धन्य – वचन: भाग 2 धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं

Posted byHindi Editor December 12, 2023 Comments:0

(English Version: “The Beatitudes – Blessed Are The Poor In Spirit”)

यह धन्य–वचन लेख–श्रृंखला के अंतर्गत दूसरा लेख है | धन्य–वचन खण्ड मत्ती 5:3-12 तक विस्तारित है, जहाँ प्रभु यीशु ऐसे 8 मनोभावों के बारे में बताते हैं, जो उस प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में होना चाहिए जो उसका अनुयायी होने का दावा करता है |  

प्रभु यीशु पहाड़ी उपदेश का आरम्भ इस असाधारण कथन से करते हैं, धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है” [मत्ती 5:3] | “मन का दीन” होना बुनियादी मनोभाव है | एक तरफ़ जहाँ संसार उन लोगों की प्रशंसा करती है जो मन के बलशाली हैं, वहीं दूसरी तरफ़ बाईबल विश्वासियों को मन की दीनता प्रदर्शित करने की बुलाहट देता है | यह संस्कृति–विपरीत जीवनशैली है! 

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि “मन की दीनता” का अर्थ मन में कमजोर होना या विश्वास में कमजोर होना नहीं है | इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आप सब तरफ़ फिरते हुए कहते रहें, “मैं तो कुछ भी नहीं हूँ,” | इसके विपरीत, इसका अर्थ है, यह विश्वास करना और कहना, “हे परमेश्वर, मेरे पास आपके मापदण्ड के स्तर पर जीने के लिए कोई भी आत्मिक संसाधन नहीं है | मेरे पास वह संसाधन नहीं है, जिसकी आवश्यकता उस प्रकार का जीवन जीने के लिए है, जिस प्रकार का जीवन जीने के लिए आपने मुझे बुलाया है! मैं प्रत्येक बात के लिए आप पर निर्भर हूँ | आपके बिना, मैं आत्मिक रूप से दिवालिया हूँ!” 

जिस यूनानी शब्द का अनुवाद, “दीन” किया गया है, उसका प्रयोग एक ऐसे व्यक्ति को दर्शाने के लिए किया जाता था जिसके पास किसी भी प्रकार का कोई भौतिक संसाधन नहीं होता था, और जिसके फलस्वरूप वह अपनी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए पूर्णतः किसी और पर निर्भर रहता था [लूका 16: 19-20 देखिए] | यह एक ऐसे भिखारी का चित्रण है, जो नीचे झुका हुआ है, उसका चेहरा जमीन से अत्याधिक समीप है, सर ढँका हुआ है, और वह इतना लज्जित है कि अपनी आँखें भी ऊपर नहीं उठा पा रहा, बस पैसे माँगने के लिए वह अपने हाथ फैला देता है |

परन्तु, मत्ती 5:3 में चूँकि यीशु मसीह “दीन” शब्द के साथ “मन के” शब्द भी जोड़ देते हैं, इसलिए हम जानते हैं कि वे भौतिक दीनता [सामग्री-संबंधी गरीबी] की बात नहीं कर रहे हैं | वे मुख्य रूप से आत्मिक दीनता [गरीबी] की बात कर रहे हैं [प्रकाशितवाक्य 3:17-18 देखिए]–एक आत्मिक शून्यता [खालीपन] | धनी और निर्धन दोनों ही प्रकार के लोगों ने पाप किया है | ऐसा जीवन जीने के लिए जो परमेश्वर को ग्रहणयोग्य हो, दोनों के ही पास संसाधन नहीं है | दोनों को ही इस सत्य को समझना होगा और यीशु के पास आना होगा, उस यीशु के पास जो एकमात्र ऐसा व्यक्ति है, जो उन्हें परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला जीवन जीने के लिए वह दे सकता है जो उनके पास नहीं है | तो यह है मन के दीन होने का अर्थ! 

स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने वाले एकमात्र प्रकार के लोग अर्थात मन के दीन व्यक्ति का सर्वाधिक उपयुक्त चित्रण यीशु मसीह द्वारा लूका 18:8-14 में बताये गये, “फरीसी और चुंगी लेने वाले के दृष्टांत” में मिलता है | उस दृष्टांत में स्वघोषित धर्मी फरीसी अपने आत्मिक उपलब्धियों से इतना परिपूर्ण था कि वह अपने पापों से क्षमा पाने की आवश्यकता को देखने के लिए पूर्णतः अंधा था | वहीं दूसरी तरफ़, चुंगी लेने वाले ने कुछ और नहीं बल्कि एक पवित्र परमेश्वर के विरोध में किए गये अपने पापों को देखा और फलस्वरूप वह अपनी छाती को पीटता रहा और चीखता रहा, “हे परमेश्वर, मुझ पापी पर दया कर!” [लूका 18:13] | यह है, एक आत्मिक भिखारी का चित्र–मन के दीन व्यक्तियों को दर्शाने का एक अन्य तरीका | इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वह चुंगी लेने वाला ही अपने पापों की क्षमा पाकर अपने घर गया, वह फरीसी नहीं जो अपने घमंड के कारण अपनी आत्मिक शून्यता [खालीपन] को देखने में असफल हो गया |  

