यीशु के क्रूस–संबंधित 3 दुःख: शारीरिक, आत्मिक और भावनात्मक

(English version: 3 Cross-Related Sufferings of Jesus – Physical, Spiritual and Emotional)
प्रभु यीशु का सम्पूर्ण पार्थिव जीवन ही दुःख का जीवन था | परन्तु यह लेख उसके उन 3 प्रकार के दुखों पर ध्यान–केन्द्रित करता है; जिन्हें उसने अपना लहू बहाने के द्वारा हमारे छुटकारे को सुरक्षित करते समय क्रूस पर या क्रूस से ठीक पहले सहा | और वे 3 प्रकार के दुःख थे: शारीरिक, आत्मिक और भावनात्मक |
1. शारीरिक दुःख
बाईबल पर विश्वास करने वाले लोगों में यीशु के शारीरिक दुखों के बारे में अधिक चर्चा न करने की प्रवृत्ति होती है | मेरे अनुसार इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं |
कारण # 1. स्वयं बाईबल ही क्रूसीकरण की विधि–प्रणाली पर अधिक विवरण नहीं देती है, बल्कि सरल तरीके से बताती है, “उनहोंने उसे क्रूस पर चढ़ाया” [मरकुस 15:24] | अब चूँकि परमेश्वर स्वयं ही बाईबल में दण्ड के इस रूप का अधिक विवरण नहीं देता है, इसीलिए हम इसकी अनदेखी करने का प्रयास करते हैं |
कारण # 2. हालाँकि, निश्चित रूप से यीशु के शारीरिक दुःख बड़े भयानक थे, तौभी ये अद्वितीय नहीं थे क्योंकि उस समय इस दण्ड को पाने वाले दूसरे मनुष्य भी उसी प्रकार के अनुभव से गुजरते थे | इसीलिए, हम क्रूसीकरण के विवरण की अनदेखी करने का प्रयास करते हैं |
परन्तु मैं सोचता हूँ कि क्रूसीकरण के निर्मम प्रकृति के विवरण को समझने के लिए कुछ मिनट निकालना हमारे लिए लाभकारी होगा, क्योंकि उसी निर्मम प्रकृति से यीशु को मौत दी गई थी |
यीशु के समय से लगभग 600 वर्ष पूर्व फारसी लोग क्रूस पर चढ़ाने के द्वारा मृत्युदण्ड दिया करते थे | बाद में यूनानियों ने भी इसका अभ्यास किया | परन्तु रोमी लोग इसे पूर्णतः एक नये स्तर पर ले गये | उन्होंने क्रूसीकरण को सर्वाधिक दुर्दांत अपराधियों के लिए दण्ड के रूप में सुरक्षित रखा | ऐसा लोगों को यह सन्देश देने के लिए किया गया था: यदि तुम रोम के खिलाफ़ जाओगे तो तुम्हारे साथ कुछ ऐसा ही होगा! इसीलिए रोमी प्रशासन लोगों को क्रूस पर बिल्कुल उसी स्थान पर चढ़ाता था जहाँ से होकर बहुत लोग यात्रा करते थे | जब यात्री क्रूस पर चढ़े लोगों को तड़पते हुए देखते थे [कई बार तो क्रूस पर चढ़े लोग कई दिनों तक तड़पते रहते थे] तो उन्हें स्पष्ट चेतावनी मिलती थी: क्या तुम रोम के खिलाफ़ जाने की हिम्मत करोगे!
