के राज्य के स्थानीय निकाय में कठिन सेवकाई के लिए वरदान प्राप्त स्वयंसेवकों की आवश्यकता है | इस सेवा को करने की प्रेरणा, परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता, आभार, आनंद, क्षमा, दीनता और प्रेम के द्वारा मिलनी चाहिए | यह सेवकाई कदाचित ही महिमामण्डित दिखाई पड़ेगी | सेवा के स्थान को छोड़ने की परीक्षा कभी—कभी प्रबलता में होगी | स्वयंसेवकों को इन बातों के बावजूद विश्वासयोग्य रहना होगा कि उनका परिश्रम समय लंबा होगा, उनके परिश्रम के थोड़े ही परिणाम दिखाई पड़ेंगे या फिर परिणाम बिल्कुल भी दिखाई नहीं देंगे और संभवतः अनंतकाल में परमेश्वर के अतिरिक्त, वर्तमान में उन्हें और उनके कार्यों को कोई न पहचाने |
सार रूप में कहें तो श्रीमान व्हिटनी का कहना है: तुम्हारा कार्य चाहे कितना भी कठिन और तुम्हारे प्रयास कितने भी फलरहित प्रतीत क्यों न हो—तुम, परमेश्वर की सेवा विश्वासयोग्यता से करो!
हमें प्रभु की सेवा को मात्र कलीसिया संबंधी गतिविधियों तक ही सीमित नहीं रखना है | 1 कुरिन्थियों 10:31 में हमें कहा गया है, “सो तुम चाहे खाओ, चाहे पीओ, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्वर की महीमा के लिये करो |” हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें परमेश्वर की महिमा के लिए जीना चाहिए | हमें उसके लिए सातों दिन और चौबीसों घंटे जीवित बलिदान बनकर रहना है | अपने जीवन के समस्त क्षेत्रों में हमें निरंतर इस बात को स्मरण रखना है कि हमारे सारे कार्य उसी ढंग से किए जाने चाहिए मानों वे आख़िरकर प्रभु के लिए ही किए जा रहे हों | उदाहरण के लिए, कामकाज के संबंध में पौलुस ने इफिसुस के विश्वासियों को यह शिक्षा दी:
इफिसियों 6:5-8, “5 हे दासो, जो लोग शरीर के अनुसार तुम्हारे स्वामी हैं, अपने मन की सीधाई से डरते, और कांपते हुए, जैसे मसीह की, वैसे ही उन की भी आज्ञा मानो | 6 और मनुष्यों को प्रसन्न करने वालों की नाईं दिखाने के लिये सेवा न करो, पर मसीह के दासों की नाईं मन से परमेश्वर की इच्छा पर चलो | 7 और उस सेवा को मनुष्यों की नहीं, परन्तु प्रभु की जानकर सुइच्छा से करो | 8 क्योंकि तुम जानते हो, कि जो कोई जैसा अच्छा काम करेगा, चाहे दास हो, चाहे स्वतंत्र; प्रभु से वैसा ही पाएगा |”
अतः, कार्यस्थल में भी हमें प्रभु की सेवा उत्साह से करनी चाहिए, हालाँकि यह बाह्य रूप से मनुष्यों की सेवा हो सकती है |
जब सेवा की बात आती है, तो आखिर में हमें स्मरण रखना चाहिए कि इन बातों पर परमेश्वर का नियंत्रण है, कि हम कहाँ रखे गये हैं, किस प्रकार के कार्य के लिए हम बुलाये गये हैं और हमारी सेवा से किस प्रकार के परिणाम निकलेंगे | वारेन विअर्सबी अपनी पुस्तक व्हेन लाईफ फाल्स अपार्ट [When Life Falls Apart] में लिखते हैं [पृष्ठ 63]:
एक बार एक मिशनरी से किसी व्यक्ति ने पूछा, “आपने स्वयं को इस परित्यक्त स्थान में क्यों दफ़न कर लिया है?” मिशनरी ने ज़वाब दिया, “मैंने स्वयं को दफ़न नहीं किया है | मैं तो यहाँ पर एक पौधे के समान रोपा गया हूँ |” इस प्रकार का दृष्टिकोण ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है |
हमारे लिए आवश्यक है कि परमेश्वर ने हमें जिस स्थान पर कार्य करने के लिए रखा है, उस स्थान को हम सम्पूर्ण मन से स्वीकार करें और वहाँ पर उसकी सेवा उत्साह से करें | मैं जानता हूँ कि कई बार, हम निराश हो जाते हैं | निराशा के कई कारण हो सकते हैं | परमेश्वर के भविष्यद्वक्ताओं और प्रेरितों ने भी निराशाओं का सामना किया | हमें भी करना पड़ेगा ! तौभी, उन परिस्थितियों में भी, विश्वास के द्वारा, हमें निम्नलिखित 2 कार्य करते हुए, आगे बढ़ते रहने के लिए उससे सहायता माँगते रहने की आवश्यकता है |