जब तक हम अपने आप को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखेंगे जिसके पास परमेश्वर के साथ आत्मिक रूप से सही संबंध स्थापित करने के लिए आवश्यक संसाधन हैं, तब तक हम पापों की क्षमा के लिए कभी भी यीशु को नहीं देखेंगे | इसका अर्थ यह है कि हमें कभी भी अनन्त जीवन नहीं मिलेगा और हम कभी भी परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर पायेंगे | परन्तु जब हम परमेश्वर के अनुग्रह से अपने आप को आत्मिक रूप से कंगाल व्यक्ति के रूप में देखेंगे, तो हम पापों की क्षमा के लिए केवल मसीह के पास आयेंगे | परिणामस्वरूप हम अनन्त जीवन पायेंगें और इस प्रकार परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगे | 

परन्तु, मन की दीनता वाला मनोभाव उद्धार पाने के साथ रुक नहीं जाता है | हमें इस बात को स्मरण रखना है कि हालाँकि हमारा उद्धार हो चुका है, तौभी हम अब भी अपने मसीही जीवन को अपनी सामर्थ से नहीं जी सकते | परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए जो बात होनी चाहिए वह बात हममें है ही नहीं | हमें निरंतर उस पर निर्भर रहना है और परमेश्वर को पुकारते रहना है कि वह हममें निवास करने वाले पवित्र आत्मा की सामर्थ द्वारा हमारी सहायता करे ताकि हम वह जीवन जी सकें जैसा जीवन जीने के लिए उसने हमें बुलाया है |

और यहीं पर हम अक्सर असफल होते हैं | हम उस छोटे बच्चे के समान हैं जो साईकल चलाना सीखता है, उसकी साईकल में उसे गिरने से बचाने के लिए पीछे के चक्के के साथ दोनों तरफ़ एक–एक छोटा चक्का [ट्रेनिंग व्हील्स] लगा होता है | थोड़े दिनों के बाद एक समय ऐसा भी आता है जब ट्रेनिंग व्हील्स की आवश्यकता नहीं रह जाती और बच्चा अपने दम पर साईकल चलाने लग जाता है | हालाँकि हम इसे कभी भी खुलकर नहीं कहेंगे, परन्तु सच्चाई यही है कि हम भी अक्सर ऐसा ही करने का प्रयास करते हैं | हम अपने दम पर कार्यों को करना चाहते हैं, हम गिर जाते हैं, और फिर परमेश्वर का सहारा लेते हैं | 

यदि मैंने सही ढंग से यीशु मसीह की बातों को पढ़ा है, तो उनका कहना है कि केवल वही लोग स्वर्ग के राज्य के सच्चे नागरिक हैं जो मन की दीनता के इस मनोभाव को एक जीवनशैली के रूप में प्रदर्शित करते हैं | इसलिए, हमें इस बात को गंभीरता से लेना है | पवित्र आत्मा की सामर्थ से हमें अवश्य ही इस प्रकार की जीवनशैली के साथ जीने की अभिलाषा करनी चाहिए–स्वर्ग राज्य में प्रवेश पाने के लिए नहीं–परन्तु इस बात के लिए आश्वस्त हो जाने के लिए कि हम वास्त्व में स्वर्ग के नागरिक हैं!

अंततः, जो लोग मन की दीनता को एक जीवनशैली के रूप में अपनाते हैं, उन्हें उनका पुरस्कार मिलता है: “स्वर्ग का राज्य उनका है” [मत्ती 5:3] | अंतिम भाग का और बेहतर अनुवाद किया जा सकता है, “स्वर्ग का राज्य उनका और केवल उनका है | केवल वे लोग ही स्वर्ग के राज्य या परमेश्वर के राज्य के अधिकारी हैं |

दूसरे शब्दों में कहें तो, जो लोग मन के दीन हैं, वे इस जीवन में, स्वर्ग की आत्मिक आशीषों को अनुभव करेंगे | इसका अर्थ है कि वे लोग इस बात को जानने के कारण मिलने वाली खुशी से आनंद का अनुभव करेंगे कि परमेश्वर ने उन्हें ग्रहण किया है और अब भी जब वे राजा यीशु के शासन की आधीनता में जीवन बिताते हैं, तो परमेश्वर उनमें और उनके द्वारा कार्य करता है | भविष्य में, वे लोग इन आशीषों की भरपूरी का भी अनुभव करेंगे और इसका अत्याधिक अनुभव तब होगा जब राजा यीशु अपना पार्थिव राज्य स्थापित करने के लिए वापस आयेंगे | 