क्रूसीकरण की प्रक्रिया
इस कार्य के लिए प्राथमिक रूप से दो लकड़ी के लट्ठों और तीन कीलों की जरूरत पड़ती थी | दोनों लकड़ी के लट्ठों को उस रूप में नहीं जोड़ा जाता था जैसा कि क्रूस को अक्सर चित्रों में दिखाया जाता है [†] , बल्कि यह जोड़े जाने पर इंग्लिश अक्षर T के समान दिखाई पड़ता था |आड़े लट्ठे को लेटिन भाषा में Patibulum [पैटीबुलम] और खड़े लट्ठे या खंभे को Stipes [स्टाईप्स] कहा जाता था |
इस प्रक्रिया में सबसे पहले अपराधी को कम लम्बाई वाले चमड़े की पट्टियों वाले कोड़े से मारा जाता था, इन पट्टियों में धातु या हड्डियों के टुकड़े लगे होते थे और ये पट्टियाँ ठोस लकड़ी के एक मूठ [हैंडल] से जुड़ी हुई होती थीं | कोड़े से मारे जाने मात्र से ही किसी व्यक्ति की जान जा सकती थी या वह स्थाई रूप से विकलांग हो सकता था क्योंकि कोड़े की मार पीठ और बगल के हिस्सों के माँस को खींचकर निकाल लेती थी | फिर उस पीड़ित व्यक्ति को क्रूस के आड़े लट्ठे [Patibulum पैटीबुलम] को नगर से होते हुए क्रूसीकरण के स्थान की ओर ले जाने के लिए बाध्य किया जाता था | अपना क्रूस उठाने का यह अर्थ है–मरने के लिए तैयार हो जाना | यह एकमार्गी यात्रा थी–लौट जाने की कोई गुंजाईश नहीं ! मसीह के विषय में बात करें तो उसे इतनी बुरी तरह से कोड़े मारे गये थे कि नियत स्थान तक अपने क्रूस को उठाकर ले जाने की ताकत भी उसमें नहीं बची थी [मरकुस 15:21] |
और जब पीड़ित व्यक्ति क्रूसीकरण के स्थान पर पहुँच जाता था, तो क्रूस के आड़े लट्ठे [Patibulum पैटीबुलम] को खड़े लट्ठे या खंभे [Stipes स्टाईप्स] के ऊपरी हिस्से पर जोड़ दिया जाता था | दोनों में से एक लट्ठे में एक बड़ा छेद होता था और दूसरे में एक चौकोर खूँटा ताकि वे आगे के उपयोग के लिए आसानी से जोड़े और निकाले जा सकें | फिर दोनों लट्ठों को जोड़कर बनाया हुआ क्रूस जमीन पर समतल लिटा दिया जाता था | फिर उस पीड़ित व्यक्ति के सारे कपड़े उतार दिए जाते थे और यह उस पर और अधिक लज्जा को लेकर आता था |
कई बार, दर्द के प्रभाव को सुन्न करने के लिए पीड़ित को कोई मादक द्रव्य पीने के लिए दिया जाता था | ऐसा उस पीड़ित के प्रति दयालुता के कारण नहीं किया जाता था | परन्तु ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि पीड़ित व्यक्ति अधिक प्रतिरोध न करे और सैनिकों का काम अधिक कठिन न बन जाये | फिर उस पीड़ित को उसकी ख़ून से लथपथ नंगी पीठ के बल क्रूस पर लिटा दिया जाता था, उसकी पीठ क्रूस की लकड़ी से रगड़ खाते रहती थी | क्रूस पर पीड़ित को रखे जाने का यह कार्य अपने आप में ही कष्टदायक होता था |
पीड़ित को फिर रस्सी से बांधा जाता था या फिर उसे कीलों से ठोका जाता था, सब कुछ इस बात पर निर्भर करता था कि सैनिक उसे कितने समय तक कष्ट देना चाहते थे | यीशु मसीह की बात करें तो स्पष्ट था कि उन्हें कीलों से ठोका गया था [यूहन्ना 20:24-27] | पीड़ित के हाथ फैलाये जाते थे और उन्हें आड़े लट्ठे पर कीलों से ठोक दिया जाता था–एक हाथ पर एक कील | कीलों को कलाई पर ठोका जाता था, हथेली पर नहीं [जैसा कि चित्रों में अक्सर त्रुटिपूर्ण रूप से दिखाया जाता है] | इस प्रकार से वे कीलें माँस से निकलती नहीं थीं और पीड़ित व्यक्ति के हाथ क्रूस पर झूलते हुए नीचे नहीं आते थे | फिर तीसरी कील दोनों पैरों से होते हुए ठोकी जाती थी [पंजों के जोड़ के पास] | इस प्रकार से पैर उस खड़े लट्ठे पर टिके रहते थे | उस दोषी व्यक्ति के अपराध–विशेष को एक तख्ती पर लिखकर क्रूस पर टाँग दिया जाता था | यह इसलिए किया जाता था ताकि वहाँ से गुजरने वाले जान सकें कि वह व्यक्ति किस अपराध के लिए वहाँ चढ़ाया गया था |