1 . हमें परमेश्वर की दया पर विचार करते रहना चाहिए [रोमियों 12:1] |
2. हमें स्वयं को परमेश्वर की इस प्रतिज्ञा को स्मरण दिलाना चाहिए कि प्रभु में हमारा परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता है |
इस #2 की बात के समर्थन में, बाईबल के कुछ पद नीचे दिए गए हैं, जो हमें सेवा करने की बात आने पर जोश में बनाये रखेंगे:
1 कुरिन्थियों 15:58, “सो हे मेरे प्रिय भाइयो, दृढ़ और अटल रहो, और प्रभु के काम में सर्वदा बढ़ते जाओ, क्योंकि यह जानते हो, कि तुम्हारा परिश्रम प्रभु में व्यर्थ नहीं है |”
गलातियों 6:9-10, “9 हम भले काम करने में हियाव न छोड़े, क्योंकि यदि हम ढीले न हों, तो ठीक समय पर कटनी काटेंगे | 10 इसलिए जहाँ तक अवसर मिले हम सब के साथ भलाई करें; विशेष करके विश्वासी भाइयों के साथ |”
इब्रानियों 6:10-12, “10 क्योंकि परमेश्वर अन्यायी नहीं, कि तुम्हारे काम, और उस प्रेम को भूल जाए, जो तुम ने उसके नाम के लिये इस रीति से दिखाया, कि पवित्र लोगों की सेवा की, और कर भी रहे हो | 11 पर हम बहुत चाहते हैं, कि तुम में से हर एक जन अन्त तक पूरी आशा के लिये ऐसा ही प्रयत्न करता रहे | 12 ताकि तुम आलसी न हो जाओ; वरन उन का अनुकरण करो, जो विश्वास और धीरज के द्वारा प्रतिज्ञाओं के वारिस होते हैं |”
परमेश्वर का वचन हमारा प्रेरणास्रोत है | परमेश्वर के लोग जिन्होंने अपने जीवन को प्रभु की सेवा के लिए दे दिया है, वे भी हमें बड़ी प्रेरणा देते हैं | उन मसीही लोगों की आत्मकथाओं को पढ़ें जिन्होंने मसीह और उसके लोगों के लिए बड़े कष्टों के मध्य अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया और उतना करने के बाद भी उन लोगों को प्रभु की सेवा करने के अपने निर्णय पर कभी पछतावा नहीं हुआ | एक उदाहरण निम्नलिखित है:
विलियम बॅार्डेन ने सन 1904 में शिकागो में अपनी हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की | वह बॅार्डेन डेयरी स्टेट का अत्तराधिकारी था | हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी कर लेने पर, उसे विश्व—भ्रमण में जाने का एक असाधारण उपहार मिला | जिन लोगों ने उसे यह उपहार दिया था, उन्हें जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि यह उपहार उसके जीवन में क्या परिवर्तन लाएगा |
अपनी यात्रा के दौरान, संसार भर के गरीबों और मसीह की आवश्यकता में पड़े लोगों के लिए विलियम एक बोझ को महसूस करने लगा | उसने अपने घर एक पत्र लिखा, जिसमें उसने मसीह की सेवा एक मिशनरी के रूप में करने के लिए अपना जीवन समपर्ण करने की अपनी इच्छा को व्यक्त किया | यद्यपि उसके मित्रों और रिश्तेदारों ने इस बात पर विश्वास नहीं किया, परन्तु बॅार्डेन ने अपने बाईबल के अंतिम पृष्ठ पर तीन शब्द लिख लिया: “कोई संकोच नहीं |”
वह अमेरिका लौटा और येल विश्वविद्यालय में उसने दाखिला लिया | वह एक आदर्श विद्यार्थी था | यद्यपि अन्य लोगों ने सोचा था कि महाविद्यालय का जीवन, सेवा करने की विलियम की इच्छा को ख़त्म कर देगा, परन्तु इसने तो केवल इसे और भड़काने का कार्य किया |
उसने एक बाईबल अध्ययन आरम्भ किया और अपने प्रथम वर्ष के अंत में 150 विद्यार्थी वचन अध्ययन और प्रार्थना के लिए प्रति सप्ताह इकट्ठे होते थे | जब वह अंतिम वर्ष में पहुँचा, तब तक येल के तेरह सौ विद्यार्थी में से एक हजार विद्यार्थी “डिसाईपलशिप ग्रुप्स” में थे और वे साप्ताहिक बाईबल अध्ययन और प्रार्थना के लिए इकट्ठे होते थे |