यहाँ 4 ऐसे सिद्धांत हैं जिन्हें अभ्यास में लाने के बारे में सोचा जाना चाहिए ताकि इस “मन की दीनता” वाले मनोभाव को एक जीवनशैली के रूप में प्रदर्शित करने में सहायता मिले |

1. हमें अवश्य ही एक दैनिक कर्मठ प्रार्थना के लिए वचनबद्ध होना चाहिए |

चूँकि प्रार्थना एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम हर समय हमारे लिए प्रभु की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं, इसीलिए हमें हमारी सहायता करने के लिए उसे बिना किसी लज्जा के निरंतर पुकारना ही चाहिए–फिर चाहे यह किसी पाप पर जय पाने की बात हो या फिर कोई और विषय | हम जितना अधिक प्रार्थना करते हैं, उतना ही अधिक समझ पाते हैं कि हम कितने पापमय हैं [यह एक और तरीका है यह बताने के लिए कि हम आत्मिक रूप से कितने दिवालिये हैं] | ऐसी एक समझ, हमें फिर से और अधिक प्रार्थना और अंगीकार में होकर परमेश्वर को पुकारने के लिए बाध्य करेगी | 

2. हमें अवश्य ही ऐसा कुछ भी नहीं करने के लिए वचनबद्ध होना चाहिए जो परमेश्वर की इच्छा के विरोध में हो  |

जो मन के दीन हैं वे अवश्य ही परमेश्वर के वचन से थरथराते हैं [यशायाह 66:2] और पवित्र शास्त्र में प्रकाशित परमेश्वर की इच्छा के विरोध में कुछ भी करने के लिए सोचने से भी थरथराते हैं | 

3. हमें अवश्य ही ऐसे विचारों से दूर रहने के लिए वचनबद्ध होना चाहिए जो स्वयं को महिमामंडित करती है |

हमारे विचार हमारे कार्यों को संचालित करते हैं | पापमय जीवन, पापमय विचारों का परिणाम है | इसीलिए, हमें अवश्य ही एक भक्तिमय वैचारिक जीवन विकसित करने के उद्देश्य से हमारे मन–मस्तिष्क [रोमियों 12:2] और ह्रदय [नीतिवचन 4:23] को नियंत्रित करने के लिए परमेश्वर के वचन को अनुमति देना चाहिए | 

4. हमें अवश्य ही जीवन की परीक्षाओं [कठिनाईयों] को परमेश्वर के ऐसे तरीकों के रूप में देखने के लिए वचनबद्ध होना चाहिए जो हमें स्वयं पर कम और उस पर अधिक निर्भर होने के लिए प्रेरित करती हैं |

इस जीवन की परीक्षाओं को तुच्छ जानने के स्थान पर, हमें उन्हें एक सर्वाधिकारी और प्रेमी परमेश्वर की ओर से आनेवाली बातों के रूप में देखना सीखना चाहिए–उसी परमेश्वर की ओर से जिसने न केवल हमारे लिए अपने पुत्र को क्रूस पर चढ़ाया बल्कि अपने अन्य बच्चों को अर्थात हमें भी परीक्षाओं से होकर गुजारता है–कभी–कभी दुःख रूपी अग्नि से [1 पतरस 4:12]–ताकि हम केवल उसी पर निर्भर रहना सीख सकें, अपनी सामर्थ पर नहीं [2 कुरिन्थियों 1:9-10; 12:7-10] | 

ये बातें कहने के पश्चात, हमें हताशा में गिरने या किसी गलत निष्कर्ष पर पहुँचने से बचाने के लिए मैं यह बात भी जोड़ना चाहूँगा: हममें से कोई भी इस धन्य–वचन का या फिर किसी भी धन्य–वचनों का सिद्धता में पालन नहीं कर सकता है | कोई तो है जिसने हमारे बदले इन सब धन्य–वचनों का सिद्धता में पालन किया: यह कार्य उसी ने किया है, जिसने इन बातों को सिखाया है–स्वयं प्रभु यीशु ने! 

यदि कोई व्यक्ति था, जिसे प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं थी, तो वे थे यीशु मसीह | तौभी, प्रार्थना को यीशु से बढ़कर किसी ने महत्व नहीं दिया–संसार में जन्म लिए किसी भी व्यक्ति से अधिक व्यस्त होने के बावजूद | आख़िरकर, किसी और के पास नहीं परन्तु उसी के पास पूरा करने के लिए एक असाधारण कार्य था–संसार का उद्धार करने का कार्य! 