फिर सैनिक क्रूस को उठाते थे और उसे सीधा खड़ा रखने के लिए एक बड़े गढ्ढे में डाल देते थे | गढ्ढे में डालते समय लगने वाले झटके मात्र से ही अत्यंत कष्टदायक पीड़ा होती थी–मानो सिर फट जाने पर हो | और फिर शुरू होता था अकल्पनीय और भयावह दर्द का सिलसिला, जो कई घंटों या कई बार कई दिनों तक चलता था! बाहें सुन्न पड़ जाते थे और ऐसा लगता था मानो कंधे जोड़ से उखड़ गये हों | वक्ष–गुहा, ऊपर और बाहर की तरफ खींच जाता था जिससे साँस छोड़ने में दिक्कत होती थी जिसके फलस्वरूप ताजी साँस लेने में भी समस्या होती थी |
तब साँस लेने के लिए पीड़ित व्यक्ति स्वाभाविक रूप से स्वयं को अपने पैरों के सहारे ऊपर की ओर धकेलता था | हालाँकि इससे उसे साँस लेने में सहायता मिलती थी परन्तु यह अत्याधिक दर्दनाक भी होता था | ऐसा क्यों? क्योंकि ऐसा करते समय शरीर के वजन को पैरों में ठुके हुए कील पर डालना होता था, कुहनियों को मोड़ना होता था और कलाई में ठुकी हुई कीलों के सहारे ऊपर उठना होता था | यह नसों में भी भयावह दर्द का कारण बनता था–ऐसा दर्द मानो कोई आग से होकर जा रहा हो |
और जितनी बार साँस लिया जाएगा उतनी ही बार पीड़ित व्यक्ति को कोड़े की मार से उधड़ चुकी पीठ में भी दर्द होगा क्योंकि उसकी पीठ क्रूस की लकड़ी से रगड़ती रहेगी | और जब पैर कमजोर पड़ते थे, उनमें खिंचाव आता था और वे काँपने लगते थे, तब पीड़ित व्यक्ति थोड़ी राहत पाने के लिए अपनी पीठ को पीछे की तरफ धनुषाकार में मोड़ता था | शरीर की स्थिति को इस तरह से लगातार बदलते रहना ही बाँहों, सीना, पीठ और पैरों के दर्द से लड़ने का एकमात्र तरीका था | और इसी बीच जीवित रहने की इच्छा उस पीड़ित व्यक्ति को दर्द से कराहते रहने के कार्य में लगाए रखती थी | यह तब तक चलता रहटा था, जब तक वह बहुत अधिक थक न जाए, उसके शरीर में पानी की अत्याधिक कमी न हो जाए और अगली साँस लेने के लिए शारीरिक रूप से अत्याधिक कमजोर न हो जाये | अंततः कई घण्टों या कभी–कभी कई दिनों के बाद मौत हो जाती थी और मौत आम तौर पर दम घुटने के कारण होती थी, खून का अत्याधिक बह जाना इसका अनिवार्य कारण नहीं होता था |
तो यह है उस शारीरिक दुःख की एक झलक जिससे होकर आपके और मेरे पापों के लिए हमारा प्रभु गुजरा | प्रभु यीशु के दुःख के शारीरिक पहलू को देखने के पश्चात आईए अब उसके दुःख के दूसरे पहलू को देखें |
2. आत्मिक दुःख
शारीरिक दुःख जितना भयानक था [और एकदम खौफ़नाक], आत्मिक दुःख हमारे प्रभु के लिए उससे कहीं अधिक कठिन था | ऐसा क्यों? क्योंकि, जैसा कि किसी लेखक ने लिखा है, “यीशु ने क्रूस पर ‘हमारे [समस्त] पापों के अपराधबोध को सहने के कारण होने वाले मानसिक दुःख’ का अनुभव किया” |
कई बार जब हम इस बात को देख पाते हैं कि हमने पाप किया है तो हममें भी भयानकअपराधबोध की भावना आ जाती है | हमारा ह्रदय अपराधबोध के भार से दब जाता है | हम तो पापी हैं, हमने तो अभी शुरुआत ही की है, और यदि हमें इतना दुःख होता है तो कल्पना करें कि हमारे प्रभु को कितना दुःख हुआ होगा, उस प्रभु को जिसने कभी पाप नहीं किया! इस धरती पर उसने सिद्ध पवित्रता का जीवन बिताया | कोई पापमय बातें नहीं | कोई पापमय कार्य नहीं | यहाँ तक कि एक भी बुरे विचार भी नहीं! वह पाप से घृणा करता था, और यहाँ तक कि पाप के बारे में विचार करते ही वह उसी क्षण पाप के विरुद्ध कार्य करने के लिए प्रेरित हो जाता था | तौभी, वो सब कुछ जिससे उसे घृणा थी, वो सब कुछ जो उसमें नहीं था, वो सब कुछ पूरी रीति से उस पर उण्डेल दिया गया | दूसरे शब्दों में कहें तो, हमारे सारे पाप पूरी रीति से उस पर उण्डेल दिए गये | बाईबल इस बात को पूर्णतः स्पष्ट करती है |