उसने अपनी सुसमाचारीय प्रयास को केवल येल के प्रिस्टीन कैंपस के चारों ओर रहने वाले संभ्रांत लोगों तक ही सीमित नहीं रखा | उसका हृदय दुर्द्शाग्रस्त लोगों की ओर भी समान रूप से लगा हुआ था | उसने येल होप मिशन की स्थापना की | उसने कनेक्टिकट प्रांत के न्यू हेवन शहर के फुटपाथों में रहने वाले लोगों की सेवा की | उसने अनाथों, विधवाओं, बेघरों और भूखे लोगों को आशा और पनाह देते हुए मसीह की सेवा में हाथ बँटाया |
बाहर देश से आये हुए एक यात्री से यह पूछा गया कि उसके अमेरिका प्रवास के दौरान कौन सी बात ने उसे सर्वाधिक प्रभावित किया | उसने उत्तर दिया , “येल होप मिशन का वह दृश्य, जिसमें वह करोड़पति जवान एक फुटपाथ में रहने वाले भिखारी को आलिंगनबद्ध करते हुए अपने घुटने पर था |”
जब बॅार्डेन ने येल विश्वयविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी की, तो उसे कई लुभावने रोज़गार प्रस्ताव मिले | तौभी अपने कई मित्रों और रिश्तेदारों को निराश करते हुए, उसने सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया | फिर, उसने अपनी बाईबल के अंतिम पृष्ठ में तीन और शब्द लिखे , “कोई वापसी नहीं |”
उसने प्रिंसटन सेमिनरी [बाईबल सेमीनरी] में दाखिला लिया और पढ़ाई पूरी करने के पश्चात वह चीन जाने के लिए निकल पड़ा | मुस्लिम लोगों के मध्य मसीह की सेवा करने के अभिप्राय से वह अध्ययन करने और अरबी भाषा सीखने के लिए मिस्र देश में रूक गया | परन्तु , वहाँ रहते समय ही, वह स्पाईनल मेनीन्जिटिस [मेरूदण्ड तनिकाशोष] नामक खरतनाक बीमारी से ग्रस्त हो गया | वह केवल एक महीने तक ही जीवित रह पाया |
पच्चीस वर्ष की उम्र में, विलियम बॅार्डेन की मौत हो गई | मसीह को जानने और उसे दूसरों तक पहुँचाने की खातिर बॅार्डेन ने सब बातों को हानि समझा | उसने अपने पुरखों से उत्तराधिकार में मिले जीवन की व्यर्थता में प्रवेश करने से इंकार किया बल्कि उसके स्थान पर उसने यीशु मसीह के लहू के द्वारा मिले छुटकारे की महिमा को जीने का उसने प्रयास किया |
उसकी मृत्यु के पश्चात, जब उसका बाईबल मिला, तो पाया गया कि उसने अंतिम पृष्ठ पर तीन और शब्द जोड़ रखे थे: “कोई पछतावा नहीं |”
जो अपने छुटकारे की कीमत जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि जिसने उन्हें छुड़ाया है, उसके लिए समर्पित एक जीवन, ऐसा जीवन है, जिसमें कोई पछतावा नहीं है…विलियम बॅार्डेन ने उसके साथ जाने का निश्चय किया, जिसने उसने छुड़ाया था | [एन्थोनी कार्टर की पुस्तक ‘ब्लड वर्क’ से उद्धृत] |
मैं इस बात को समझता हूँ कि परमेश्वर हममें से प्रत्येक को बॅार्डेन की सेवकाई के समान एक सेवकाई के लिए नहीं बुलाता है | परन्तु मुख्य विचार यह है: हमें सेवा करने के लिए जिस क्षेत्र में भी वह बुलाये, उस क्षेत्र में हमें उसकी सेवा अवश्य ही उत्साह के साथ करनी चाहिए! अंत में , हमारे जीवन को यीशु की सेवा में सम्पूर्णतः न्यौछावर कर देना, एक ऐसा जीवन है जिसमें कोई पछतावा नहीं और अपने आपको अर्पित कर देने की यह प्रेरणा हमें उस दया से मिलती है, जो हमने परमेश्वर से प्राप्त की है | इसीलिए पौलुस ने, यीशु मसीह को हमारा सर्वस्व अर्पण करने की प्रेरणा के रूप में “दया” का उल्लेख करते हुए रोमियों 12:1 का आरम्भ किया | परमेश्वर की दया हमें प्रभु की सेवा के लिए स्वयं को संपूर्णतः अर्पित कर देने हेतु प्रेरित करनी चाहिए, क्योंकि “परमेश्वर की दया” ही समस्त आत्मिक सेवकाईयों का आधार है |
क्या आपने यह दया पाई है? यदि नहीं, तो फिर देर किस बात की है? सच्चे पश्चाताप और विश्वास में होकर यीशु के पास जाईए और उससे विनती करिए कि वह आपको उद्धार करने वाली अपनी दया प्रदान करे | वह मारा गया और पुनः जी उठा ताकि वे सब जो उसे देखें [उस पर विश्वास करें], वे अपने पापों की पूर्ण क्षमा पा सकें | इतनी महान है, उसकी दया!