यदि कोई ऐसा था, जो वही करने की इच्छा रखता था, जो वह [परमेश्वर] चाहता था, तो वे थे यीशु मसीह | तौभी, उसने कोई भी कार्य पिता से पूछे बिना कभी नहीं किया | केवल इतना ही नहीं, बल्कि वे उसकी [पिता की] इच्छा पूरी करने के लिए सदैव प्रसन्न रहते थे–यहाँ तक कि तब भी जब उसकी इच्छा उसे क्रूस पर ले गई|  

यदि किसी को अपनी महिमा करने के बारे में सोचने का अधिकार था, तो वे थे यीशु मसीह | यदि वे ऐसा करते तो यह कोई पाप नहीं होता क्योंकि वे तो सबसे महान हैं | तौभी, वे अपने आपको “नम्र और मन [सभी विचारों का केंद्र] में दीन” बताते हैं [मत्ती 11:29] |

यदि कोई ऐसा था जिसने प्रत्येक परीक्षा को सह लिया और कभी भी प्रलोभन में नहीं गिरे, तो वे थे, यीशु मसीह|

इसी कारण से परमेश्वर हमें यीशु मसीह में होकर ही स्वीकार करता है | और यह यीशु ही है जिसके द्वारा हम परमेश्वर के सम्मुख स्वीकार्य बने रहते हैं | इसलिए, आईए हम ऐसा सोचने के फंदे में न फँसे कि हमें परमेश्वर से स्वीकार्यता पाने के लिए या परमेश्वर के सम्मुख  स्वीकार्य बने रहने के लिए इस मन की दीनता का सिद्ध प्रदर्शन करना होगा | बल्कि, जब हम इस दौड़ में दौड़ते हैं तो उसे अपना आदर्श मानें–और पवित्र आत्मा हमारे अन्दर परिवर्तन का कार्य करता है ताकि हम और अधिक यीशु के समान बन जायें [2 कुरिन्थियों 3:18] |   

यह सच है कि यह संसार अच्छाई को इस तरह से परिभाषित करता है, “वे सब बातें जो सामर्थ की भावना, सामर्थ पाने की इच्छा और मनुष्य में विद्यमान सामर्थ को ऊँचा करती है,” और बुराई को इस तरह से परिभाषित किया जाता है, “वे सब बातें जो कमजोरी से निकलती है” | यह संसार अपनी माँसपेशी फूलाता है और अपनी स्वयं की सामर्थ पर इतराता है | परन्तु, हमें जो मन के दीन हैं–बिना किसी लज्जा के–हमारी समस्त कमजोरियों के साथ–अवश्य ही हमारे खाली हाथों को निरंतर स्वर्ग की ओर उठाना चाहिए और उसे पुकारते रहना चाहिए, “हे प्रभु, मुझे तेरी आवश्यकता है | आपके बिना मैं यह नहीं कर सकता | मेरी सहायता कर |” हमें निरंतर यह स्मरण रखने की आवश्यकता है कि परमेश्वर की सामर्थ हमारी कमजोरियों के द्वारा कार्य करती है और हमारी कमजोरियों के द्वारा परमेश्वर की महिमा में बढ़ोत्तरी होती है | यदि संसार हमारी मन की दीनता वाली जीवनशैली पर हँसती है तो हमें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है | आख़िरकर, यह तो संस्कृति–विपरीत जीवनशैली है | हम इस तथ्य में तसल्ली पा सकते हैं कि ऐसी जीवनशैली पर परमेश्वर की स्वीकृति की मुस्कान है | 

हमें इस बात को निरंतर स्मरण में रखने की आवश्यकता है कि केवल वही लोग जो संस्कृति–विपरीत जीवनशैली जीते हैं, यीशु को यह कहते हुए सुन सकते हैं, “धन्य हो तुम |” अन्य लोग यीशु को केवल यह कहते हुए सुनेंगे, “तुम पर हाय | तुम पर एक भयानक दण्ड आने पर है |”  तो देखा आपने, चुनाव तो अनन्त खुशी और अनन्त दुःख, अनन्त शान्ति और अनन्त दर्द के मध्य करना है | आईए बुद्धिमान बनें और संसार जो अस्थाई “खुशी” देने का प्रस्ताव देता है, उसके ऊपर यीशु के द्वारा प्रस्तावित अनन्त आशीषों का चुनाव करें! 

बीता समय, बीत गया | आज एक नया दिन है | हम इस महान सच्चाई पर विश्वास करने और उस पर कार्य करने के द्वारा पुनः एक शुरुआत कर सकते हैं: सच में धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं–जो आत्मिक रूप से कंगाल हैं…क्योंकि स्वर्ग का राज्य उनका, और केवल उनका है!  

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