यशायाह 53:6 “यहोवा ने हम सभों के अधर्म का बोझ उसी पर लाद दिया |”
यशायाह 53:12 “उसने बहुतों के पाप का बोझ उठा लिया |”
यूहन्ना 1:29 “देखो, यह परमेश्वर का मेम्ना है, जो जगत के पाप उठा ले जाता है |”
2 कुरिन्थियों 5:21 “जो पाप से अज्ञात था, उसी को [अर्थात, यीशु को] उस ने [अर्थात, परमेश्वर ने] हमारे लिये पाप ठहराया [यहाँ पर ‘पाप’ के स्थान पर ‘पापबलि’ एक बेहतर अनुवाद होगा] |”
इब्रानियों 9:28 “मसीह भी बहुतों के पापों को उठा लेने के लिये एक बार बलिदान हुआ |”
1 पतरस 2:24 “वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिए हुए क्रूस पर चढ़ गया |”
इन आयतों का तात्पर्य यह नहीं है कि यीशु क्रूस पर एक पापी बन गये | उसने कभी पाप नहीं किया [यूहन्ना 8:46; 1 पतरस 2:22] | उसके साथ ऐसा व्यवहार किया गया मानो उसने उन पापों को किया हो, जिसके फलस्वरूप वह दण्ड का पात्र बना | और इसके परिणामस्वरूप जो उस पर विश्वास करते हैं उन सबको उनके पापों की क्षमा मिल सकती है | ऐसा कैसे? क्योंकि उनके स्थान पर स्वयं यीशु ने दुःख उठाया और उनकी स्वतंत्रता के लिए अपने लहू से दाम चुकाया|
यीशु ने स्वयं कहा, “जैसा कि मनुष्य का पुत्र, वह इसलिये नहीं आया कि उस की सेवा टहल करी जाए, परन्तु इसलिए आया कि आप सेवा टहल करे और बहुतों की छुडौती के लिये अपने प्राण दे” [मत्ती 20:28] | छुड़ौती दाम चुकाये जाने की ओर संकेत करता है–हमारे पापों के लिए उसका लहू | यह छुटकारे के सिद्धांत में प्रयुक्त शब्दावली है | क्रूस पर अपना लहू बहाने के द्वारा यीशु ने न केवल हमारे पापों के अपराध–बोध को सहा पर हमारे स्थानापन्न के रूप में उसने पाप के विरुद्ध परमेश्वर के समस्त क्रोध को भी सहा |
1 यूहन्ना 2:2 “वही हमारे पापों का प्रायश्चित्त है |”
रोमियों 3:25 “उसे परमेश्वर ने उसके लोहू के कारण एक ऐसा प्रायश्चित्त ठहराया, जो विश्वास करने से कार्यकारी होता है |”
और क्रूस पर पापों के लिए परमेश्वर के क्रोध को सहने के द्वारा यीशु ने यह प्रावधान किया कि जो उस पर भरोसा रखें अर्थात् जो उस पर विश्वास करें, वे अपने पापों के लिए परमेश्वर के क्रोध का सामना कभी नहीं करेंगे | तो यह है उस आत्मिक दुःख की एक झलक जिसे आपके और मेरे पापों के लिए हमारे प्रभु ने क्रूस पर सहा |
प्रभु यीशु के दुःख के शारीरिक और आत्मिक पहलू को देखने के पश्चात आईए अब संक्षेप में क्रूस पर के उसके दुःख के तीसरे और अंतिम पहलू को देखें–भावनात्मक दुःख |
3. भावनात्मक दुःख
भावनात्मक दुःख से मेरा तात्पर्य परित्याग की उस भावना से है जिसका अनुभव यीशु ने क्रूस पर किया | सब ने उसे त्याग दिया था | कल्पना करें कि आप अपने जीवन में एक कठिन दौर से गुजर रहे हैं | क्या आप ऐसे समय में चाहेंगे कि आपका जीवनसाथी, आपके बच्चे और यहाँ तक कि आपके मित्र भी आपको त्याग दें और आप अकेले रह जायें? या फिर आप चाहेंगे कि आपके साथ कोई रहे? उत्तर तो एकदम स्पष्ट है | मुश्किल परीक्षा के समय एक व्यक्ति का समीप रहना भी एक बड़ी आशीष लगती है | परन्तु किसी मनुष्य के लिए दुःख की जो उच्चतम सीमा हो सकती है उस प्रकार के महादुख से गुजरने के दौरान यीशु को बिल्कुल ही अकेला छोड़ दिया गया!
सर्वप्रथम तो उसे उसके घनिष्ठ मित्रों ने त्याग दिया था–11 प्रेरितों ने | वह पहले ही यहूदा के विश्वासघात के दर्द को झेल चुका था | और जिन 11 प्रेरितों ने उसके साथ रहने का वादा किया था, उन्होंने उसके पकड़े जाने के समय उसे त्याग दिया | फिर, उसने भावनात्मक दुःख की पराकाष्ठा को सहा–जब परमेश्वर पिता ने उसे त्याग दिया | क्रूस पर जब यीशु ने हमारे पापों को अपने ऊपर लिया तो पिता और पुत्र के मध्य की सिद्ध संगति [रिश्ता नहीं] जो उस समय विशेष से पहले समस्त अनन्तकाल से चली आ रही थी, अस्थाई रूप से टूट गई–विशेष रूप से दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक | यह वह समय था जब परमेश्वर अपने क्रोध को अपने पुत्र पर उण्डेल रहा था, और पुत्र ने उस क्रोध को अकेले ही सहा |
वास्तव में वह भावनात्मक दुःख इतना अधिक था कि यीशु उस सुपरिचित पुकार को पुकारने के लिए प्रेरित हुए, “हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?” [मत्ती 27:46] | जब हम इन शब्दों को पढ़ते हैं तो हमें एक छोटी सी झलक मिल सकती है कि मेरे और आपके पापों के लिए यीशु ने कितने गहरे दुःख और भावनात्मक वेदना को सहा |
तो हमने उन शारीरिक, आत्मिक और भावनात्मक दुख को देखा जिसे यीशु ने हमें छुड़ाने के लिए क्रूस पर सहा |
पुनर्विचार के लिए
अगली बार जब कोई परीक्षा हमें पाप की ओर ले जाने लगे, तो थोड़ा ठहरें और हमें छुडाने के लिए क्रूस पर अपना लहू बहाते समय हमारे प्रभु ने जो विभिन्न प्रकार के दुःख सहे हैं उन पर ध्यान करें | और होने पाए कि ऐसा ध्यान–मनन उस पाप की परीक्षा को “नहीं” कहने के लिए हमें विवश कर दे |
क्या हम, इस बात को समझते हुए क्रूस को देख सकते हैं कि हमारा उद्धारकर्ता आकाश और पृथ्वी के मध्य अपार वेदना में पुकारते हुए लटका था और ठीक उसी समय पापों को प्यार कर सकते हैं, जिनमें वे पाप भी सम्मिलित हैं जिन्हें हम लम्बे समय से प्यार करते आये हैं?
असंभव!
होने पाए कि हमारा ह्रदय एक पवित्र संकल्प के साथ आंदोलित हो जाए कि आज से हम पापों के प्रति हमारी घृणा को बढ़ाते जायेंगे–एक ऐसी घृणा को जो इस बात को मुझे स्मरण दिलायेगी कि उन पापों के कारण मेरे उद्धारकर्ता के साथ क्या–क्या हुआ और ऐसा करते हुए वह घृणा मुझे उन पापों को अपने जीवन से दूर करने के लिए विवश करेगी | साथ ही साथ यह भी होने पाए कि हमारा ह्रदय भी अपने प्रिय प्रभु यीशु को और अधिक प्रेम करने एवं उसे और अधिक संजोकर रखने के लिए उत्तेजित हो जाये |